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ओशो – तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का अंग है

पहले तो दो बातें समझ लेने की है।

  1. एक, तीसरी आँख की ऊर्जा वही है जो ऊर्जा दो सामान्‍य आंखों को चलाती है। ऊर्जा वही है, सिर्फ वह नई दिशा में नए केंद्र की और गति करने लगती है। तीसरी आँख है; लेकिन निष्‍क्रिय है। और जब तक सामान्‍य आंखे देखना बंद नहीं करती, तीसरी आँख सक्रिय नहीं हो सकती है। देख नहीं सकती। उसी उर्जा को यहां भी बहना है। जब उर्जा सामान्‍य आँखो में बहना बंद कर देती है तो वह तीसरी आँख में बहने लगती है। और जब ऊर्जा तीसरी आँख में बहती है तो सामान्‍य आंखों में देखना बंद कर देती है। अब उनके रहते हुए भी तुम उनके द्वारा कुछ नहीं देखते हो। जो ऊर्जा उनमें बहती थी वह वहां से हट कर नये केंद्र पर गतिमान हो जाती है। यह केंद्र दो आँखो के बीच में स्‍थित है। तीसरी आँख बिलकुल तैयार है; वह किसी भी क्षण सक्रिय हो सकती है। लेकिन इसे सक्रिय होने के लिए ऊर्जा चाहिए। और सामान्‍य आंखों की ऊर्जा को यहां लाना होगा ।
  2. दूसरी बात, जब तुम सामान्‍य आँखो से देखते हो तब तुम सचमुच स्‍थूल शरीर से देखते हो। तीसरी आँख स्‍थूल शरीर का हिस्‍सा नहीं है। यह दूसरे शरीर का हिस्‍सा है। तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का हिस्‍सा है। स्‍थूल शरीर के भीतर उसके जैसा ही सूक्ष्‍म शरीर भी है; लेकिन यह स्‍थूल शरीर का हिस्‍सा नहीं है। यही वजह है कि शरीर-शास्‍त्र यह मानने को राज़ी नहीं है कि तीसरी आँख या उसकी जैसी कोई चीज है। तुम्‍हारी खोपड़ी की खोज-बीन की जा सकती है। एक्‍सरे के द्वारा उसे देखा-परखा जा सकता है। लेकिन उसमे कहीं भी वह चीज नहीं मिलेगी जिसे तीसरी आँख कहा जा सके। तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का हिस्‍सा है।

    जब तुम मरते हो तो तुम्‍हारा स्‍थूल शरीर ही मरता है। तुम्‍हारा सूक्ष्‍म शरीर तुम्‍हारे साथ जाता है और वह दूसरा जन्‍म लेता है। जब तक सूक्ष्‍म शरीर नहीं मरेगा तुम जन्‍म मरण के, आवागमन के चक्‍कर से मुक्‍त नहीं हो सकते; तब तक संसार चलता रहेगा।

    तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का अंग है। जब ऊर्जा स्‍थूल शरीर में गतिमान रहती है। तो तुम अपनी स्‍थूल आंखों से देख पाते हो। यही कारण है कि स्‍थूल आंखों से तुम स्‍थूल को ही देख सकते हो। पदार्थ को ही देख सकत हो। अन्‍य किसी चीज को नहीं देख सकते। सामान्‍य आँख के सक्रिय होते ही तुम एक नए आयाम में प्रवेश करते हो। अब तुम वे चीजें देख सकते हो जो स्‍थूल आंखों के लिए दृश्य नहीं थी। लेकिन वे सूक्ष्‍म आंखों के लिए दृश्‍य हो जाती है।
    तीसरी आँख के सक्रिय होने पर अगर तुम किसी आदमी पर निगाह डालोगे तो तुम उसकी आत्‍मा में झांक लोगे। यह वैसे ही है जैसे स्‍थूल आंखों से स्‍थूल शरीर तो दिखाई देगा, लेकिन आत्‍मा दिखाई नहीं देगी। तीसरी आँख से देखने पर तुम्‍हें जो दिखाई देगा वह शरीर नहीं होगा; वह- वह होगा जो शरीर के भी रहता है।

    इन दो बातों को स्‍मरण रखो।
    1. पहली, एक ही ऊर्जा दोनों जगह गति करती है।
    उसे सामान्‍य स्‍थूल आंखों से हटाकर ही तीसरी आँख में गतिमान किया जा सकता है।
    2. दूसरी बात कि तीसरी आँख स्‍थूल शरीर का हिस्‍सा नहीं है।
    वह सूक्ष्‍म शरीर का हिस्सा है, जिसे हम दूसरा शरीर भी कहते है। क्‍योंकि तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का हिस्‍सा है, इस लिए जिस क्षण तुम इसके द्वारा देखते हो तुम्‍हें सूक्ष्‍म जगत दिखाई पड़ने लगता है

    तुम यहां बैठे हो अगर एक प्रेत भी यहां बैठा हो तो वह तुम्‍हें नहीं दिखाई देगा। लेकिन अगर तुम्‍हारी तीसरी आँख काम करने लगे तो तुम प्रेत को देख लोगे। क्‍योंकि सूक्ष्‍म अस्‍तित्‍व सूक्ष्‍म ओखों से ही देखा जा सकता है।

तीसरी आँख देखने की इस विधि से कैसे संबंधित है?
गहन रूप से संबंधित है। सच तो यह है कि यह विधि तीसरी आँख को खोलने की विधि है। अगर तुम्‍हारी दो आंखें बिलकुल ठहर जाएं, वे स्‍थिर हो जाएं, पत्‍थर की तरह स्‍थिर हो जाएं, तो उनके भीतर ऊर्जा का प्रवाह ठहर जाता है। अगर आँख को ठहरा दो तो उनके भीतर ऊर्जा का प्रवाह ठहर जाता है।

ऊर्जा प्रवाहित है, इससे ही आंखों में गति है। कंपन या गति ऊर्जा के कारण है। अगर ऊर्जा गति न करे तो तुम्‍हारी आँख मुर्दो की आँख की तरह हो जाएं। पथराई और मृत। किसी स्‍थान पर दृष्‍टि करने से, इधर-उधर देखे बिना उस पर टकटकी बांधने से एक गतिहीनता पैदा होती है। जो ऊर्जा दोनों आंखों में गतिमान थी वह अचानक गति बंद कर देगी।

