समाधि साधना शिवर, श्री ओशो आश्रम, पूना।
दिनांक 11 से 20 सितंबर, 1974 तक ओशो द्वारा दिए गए दस अमृत—प्रवचनो का संकलन।
सूत्र:
ओंम नम: श्रीशंभवे स्वात्मानन्दप्रकाशवपुषे।
अथ
शिव—सूत्र:
चैतन्यमात्मा ।
ज्ञानं बन्ध:।
योनिवर्ग: कलाशरीरम्।
उद्योमो भैरव:।
शक्तिचक्रसंधाने विश्वसंहार:।
ओंम स्वप्रकाश आनंद—स्वरूप भगवान शिव को नमन
(अब) शिवसूत्र (प्रारंभ)
चैतन्य आत्मा है। ज्ञान बंध है। यौनिवर्ग और कला शरीर है। उद्यम ही भैरव है। शक्तिचक्र के संधान से विश्व का संहार हो जाता है।
शिव सूत्र – 01. जीवन—सत्य की खोज की दिशा
सूत्र:
जाग्रतस्वप्नसुषुप्तभेदे तुर्याभोग सवित।
ज्ञानं जाग्रत।
स्वप्रोविकल्पा:।
अविवेको मायासौषुप्तमू।
त्रितयभोक्ता वीरेश:।
जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति— इन तीनों अवस्थाओं को पृथक रूप से जानने से तुर्यावस्था का भी ज्ञान हो जाता है ज्ञान का बना रहना ही जाग्रत अवस्था है।
विकल्प ही स्वप्न हैं।
अविवेक अर्थात स्व—बोध का अभाव मायामय सुषुप्ति है।
तीनों का भोक्ता वीरेश कहलाता है।
शिव सूत्र – 02. जीवन—जागृति के साधना
सूत्र:
विस्मयो योगभूमिका:।
स्वपदंशक्ति।
वितर्क आत्मज्ञानमू।
लोकानन्द: समाधिसुखम्।
विस्मय योग की भूमिका है। स्वयं में स्थिति ही शक्ति है। वितर्क अर्थात विवेक आत्मज्ञान का साधन है। अस्तित्व का आनंद भोगना समाधि है।
शिव सूत्र – 03. योग के सूत्र: विलय, वितर्क, विवेक
सूत्र:
चितं मंत्र:
प्रयत्न: साधक:।
गुरु: उपाय:।
शरीरं हवि:।
ज्ञानमन्नम्।
विद्यासंहारे तदुत्थस्वप्नदर्शनम्।
चित्त ही मंत्र है। प्रयत्न ही साधक है। गुरु उपाय है। शरीर हवि है। ज्ञान ही अन्न है। विद्या के संहार से स्वप्न पैदा होते है।
शिव सूत्र – 04. चित्त के अतिक्रमण के उपाय
सूत्र:
आत्मा चित्तम्।
कलादीनां तत्वानामविवेको माया।
मोहावरणात् सिद्धि:।
जाग्रद् द्वितीय कर:।
आत्मा चित्त है। कला आदि तत्वो का अविवेक ही माया है। मोह आवरण से युक्त को सिद्धियां तो फलित हो जाती है। लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता है। स्थाई रूप से मोह जय होने पर सहज विद्या फलित होती है। ऐसे जाग्रत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का प्रस्फुरण है—ऐसा बोध होता है।
शिव सूत्र – 05. संसार के सम्मोहन और सत्य का आलोक
सूत्र:
नर्तक: आत्मा।
रड्गोउन्तरात्मा।
धीवशात् सत्वसिद्धि:।
सिद्ध: स्वतन्त्र भाव:।
विसर्गस्वाभाव्यादबहि: स्थितेस्तत्स्थिति।
आत्मा नर्तक है। अंतरात्मा रंगमंच है। बुद्धि के वश में होने से सत्व की सिद्धि होती है। और सिद्ध होने से स्वातंत्र्य फलित होता है।
स्वतंत्र स्वभाव के कारण वह अपने से बाहर भी जा सकता है और वह बाहर स्थित रहते हुए अपने अंदर भी रह सकता है।
शिव सूत्र – 06. दृष्टि ही सृष्टि है
सूत्र:
बीजावधानम्।
आसस्थ: सुखं हृदे निमजति।
स्वमात्रा निर्माणमापादयति।
विद्याऽविनाशे जन्मविनाश:।
ध्यान बीज है। आसनस्थ अर्थात स्व—स्थित व्यक्ति सहज ही चिदात्म सरोवर में निमज्जित हो जाता है और आत्म—निर्माण अर्थात द्विजत्व को प्राप्त करता है। विद्या का अविनाश जन्य का विनाश है।
शिव सूत्र – 07. ध्यान अर्थात चिदात्म सरोवर में स्नान
सूत्र:
त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेव्यम्
मग्न: स्वचित्ते प्रविशेत्।
प्राणसमाचारे समदर्शनम्।
शिवतुल्यो जायते।
तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था का तेल की तरह सिंचन करना चाहिए ऐसा मग्न हुआ स्व—चित्त में प्रवेश करे। प्राणसमाचार (अर्थात सर्वत्र परमात्म—ऊर्जा का प्रस्फुरण है—ऐसा अनुभव कर) से समदर्शन को उपलब्ध होता है। और वह शिवतुल्य हो जाता है!