लेकिन गति करना ऊर्जा का स्‍वभाव है ऊर्जा गतिहीन नहीं हो सकती। आंखें गतिहीन हो सकती है, लेकिन ऊर्जा नहीं। इसलिए जब ऊर्जा इने दो आंखों से वंचित कर दि जाती है। जब उसके लिए आंखों के द्वार अचानक बंद कर दिये जाते है, जब उनके द्वारा ऊर्जा की गति असंभव हो जाती है, तो वह ऊर्जा अपने स्‍वभाव के अनुसार नए मार्ग ढूंढने में लग जाती है। और तीसरा नेत्र अति निकट होने के कारण, दो भृकुटियों के बीच, आधा इंच अंदर है। उस ऊर्जा के लिए वह निकटतम बिंदु है।

इसलिए जब ऊर्जा दोनों आंखों से मुक्‍त हो जाती है तो पहली बात यह होती है कि वह तीसरी आँख से बहने लगती है। यह ऐसा ही है जैसे कि पानी बहता हो और तुम उसके एक छेद को बंद कर दो, वह तुरंत निकटतम दूसरे छेद को ढूंढ लेगा। जो निकटतम छेद होगा और जो न्‍यूनतम प्रतिरोध पैदा करेगा। उसे पानी ढूंढ लेगा। वह छेद अपने आप मिल जाता है। उसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता है। ज्‍यों ही इन दो आंखों से ऊर्जा का बहना बंद करोगे, त्‍यों ही ऊर्जा अपना मार्ग ढूंढ लेगी। और वह तीसरी आँख से बहने लगेगी।

तीसरी आँख से ऊर्जा का यह प्रवाह तुम्‍हें रूपांतरित कर दूसरे ही लोक में पहुंचा देगा। तब तुम ऐसी चीजें देखने लगते हो जिन्‍हें कभी न देखा था; ऐसी चीजें महसूस करने लगोंगे जिन्‍हें कभी नहीं महसूस किया था। और तब तुम्‍हें ऐसी सुगंधों को अनुभव होगा जिन्‍हें जीवन में कभी नहीं जाना था। तब एक नया लोक, एक सूक्ष्म लोक सक्रिय हो जाता है। यह नया लोक अभी भी है। तीसरी आँख भी है। सूक्ष्‍म लोक भी है; दोनों है; लेकिन अप्रकट है। एक बार तुम उस आयाम में सक्रिय होते हो तो तुम्‍हें बहुत सी चीजें दिखाई देने लगेंगी।

उदाहरण के लिए, अगर कोई आदमी मरणासन्‍न है और तुम्‍हारी तीसरी आँख सक्रिय है तो तुम तुरंत जान लोगे कि यह आदमी अब जाने वाला है। कोई भी शारीरिक विश्‍लेषण कोई भी चिकित्सा-निदान निश्‍चय पूर्व नहीं बता सकता की यह आदमी मरेगा। वे ज्‍यादा से ज्‍यादा संभावना की बात कह सकते है। कह सकते है कि शायद यह आदमी मरेगा। यह वक्‍तव्‍य भ सशर्त होगा कि यदि ऐसी-ऐसी हालतें रही तो यह आदमी मरेगा, या यदि कुछ किया जाए तो यह नहीं मरेगा।

चिकित्‍सा विज्ञान अभी भी मृत्‍यु के सबंध में इतना अनिश्‍चित क्‍यों है? इतने विकास के बावजूद यह मृत्‍यु के संबंध में अनिश्‍चित है। असल में चिकित्‍सा विज्ञान शारीरक लक्षणों के द्वारा मृत्‍यु के संबंध में अपनी निष्‍पति निकलता है। लेकिन मृत्‍यु शारीरिक नहीं है, सूक्ष्‍म घटना है। यह किसी भिन्‍न आयाम की एक अदृश्‍य घटना है।

लेकिन यदि तीसरी आँख सक्रिय हो जाए और कोई आदमी मरने वाला हो तो तुम यह जान लोगे। यह कैसे जाना जाता है।
मृत्‍यु का अपना प्रभाव होता है। अगर कोई मरने वाला होता है तो समझो कि मृत्‍यु ने पहले ही उस पर अपनी छाया डाल दी होती है। और तीसरी आँख से इस छाया को महसूस किया जा सकता है। देखा जा सकता है।

जब एक बच्‍चा जन्‍म लेता है तो जिन्‍हें तीसरी आँख के प्रयोग का गहरा अभ्‍यास है वे उसी क्षण उसकी मृत्‍यु का समय भी जान ले सकते है। लेकिन उस समय मृत्‍यु की छाया अत्‍यंत सूक्ष्‍म होती है। लेकिन किसी की मृत्‍यु के छह महीने पहले वह व्‍यक्‍ति भी कह सकता है कि यह आदमी मरने वाला है। जिसकी तीसरी आँख थोड़ा भी सक्रिय हो गई है। असल में उस समय तुम्‍हारे चारों तरफ एक काली छाया सधन हो जाती है। और उसे देखा जा सकता है। लेकिन सामान्‍य आंखों से उसे नहीं देखा जा सकता है।

तीसरी आँख के खुलते ही तुम लोगों के प्रभामंडल दिखाई देने लगता है। अब कोई आदमी आकर तुम्‍हें धोखा नहीं दे सकता है; क्‍योंकि अगर उसकी कथनी उसके प्रभामंडल से मेल नहीं खाती है तो वह कथनी दो कौड़ी की है। वह कह सकता है कि मुझे कभी क्रोध नहीं आता है; लेकिन उसका लाल प्रभामंडल बता देगा की वह क्रोध से भरा है। वह तुम्‍हें धोखा नहीं दे सकता है। जहां तक उसके प्रभामंडल का सवाल है उसे इसका कुछ पता नहीं है। लेकिन तुम उसका प्रभामंडल देखकर कह सकते हो कि उसका वक्‍तव्‍य सही है। या गलत है। तीसरी आँख के खुलते ही सूक्ष्‍म प्रभामंडल दिखाई देने लगते है।

पुराने जमाने में शिष्‍य की दीक्षा में प्रभामंडल का उपयोग किया जाता था। जब तक तुम्‍हारा प्रभामंडल सम्‍यक न हो तब तक गुरु प्रतीक्षा करेगा। यह तुम्‍हारे चाहने की बात नहीं है। तुम्‍हारा प्रभामंडल देख कर जाना जा सकता है कि तुम तैयार हो की नहीं। इसलिए शिष्‍य को वर्षों इंतजार करना पड़ता था। शिष्‍यत्‍व तुम्‍हारे चाहने पर नहीं तुम्‍हारे प्रभामंडल पर निर्भर है। चाह यहां व्‍यर्थ है। कभी-कभी तो शिष्‍य को कई जन्‍मों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

उदाहरण के लिए, बुद्ध ने वर्षों तक स्‍त्रियों को दीक्षित करने से अपने को रोके रखा। यद्यपि उन पर बहुत दबाव डाला गया; लेकिन वे राज़ी नहीं हुए। और अंत में जब वे राज़ी भी हुए तो उन्‍होंने कहा कि अब मेरा धर्म पाँच सौ वर्षों के बाद जीवंत नहीं रहेगा; क्‍योंकि मैंने समझौता किया है। बुद्ध ने अपने शिष्‍यों से कहा कि मैं तुम्‍हारे आग्रह के दबाव के कारण स्‍त्रियों को दीक्षित करूंगा।
क्‍या कारण था कि बुद्ध स्‍त्रियों को दीक्षित नहीं करना चाहते थे?

एक बुनियादी कारण था जिसका संबंध प्रभामंडल से है। पुरूष सरलता से ब्रह्मचर्य को उपलब्‍ध हो जाता है। लेकिन यह बात स्‍त्री के लिए कठिन है। स्‍त्री मासिक धर्म नियमित घटता है—अचेतन, अनियंत्रित और अनैच्‍छिक। वीर्यपात को तो नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन मासिक स्‍त्राव को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। और यदि उसे नियंत्रित करने की कोशिश जाए तो उसके शरीर पर बहुत बुरे असर होंगे।

और स्‍त्री जब अपने मासिक काल में होती है, उसका प्रभामंडल बिलकुल बदल जाता है। वह कामुक, आक्रमक और उदास हो जाती है। जो भी नकारात्‍मक भाव है वह हर महीने स्‍त्री को एक बार घेरते है। इसी कारण बुद्ध स्‍त्रियों को दीक्षा देने के पक्ष में नहीं थे। बुद्ध ने कहा कि स्‍त्री की दीक्षा कठिन है; क्‍योंकि मासिक धर्म हर महीने वर्तुल में आता रहता है। और उसके साथ ऐच्‍छिक रूप से कुछ भी नहीं किया जा सकता। अब कुछ किया जा सकता है; लेकिन वह बुद्ध के समय में कठिन था । अब वह क्या जा सकता है।

महावीर ने तो स्‍त्री पर्याय के लिए मोक्ष की संभावना को बिलकुल ही अस्‍वीकार कर दिया। उन्‍होंने कहा कि स्‍त्री को पहले पुरूष पर्याय में जन्‍म लेना होगा और तब उसे मोक्ष मिल सकता है। इसलिए पहले तो पूरी चेष्‍टा यह होनी चाहिए कि वह पुरूष पर्याय में नया जन्‍म ले।
क्‍यों? यह भी प्रभामंडल की समस्‍या थी। अगर तुम किसी स्‍त्री को दीक्षित करते हो तो हर महीने वह गिरेगी और सारा प्रयत्‍न व्‍यर्थ चला जाएगा। इसमें कोई भेदभाव का प्रश्न नहीं था। कोई समानता का सवाल नहीं था। कि स्‍त्री और पुरूष समान है या नहीं; कोई समानता का सवाल नहीं था कि स्‍त्री और पुरूष समान है या नहीं। यह समता का प्रश्‍न नहीं था। महावीर के लिए प्रश्‍न यह था कि स्‍त्री की सहायता कैसे कि जाए। तो उन्‍होंने एक सरल रास्‍ता निकाला कि स्‍त्री पुरूष के पर्याय में जन्‍म ले, इससे उसे सहयोग दिया जाए। वह ज्‍यादा सरल लगा। इसका मतलब था कि स्‍त्री को दूसरे जीवन के लिए ठहरना चाहिए। इस बीच उसे पुरूष पर्याय में नया जन्‍म दिलाने के सभी प्रयत्‍न किए जाएं। महावीर को यह बात सरल मालूम हुई। स्‍त्रियों को दीक्षित करना कठिन था; क्‍योंकि वे हर महीने लुढ़क कर अपनी बुनियादी स्‍थिति में लौट आती है। और उन पर किया गया सब श्रम व्‍यर्थ चला जाता है।

लेकिन पिछले दो हजार वर्षों में इस दिशा में बहुत काम हुए है; विशेषकर तंत्र ने बहुत काम किया है। तंत्र ने भिन्‍न-भिन्‍न द्वार खोज निकाले है। तंत्र संसार में अकेला व्‍यवस्‍था है जो पुरूष और स्‍त्री में भेद नहीं करती है। बल्‍कि इसके विपरीत तंत्र का मानना है कि स्‍त्री अधिक आसानी से मुक्‍त हो सकती है। और कारण वही है; सिर्फ भिन्‍न दृष्‍टिकोण से देखा गया है।

तंत्र कहता है की क्‍योंकि स्‍त्री का शरीर समय-समय पर संयमित होता रहता है। इसलिए पुरूष की अपेक्षा स्‍त्री अपने को शरीर से ज्‍यादा सरलता से अलग कर सकती है। क्‍योंकि मनुष्‍य का चित शरीर से ज्‍यादा आसक्‍त है, इसलिए वह शरीर को संयमित कर सकता है। और इसीलिए वह अपनी कामवासना को भी संयमित कर सकता है। लेकिन स्‍त्री अपने शरीर से उतनी नहीं बंधी है। उसका शरीर स्‍वचालित यंत्र की तरह चलता है—एक अलग तल पर; और स्‍त्री इस दिशा में कुछ नहीं कर सकती। स्‍त्री का शरीर स्‍वचलित यंत्र की तरह काम करता है। तंत्र कहता है कि इसीलिए स्‍त्री अपने को अपने शरीर से अधिक आसानी से पृथक कर सकती है। और अगर हय संभव हो—यह अनासक्‍ति, यह अंतराल—तो कोई समस्‍या नहीं रह जाती है, कोई भी समस्‍या नहीं रह जाती है।