शिव सूत्र – 08. जिन जागा तिन मानिक पाइया
सूत्र:
कथाजप:।
दानमात्मज्ञानमू।
योऽविपस्थोज्ञाहेतुक्ष्च।
स्वशक्तिप्रचयोऽस्थविश्वमू।
स्थितिलयौ।
वे जो भी बोलते हैं वह जप है। आत्मज्ञान ही उनका दान है। वह अंतदशक्तियों का स्वामी है और ज्ञान का कारण है। स्वशक्ति का प्रचय अर्थात् सतत विलास ही इसका विश्व है। और वह स्वेच्छ से स्थिति और लय करता है।
शिव सूत्र – 09. साधो, सहज समाधि भली!
सूत्र:
सुखासुखयोर्बहिर्मननमू।
तद्विमुक्तस्तु केवली।
तदारूढप्रमितेस्तन्धयाज्जीवसंक्षय।
भूतकंचुकी तदाविमुक्तो भूय: पतिसम: पर:।
ओम, श्री शिवार्पण अस्तु।
सुख—दुख बाह्य वृत्तियां है—ऐसा सतत जानता है 1 और उनसे विमुक्त—वह केवली हो जाता है। उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा—क्षय के कारण जन्म—मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है। ऐसा भूत—कंचुकी विमुक्त पुरुष परम शिवरूप ही होता है।
ओम भगवान श्री शिव को यह अर्पित हो।
शिव सूत्र – 10. साक्षित्व ही शिवत्व है
भूमिका:
धर्म की यात्रा के साधन क्या है? इस प्रश्र का समाधान प्रज्ञापुरुषों ने अपने अपने ढंग से किया है। परंतु सभी ने इस बात का स्पष्ट संकेत दिया है कि कोई भी साधन तभी उपयोगी हो सकता है जब साधक गहन से गहनतर चुनौतियों को झेलने के लिए अपने पूरे प्राणपण से तलर हो, कि वह स्वयं एक ऐसी आग में से गुजरने के लिए प्रतिबद्ध हो जो उसकी चेतना को पूरी तरह निखार सके।
परंतु यह यात्रा, इस यात्रा के साधन, और चुनौतियों का सामना करने के योग्य सामर्थ्य यह सब निर्भर करता है एक मुख्य तत्व पर—यात्रा का मार्गदर्शक। दूसरे शब्दों में, मात्र सदगुरू ही सही साधन उपलब्ध कराते है। सदगुरू स्वयं एक चिरंतन प्रज्वलित अग्रि है जिसकी ऊर्जा व्यक्ति की चेतना को रूपांतरित कर देती है। चुनौती है सदगुरू, उसके निकट आकर जैसे थे वैसे रह पाना असंभव है।
सदगुरू क्रांति की ज्वाला है—बाहरी नहीं, भीतरी क्रांति। माता—पिता, शिक्षक, पंडित और पुरोहित और सब तो दे सकते है, बोध नहीं। वे शरीर और मन तो दे सकते हैं, चेतना नहीं। चेतना जगाने के लिए आवश्यकता है एक आमूल क्रांति की, और इस क्रांति को घटाने के लिए आवश्यकता रहती है बोध की, ज्ञान की।
भगवान श्री रजनीश ऐसे ही परम प्रज्ञावान सदगुरू है। अपनी अमृतवाणी से उन्होंने धर्म और अध्यात्म संबंधी अनेक गढ़ रहस्यों को उद्घाटित किया है तथा संसार के अनेक मुमुक्षुओं को मार्गदर्शन दिया है। उनके वचन हैं— ‘‘जहां क्रांति न हो, समझना ज्ञान नहीं है। ज्ञान अग्नि की भांति है—प्रज्वलित अग्नि की भांति। और जो शान से गुजरेगा, वह अग्नि से जलकर कुंदन हो जाता है।’’
‘‘शिव—सूत्र’’ ऐसी ही क्रांति के सूत्र हैं। भगवान कहते है,