तो ये बात बहुत विरोधा भाषी है, लेकिन ऐसा है। यदि कोई स्‍त्री ब्रह्मचर्य धारण करना चाहे और अपने शरीर से पृथक रहना चाहे तो वह यह पुरूष की उपेक्षा अधिक आसानी से कर सकती है। एक बार शरीर से अनासक्ति सध जाए तो वह अपने शरीर को पूरी तरह भूल सकती है।

पुरूष बहुत सरलता से नियंत्रण कर सकता है; लेकिन उसका चित उसके शरीर से ज्‍यादा बंधा है। इसी कारण से नियंत्रण उसके लिए संभव है; लेकिन यह नियंत्रण उसे रोज-रोज करना होगा। सतत करना होगा। और चूंकि स्‍त्री की कामवासना अनाक्रामक है, इसलिए वह इस दिशा में अधिक विश्राम पूर्ण हो सकती है। अधिक अनासक्‍त हो सकती है। लेकिन अनासक्‍ति कठिन है।

तो तंत्र ने अनेक-अनेक उपाय खोजें है। और तंत्र अकेली व्‍यवस्‍था है जो स्‍त्री-पुरूष में भेद नहीं करता और कहता है कि स्‍त्री पर्याय का उपयोग भी किया जा सकता है। तंत्र अकेला मार्ग है जो स्‍त्री को समान हैसियत प्रदान करता है।

शेष सभी धर्म कहते कुछ भी हों, अपने अंतस में यही समझते है कि स्‍त्री हीन पर्याय है। चाहे ईसाइयत हो, इस्‍लाम हो, जैन हो या बौद्ध हो, सब गहरे में यही मानते हे कि स्‍त्री हीन पर्याय है। और इस मान्‍यता का कारण वही है—तीसरी आँख द्वारा किया गया निदान। हर महीने मासिक धर्म के समय स्‍त्रियों का प्रभामंडल बदल जाता है।

तीसरी आँख के जरिए तुम उन चीजों को देखने में समर्थ हो जाते हो जो है, लेकिन जिन्‍हें सामान्‍य आंखों से नहीं देखा जा सकता। देखने की जितनी विधियां है वे सभी तीसरी आँख को प्रभावित करती है। कारण यह है कि देखने में जो ऊर्जा बाहर की और, संसार की और प्रवाहित होती है, वह अचानक रोक दिए जाने के कारण बहने के नए मार्ग ढूँढ़ती है और निकट पड़ने के कारण तीसरी आँख पर पहुंच जाती है।
तिब्‍बत में तो तीसरी आँख के लिए शल्‍य-चिकित्‍सा तक का उपाय किया गया था। कभी-कभी ऐसा होता है कि हजारों वर्षों से निष्‍क्रिय पड़े रहने के कारण तीसरी आँख बिलकुल बंद हो जाती है। मूंद जाती है। इस हालत में अगर तुम सामान्‍य आंखों की गति रोक दो तो तुम बेचैनी महसूस करोगे। कारण यह है कि आँख की ऊर्जा को गति करने का मार्ग नहीं मिला। इस ऊर्जा को मार्ग देने के लिए तिब्‍बत में तीसरी आँख की आपरेशन किया जाने लगा। यह संभव है। और अगर यह आपरेशन न किया जाए तो कई अड़चनें आ सकती है।

अभी दो या तीन दिन पहले एक संन्‍यासिनी मेरे पास आई थी—वह अभी यहां मौजूद है। उसने मुझे कहा कि उसकी तीसरी आँख पर बहुत जलन महसूस हो रही है। इतना ही नहीं कि वह जलन महसूस करती थी, उस जगह की चमड़ी सच में जल गई थी। ऐसा लगता था कि किसी ने बाहर से उसकी चमड़ी जला दी थी। जलन तो भीतर थी लेकिन उससे ऊपर की चमड़ी तक प्रभावित हो गई थी, वह बिलकुल जल गई थी। वह संन्‍यासिनी भयभीत थी कि पता नहीं क्‍या हो रहा है। साथ ही उसे वह जलन प्रीतिकर भी लगती थी—मानों कोई चीज गल रही हो। कुछ घटित हो रहा था और उससे स्‍थूल शरीर भी प्रभावित था—मानों असली आग ने उसे छू दिया हो। कारण क्‍या था?

कारण यह था कि तीसरी आँख सक्रिय हो गई थी। उसकी और ऊर्जा प्रवाहित होने लगी थी। जन्‍मों-जन्‍मों से यह आँख ठंडी पड़ी थी कभी उससे ऊर्जा प्रवाहित नहीं हुई थी। इस लिए जब पहली बार ऊर्जा का प्रवाह आया तो वह गर्म हो उठी। जलन होने लगी। और क्‍योंकि मार्ग अवरूद्ध था, इसलिए ऊर्जा आग जैसी उत्‍तप्‍त हो गई। इस तरह वह तीसरी आँख पर इकट्ठी ऊर्जा चोट करने लगी थी।

भारत में हम इसके लिए चंदन, या घी तथा अन्‍य चीजों का उपयोग करते है। उन्‍हें तीसरी आँख पर लगाते है और उसे तिलक कहते है। उसे तीसरी आँख की जगह पर लगाकर बहार से थोड़ी ठंडक दी जाती है। ताकि भीतर की गर्मी से, जलन से बाहर की चमड़ी न जले। इस आग से चमड़ी ही नहीं जलती है, कभी-कभी सिर की हड्डी में छेद तक हो जाता है।