‘‘शिव कोई पुरोहित नहीं है। शिव तीर्थंकर हैं। शिव अवतार हैं। शिव क्रांतिद्रष्टा है, पैगम्बर है। वे जो भी कहेंगे, वह आग है। अगर तुम जलने को तैयार हो, तो ही उनके पास आना; अगर तुम मिटने को तैयार हो, तो ही उनके निमंत्रण को स्वीकार करना। क्योंकि तुम मिटोगे तो ही नये का जन्म होगा। तुम्हारी राख पर ही नये जीवन की शुरुआत है।’’
लेकिन इन सूत्रों के क्रांतिकारी होने से भी कहीं अधिक उल्लेखनीय बात यह है कि भगवान श्री रजनीश जैसे क्रांतदर्शी बुद्धपुरुष ने इन चिंगारीयों में नये प्राण फूंके है। एक नये जीवन की दिशा, एक नये मनुष्य के जन्म के संदर्भ में भगवान के ये अमृत वचन चेतना के रूपांतरण की भूमिका हैं।
तो धर्म की यात्रा के साधन क्या है इस बात से हमने आरंभ किया था। भगवान श्री ने बीज रूप में जो साधन दिया है वह है— ध्यान।‘‘शिव—सूत्र’’ के अमूल्य वचनों का रहस्य समझाते हुए इसी संदर्भ में भगवान कहते है—
”ध्यान बीज है। तुम्हारी महत् यात्रा में, जीवन की खोज में, सत्य के मंदिर तक पहुंचने में— ध्यान बीज है। ध्यान क्या है जिसका इतना मूल्य है; जो कि खिल जायेगा तो तुम परमात्मा हो जाओगे; जो सड़ जायेगा तो तुम नर्कीय जीवन व्यतीत करोगे? ध्यान क्या है? ध्यान है निर्विचार चैतन्य की अवस्था, जहां होश तो पूरा हो और विचार बिलकुल न हों। तुम तो रहो, लेकिन मन न बचे। मन की मृत्यु ध्यान है।’’
परंतु केवल सदगुरू और साधन के उपलब्ध हो जाने से भी पूरी बात नहीं बनती। संपूर्ण और प्रामाणिक प्रयास भी चाहिए।‘‘शिव—सूत्र’’ को समझाते हुए भगवान श्री ने हमें समय में ही सावधान किया है—
‘‘दुर्भर है मार्ग। उस दुर्भर से गुजरना होगा। और, इसीलिए उद्यम चाहिए। इतनी महान प्रयत्न करने की आकांक्षा चाहिए, अभीप्सा चाहिए कि तुम अपने को पूरा दांव पर लगा दो। मोक्ष खरीदा जा सकता है, लेकिन तुम अपने को दाव पर लगाओ तो ही; इससे कम में नहीं चलेगा। कुछ और तुमने दिया, वह देना नहीं है, वह कीमत नहीं चुकायी तुमने। अपने को पूरा दे डालोगे तो ही कीमत चुकती है और उपलब्धि होती है।’’
सारे संसार में धर्म के नाम पर सदियों से अत्याचार, शोषण और बेईमानी होते रहे है। परंतु जब भी इस प्रकार अंधकार घना होता है, कोई एक बुद्धपुरुष अपने दिव्य तेज और अपनी प्रखर वाणी द्वारा एक नयी चेतना को जन्म देता है, जीवन को एक नया संदर्भ देता है, सूखे, प्यासे, हारे प्राणों में एक नया मधुर संगीत भर देता है। वर्तमान जगत को घेरे हुए अंधकार को चीर कर भगवान श्री रजनीश ने नयी ज्योतिर्मय दिशा प्रदान की है। ध्यान, प्रेम और संन्यास का त्रिवेणी संगम उनके सान्निध्य में अनुभव करने और उसमें गहरी डुबकियां लेने में ही जीवन की कृतार्थता है।
भगवान द्वारा प्रकटाए हुए स्कूलिंग हम सब की चेतना को प्रज्वलित करें और हमारे यात्रापथ को प्रकाशमान करें इसी प्रार्थना के साथ प्रस्तुत है ‘‘शिव—सूत्र’’।
~ डा. वसंत जोशी