मैं एक किताब पढ़ रहा था, जिसमें पृथ्‍वी पर मानवीय अस्‍तित्‍व की गहन रहस्‍यमयता के संबंध में बड़ी गहरी खोजें है। सदा ही यह प्रस्‍तावना की गई है कि मनुष्‍य यहां किसी दूसरे ग्रह से आया है। इस बात की कोई संभावना नहीं है। कि मनुष्‍य पृथ्‍वी पर एकाएक विकास को उपलब्‍ध हो गया हो। इस बात की भी संभावना नहीं है कि मनुष्‍य बैबून या बनमानुस से विकसित हुआ हो। क्‍योंकि अगर मनुष्‍य वनमानुष से आता है तो उसके ओर वनमानुष के बीच कोई कड़ी जरूर होनी चाहिए। सारी खोजों और आंकड़ों के बावजूद अब तक कोई एक भी शिव, कपाल या कोई ऐसी चीज नहीं मिली है जिसके सहारे यह कहा जा सके कि वनमानुष और मनुष्‍य के बीच की कड़ी उपलब्‍ध है।

विकास का अर्थ है कदम दर कदम वृद्धि। कोई वनमानुष एकाएक मनुष्‍य नहीं बन सकता। सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ना होता है। पर इसका कोई सबूत नहीं है कि वनमानुष क्रमश: कैसे इस विकास को उपलब्ध हुआ। डार्विन का सिद्धांत परिकल्‍पना भर है; क्‍योंकि बीच की कड़ियां नहीं मिलती है।

यही कारण है कि ऐसे सुझाव दिए गए है कि आदमी अचानक पृथ्‍वी पर उत्‍तर आया होगा। एक मनुष्‍य की पुरानी खोपड़ी कोई लाख साल पुरानी खोपड़ी मिली है। यह खोपड़ी दूसरी खोपड़ियों से जरा भी भिन्‍न नहीं है; उसमे कोई कमी नहीं है। उसके भीतर का ढांचा और संरचना सबकी सब वही है। जहां तक मस्‍तिष्‍क की संरचना का संबंध है, मनुष्‍य विकास करके नहीं आया मालूम पड़ता है। मालूम यही पड़ता है कि वह अचानक कहीं से पृथ्‍वी पर आ धमका।

निस्‍संदेह मनष्‍य किसी दूसरे ग्रह से आया होगा। अभी हम अंतरिक्ष की यात्राएं कर रहे है। यदि इस यात्रा में कोई ऐसा ग्रह हमे मिल जाए जो बसने लायक हो तो हम वहां पर बस जाएंगे। और तब उस ग्रह पर आदमी एकाएक प्रकट हो जाएगा।

तो मैं एक पुस्‍तक पढ़ रहा था जिसमें ऐसा प्रस्‍ताव किया गया है। लेखक ने उसमें अपनी परिकल्‍पना को मजबूत बनाने के लिए बहुत से तर्क खोजें है। उनमें एक बात है जिसका संबंध इस देखने की विधि से है और वह मैं तुम्‍हें बताना चाहता हूं। उसे दो खोपड़ियां मिली है—एक मैक्‍सिको में, दूसरी तिब्‍बत में। दोनों खोपड़ियों में तीसरी आँख के स्‍थान पर छेद है। और छेद ऐसे है जैसे की बंदूक की गोली से हुए हो। ये खोपड़ियां कम से कम पाँच-दस लाख वर्ष पुरानी होगी। अगर वे छेद तीर से किए गए होते तो वे इतने गोल नहीं होते। वे तीर से किये हुए नहीं हो सकते। तो इस आधार पर कि वे छेद बंदूक की गोली से बने है लेखक ने यह साबित करने की चेष्‍टा की है कि दस लाख वर्ष पहले बंदूकें थी। अन्‍यथा ये दो व्‍यक्‍ति मारे कैसे जाते।

सच्‍चाई यह है कि इस बात का बंदूक या गोली से कुछ लेना-देना नहीं है। जब भी तीसरी आँख के पूरी तरह अवरूद्ध होने पर आँखो की ऊर्जा अचानक गति करती है तो वह ऐसा छेद बना देती है। ऊर्जा भीतर से गोली की तरह आती है—बिलकुल गोली की तरह। वह संचित आग है; वह छेद बनाएगी ही। छेद वाली वे दो खोपड़ियां यह नहीं बताती है कि वे दो मनुष्‍य गोली से मारे गए। वे सिर्फ यह बताती है कि यह तीसरी आँख की घटना है। तीसरी आँख बिलकुल अवरूद्ध हो गई होगी। ऊर्जा इकट्ठी हो गई होगी; और गति के लिए जगह न पाकर वह आग बन गई होगी। उससे ही वह विस्‍फोट हुआ होगा। अन्‍यथा ऐसी घटना नहीं घट सकती थी।

यहीं कारण है कि तिब्‍बत में उन्होंने तीसरी आँख में छेद करने के उपाय निकाले, ताकि ऊर्जा आसानी से गति कर सके और इस तरह के एक्सीडेंट न हों।

तो जब तुम देखने की विधि का प्रयोग करो तो इस बात का सदा ध्‍यान रखना। जब भी जलन महसूस हो, डरना मत। लेकिन जब तुम्‍हें ऐसा लेक कि ऊर्जा बड़ी आग जैसी हो गई है। जब लगें की बंदूक की गर्म गोली जैसी कोई चीज खोपड़ी को भेदने के लिए तत्‍पर है, तो विधि का प्रयोग बंद कर दो और तुरंत मेरे पास चले आओ। तब प्रयोग को आगे मत जारी रखो। ज्‍यों ही लगे कि गोली जैसी कोई चीज मेरे माथे को छेद कर निकलना चाहती है। तो प्रयोग बंद कर दो और आँख खोल लो। और उन्‍हें उतनी गति दो जितनी दे सकते हो। आंखों को धूमाऔ, उनके हिलाने से जलन तुरंत कम हो जायेगी। ऊर्जा दो आंखों से फिर गति करने लगेगी। और जब तक मैं न कहूं, प्रयोग को फिर शुरू न करना। क्‍योंकि कई बार ऐसा हुआ है कि इस ऊर्जा से खोपड़ी फट गई।

वैसे तो यदि ऐसा हो भी जाए तो कुछ बुरा नहीं है। इसमें मर जाना भी अच्‍छा है; क्‍योंकि वह स्‍वयं एक ऐसी उपलब्‍धि है जो मृत्‍यु के पार जाती है। लेकिन बचाव के लिए अच्‍छा है कि जब लगे कि कुछ गड़बड़ होने वाली है—चाहे इस विधि से या किसी भी विधि से—तो विधि का प्रयोग बंद कर दो। किसी भी विधि से कुछ गलत की संभावना मालूम हो तो प्रयोग बंद कर देना उचित है।
भारत में अभी ऐसी बहुत सी विधियां सिखाई जा रही है और अनेक साधक नाहक कष्‍ट में पड़ते है; क्‍योंकि सिखाने वालों को खतरे का पता ही नहीं है। और सीखने वाले महज अंधी गली में भटकते है; उन्‍हें पता नहीं है कि वे कहां जा रहे है। और क्‍या कर रहे है।

मैं इन एक सौ बारह विधियों पर विशेषकर इसी कारण से बोल रहा हूं। मैं चाहता हूं कि तुम्‍हें इस सारी विधियों की, उनकी संभावनाओं की, उनके खतरों की जानकारी हो जाए। और तब तुम अपने लिए वह विधि चुन सकते हो जो तुम्‍हारे लिए सर्वाधिक अनुकूल हो। ओर तब अगर तुम किसी विधि का प्रयोग करोगे तो तुम्‍हें भलीभाँति पता होगा कि यह क्‍या है। कि क्‍या हो सकता है। और कुछ होने पर उससे निबटने के लिए क्‍या करना चाहिए।

ओशो

तंत्र-सूत्र भाग: 2 प्रवचन-22
(संस्‍करण: 1993)

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ओशो – तीसरी आँख को विकसित करने लिए

कुछ महत्‍वपूर्ण ध्‍यान:

(1) साक्षी को खोजना— ओशो

शिव ने कहा: होश को दोनों भौहों के मध्‍य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो। देह को पैर से सिर तक प्राण तत्‍व से भर जाने दो, ओर वहां वह प्रकाश की भांति बरस जाए।

वह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस वह विधि लेकर ग्रीस गया। और वास्‍तव में यह पश्‍चिम में सारे रहस्‍यवाद का उद्गम बन गया। स्‍त्रोत बन गया। वह पश्‍चिम में पूरे रहस्‍यवाद का जनक है।

यह विधि बहुत गहन पद्धतियों में से है। इसे समझने का प्रयास करो: “होश को दोनों भौहों के मध्‍य में लाओ।”

आधुनिक मनोविज्ञान और वैज्ञानिक शोध कहती है कि दोनों भौंहों के मध्‍य में एक ग्रंथि है जो शरीर का सबसे रहस्‍यमय अंग है। यह ग्रंथि, जिसे पाइनियल ग्रंथि कहते है। यही तिब्‍बतियों का तृतीय नेत्र है—शिवनेत्र : शिव का, तंत्र का नेत्र। दोनों आंखों के बीच एक तीसरी आँख का अस्‍तित्‍व है, लेकिन साधारणत: वह निष्‍कृय रहती है। उसे खोलने के लिए तुम्‍हें कुछ करना पड़ता है। वह आँख अंधी नहीं है। वह बस बंद है। यह विधि तीसरी आँख को खोलने के लिए ही है।

“होश को दोनों भौंहों के मध्‍य में लाऔ।”……अपनी आंखें बंद कर लो, और अपनी आंखों को दोनों भौंहों के ठीक बीच में केंद्रित करो। आंखे बंद करके ठीक मध्‍य में होश को केंद्रित करो, जैसे कि तुम अपनी दोनों आँखो से देख रहे हो। उस पर पूरा ध्‍यान दो।

वह विधि सचेत होने के सरलतम उपायों में से है। तुम शरीर के किसी अन्‍य अंग के प्रति इतनी सरलता से सचेत नहीं हो सकते। यह ग्रंथि होश को पूरी तरह आत्‍मसात कर लेती है। यदि तुम उस पर होश को भ्रूमध्‍य पर केंद्रित करो तो तुम्‍हारी दोनों आंखें तृतीय नेत्र से सम्‍मोहित हो जाती है। वे जड़ हो जाती है, हिल भी नहीं सकती। यदि तुम शरीर के किसी अन्‍य अंग के प्रति सचेत होने का प्रयास कर रहे हो तो यह कठिन है। यह तीसरी आँख होश को पकड़ लेती है। होश को खींचती है। वह होश के लिए चुम्‍बकीय है। तो संसार भर की सभी पद्धतियों ने इसका उपयोग किया है। होश को साधने का यह सरलतम उपाय है। क्‍योंकि तुम ही होश को केंद्रित करने का प्रयास नहीं कर रहे हो; स्‍वयं वह ग्रंथि भी तुम्‍हारी मदद करती है; वह चुम्‍बकीय है। तुम्‍हारा होश बलपूर्वक उनकी और खींच लिया जाता है। वह आत्‍मसात हो जाता है।

तंत्र के प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि होश तीसरी आँख का भोजन है। वह आँख भूखी है; जन्‍मों-जन्‍मों से भूखी है। यदि तुम उस पर होश को लाओगे तो वह जीवंत हो जाती है। उसे भोजन मिल जाता है। एक बार बस तुम इस कला को जान जाओं। तुम्‍हारा होश स्‍वयं ग्रंथि द्वारा ही चुम्‍बकीय ढंग से खिंचता है। आकर्षित होता है। तो फिर होश को साधना कोई कठिन बात नहीं है। व्‍यक्‍ति को बस ठीक बिंदु जान लेना होता है। तो बस अपनी आंखें बंद करों, दोनों आँखो को भ्रूमध्‍य की और चले जाने दो, और उस बिंदु को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के समीप आओगे तो अचानक तुम्‍हारी आँख जड़ हो जाएंगी। जब उन्‍हें हिलाना कठिन हो जाए तो जानना कि तुमने ठीक बिंदु को पकड़ लिया है।

‘’होश को दोनों भौंहों के मध्‍य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो।‘’……यदि यह होश लग जाए तो पहली बार तुम्‍हें एक अद्भुत अनुभव होगा। पहली बार तुम विचारों को अपने सामने दौड़ता हुआ अनुभव करोगे। तुम साक्षी हो जाओगे। यह बिलकुल फिल्‍म के परदे जैसा होता है। विचार दौड़ रहे है और तुम एक साक्षी हो।

सामान्‍यतया तुम साक्षी नहीं होते: तुम विचारों के साथ एकात्‍म हो। यदि क्रोध आता है तो तुम क्रोध ही हो जाते हो। कोई विचार उठता है तो तुम उसके साक्षी नहीं हो सकते। तुम विचार के साथ एक हो जाते हो। एकात्‍म हो जाते हो, और इसके साथ ही चलने लगते हो। तुम एक विचार ही बन जाते हो। जब काम उठता है तो तुम काम ही बन जाते हो। जब क्रोध उठता है तो तुम क्रोध ही बन जाते हो। जब लोभ बनता है तो तुम लोभ ही बन जाते हो। कोई चलता हुआ विचार और उनसे तुम्‍हारा तादात्म्य हो जाता है। विचार और तुम्‍हारे बीच में कोई अंतराल नहीं होता।

लेकिन तृतीय नेत्र पर केंद्रित होकर तुम अचानक एक साक्षी हो जाते हो। तृतीय नेत्र के द्वारा तुम विचारों को ऐसे ही देख सकते हो जैसे की आकाश में बादल दौड़ रहे हों, अथवा सड़क पर लोग चल रहे है।

साक्षी होने का प्रयास करो। जो भी हो रहा हो, साक्षी होने का प्रयास करो। तुम बीमार हो, तुम्‍हारा शरीर दुःख रहा है और पीड़ित है, तुम दुःखी और पीड़ित हो , जो भी हो रहा है, स्‍वयं का उससे तादात्‍म्‍य मत करो। साक्षी बने रहो। द्रष्‍टा बने रहो। फिर यदि साक्षित्‍व संभव हो जाए तो तुम तृतीय नेत्र मे केंद्रित हो जाओगे।

दूसरा, इससे उल्‍टा भी हो सकता है। यदि तुम तृतीय नेत्र में केंद्रित हो तो तुम साक्षी बन जाओगे। ये दोनों चीजें एक ही प्रक्रिया के हिस्‍से है। तो पहली बात: तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से साक्षी का प्रादुर्भाव होगा। अब तुम अपने विचारों (से साक्षात्‍कार कर सकते हो। यह पहली बात होगी। और दूसरी बात यह होगी कि अब तुम श्‍वास के सूक्ष्‍म और कोमल स्‍पंदन को अनुभव कर सकोगे। अब तुम श्‍वास के प्रारूप को श्‍वास के सार तत्व को अनुभव कर सकेत हो।

पहले यह समझने का प्रयास करो कि ‘’प्रारूप’’ का, श्‍वास के सार तत्व का क्‍या अर्थ है। श्‍वास लेते समय तुम केवल हवा मात्र भीतर नहीं ले रहे हो। विज्ञान कहता है कि तुम केवल वायु भीतर लेते हो—बस ऑक्‍सीजन, हाइड्रोजन व अन्‍या गैसों का मिश्रण। वे कहते है कि तुम ‘’वायु’’ भीतर ले रहे हो। लेकिन तंत्र कहता है कि वायु बस एक वाहन है, वास्‍तविक चीज नहीं है। तुम प्राण को, जीवन शक्‍ति को भीतर ले रहे हो। वायु केवल माध्‍यम है; प्राण उसकी अंतर्वस्‍तु है। तुम केवल वायु नहीं, प्राण भीतर ले रहे हो।

तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से अचानक तुम श्‍वास के सार तत्व को देख सकते हो—श्‍वास को नहीं बल्‍कि श्‍वास के सार तत्व को, प्राण को। और यदि तुम श्‍वास के सार तत्व को, प्राण को देख सको तो तुम उसे बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लगती है, अंतस क्रांति घटित होती है।

(2) पंख की भांति छूना ध्‍यान —ओशो

शिव ने कहा: आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उसके बीच का हलका पन ह्रदय में खुलता है।

ओशो–अपनी दोनों हथेलियों का उपयोग करो, उन्‍हें अपनी बंद आँखो पर रखो, और हथेलियों को पुतलियों पर छू जाने दो—लेकिन पंख के जैसे, बिना कोई दबाव डाले। यदि दबाव डाला तो तुम चूक गए, तुम पूरी विधि से ही चूक गए। दबाव मत डालों; बस पंख की भांति छुओ। तुम्‍हें थोड़ा समायोजन करना होगा क्‍योंकि शुरू में तो तुम दबाब डालोगे। दबाव का कम से कम करते जाओ जब तक कि दबाब बिलकुल समाप्‍त न हो जाए—बस तुम्‍हारी हथैलियां पुतलियों को छुएँ। बस एक स्‍पर्श, बाना दबाव का एक मिलन क्‍योंकि यदि दबाव रहा तो यह विधि कार्य नहीं करेगी। तो बस एक पंख की भांति।

क्‍यों?—क्‍योंकि जहां सुई का काम हो वहां तलवार कुछ भी नहीं कर सकती। यदि तुमने दबाव डाला, तो उसका गुणधर्म बदल गया—तुम आक्रामक हो गए। और जो ऊर्जा आंखों से बह रहा है वह बहुत सूक्ष्‍म है: थोड़ा सा दबाव, और वह संघर्ष करने लगती है जिससे एक प्रतिरोध पैदा हो जाता है। यदि तुम दबाव डालोगे तो जो ऊर्जा आंखों से बह रही है वह एक प्रतिरोध, एक लड़ाई शुरू कर देगी। एक संघर्ष छिड़ जाएगा। इसलिए दबाव मत डालों आंखों की ऊर्जा को थोड़े से दबाव का भी पता चल जाता है।

वह ऊर्जा बहुत सूक्ष्‍म है, बहुत कोमल है। दबाव मत डालों—बस पंख की भांति, तुम्‍हारी हथैलियां ही छुएँ, जैसे कि स्‍पर्श हो ही न रहा हो। स्‍पर्श ऐसे करो जैसे कि वह स्‍पर्श ने हो, दबाव जरा भी न हो; बस एक स्‍पर्श, एक हलका-सा एहसास कि हथेली पुतली को छू रही है, बस।
इससे क्‍या होगा? जब तुम बिना दबाव डाले हलके से छूते हो तो ऊर्जा भीतर की और जाने लगती है। यदि तुम दबाव डालों तो वह हाथ के साथ, हथेली के साथ लड़ने लगती है। और बहार निकल जाती है। हल्‍का-सा स्‍पर्श, और ऊर्जा भीतर जाने लगती है। द्वार बंद हो जाता है। बस द्वार बंद होता है और ऊर्जा वास लौट पड़ती है। जिस क्षण ऊर्जा वापस लौटती है, तुम आपने चेहरे और सिर पर एक हलकापन व्‍याप्‍त होता अनुभव करोगे। यह वापस लौटती ऊर्जा तुम्‍हें हल्‍का कर देती है।

और इन दोनों आंखों के बीच में तीसरी आंख, प्रज्ञा-चक्षु है। ठीक दोनों आंखों के मध्‍य में तीसरी आँख है। आँखो से वापस लोटती ऊर्जा तीसरी आँख से टकराती है। यहीं कारण है कि व्‍यक्‍ति हल्‍का और जमीन से उठता हुआ अनुभव करता है। जैसे कि कोई गुरुत्वाकर्षण न रहा हो। और तीसरी आँख से ऊर्जा ह्रदय पर बरस जाती है; यह एक शारीरिक प्रक्रिया है: बूंद-बूंद करके ऊर्जा टपकती है। और तुम अत्‍यंत हल्‍कापन अपने ह्रदय में प्रवेश करता अनुभव करोगे। ह्रदय गति कम हो जाएगी। श्‍वास धीमी हो जाएगी। तुम्‍हारा पूरा शरीर विश्रांत अनुभव करेगा।

यदि तुम गहन ध्‍यान में प्रवेश नहीं भी कर रहे हो, तो भी यह प्रयोग तुम्‍हें शारीरिक रूप से उपयोगी होगा। दिन में किसी भी समय, आराम से कुर्सी पर बैठ जाओ—या तुम्‍हारे पास यदि कुर्सी न हो, जब तुम रेलगाड़ी में सफर कर रहे हों—तो अपनी आंखें बंद कर लो। पूरे शरीर में एक विश्रांति अनुभव करो। और फिर दोनों हथेलियों को अपनी आंखों पर रख लो। लेकिन दबाव मत डालों—यह बड़ी महत्‍वपूर्ण बात है। बस पंख की भांति छुओ।

जब तुम स्‍पर्श करो और दबाव न डालों, तो तुम्‍हारे विचार तत्‍क्षण रूक जाएंगे। विश्रांत मन में विचार नहीं चल सकते। वे जम जाते है। विचारों को उन्‍माद और बुखार की जरूरत होती है। उनके चलने के लिए तनाव की जरूरत होती है। वे तनाव के सहारे ही जीते है। जब आंखें शांत व शिथिल हों और ऊर्जा पीछे लौटने लगे तो विचार रूक जायेंगे। तुम्‍हें एक मस्‍ती का अनुभव होगा। जो रोज-रोज गहराता जाएगा।
तो इस प्रयोग को दिन में कई बार करो। एक क्षण के लिए छूना भी अच्‍छा रहेगा। जब भी तुम्‍हारी आंखे थकी हुई ऊर्जा विहीन और चुकी हुई महसूस करें—पढ़कर, फिल्‍म देखकर, या टेलिविजन देखकर। जब भी तुम्‍हें ऐसा लगे, अपनी आंखे बंद कर लो। और स्‍पर्श करो मोर पंखी। तत्‍क्षण प्रभाव होगा। लेकिन यदि तुम इसे एक ध्‍यान बनाना चाहते हो तो इसे कम से कम चालीस मिनट के लिए करो। और पूरी बात यही है कि दबाव नहीं डालना। एक क्षण के लिए तो पंख जैसा स्‍पर्श सरल है; चालीस मिनट के लिए कठिन है। कई बार तुम भूल जाओगे और दबाव डालने लगोगे।

दबाव मत डालों। चालीस मिनट के लिए वह बोध बनाए रहो कि तुम्‍हारे हाथों में कोई बोझ नहीं है। वे बस स्‍पर्श कर रहे है। यह बोध बनाए रहो कि वे दबाव नहीं डाल रहे है, बस स्‍पर्श कर रहे है। यह एक गहन बोध बन जाएगा। बिलकुल ऐसे जैसे श्‍वास-प्रश्‍वास। जैसे बुद्ध कहते है कि पूरे जाग कर श्‍वास लो। ऐसा ही स्‍पर्श के साथ भी होगा। तुम्‍हें सतत स्‍मरण रखना होगा कि तुम दबाव नहीं डाल रहे। तुम्‍हारा हाथ बस एक पंख, एक भारहीन वस्‍तु बन जाना चाहिए। जो बस छुए। तुम्‍हारा चित समग्ररतः: सचेत होकर वहां आंखों के पास लगा रहेगा। और ऊर्जा सतत बहती रहेगी। शुरू में तो वह बूंद-बूंद करके ही टपकेगी। कुछ ही महीनों में तुम्‍हें लगेगा वह सरिता सी हो गई है, और एक साल बीतते-बीतते तुम्‍हें लगेगा कि वह एक बाढ़ की तरह हो गई है। और जब ऐसा होता है—‘’आँख की पुतलियाँ को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन…।‘’ जब तुम स्‍पर्श करोगे तो तुम्‍हें हलकापन महसूस कर सकते हो। जैसे की तुम स्‍पर्श करते हो, तत्क्षण एक हलकापन आ जाता है। और वह ‘’उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है।‘’…वह हलकापन ह्रदय में प्रवेश कर जाता है, खुल जाता है। ह्रदय में केवल हलकापन ही प्रवेश कर सकता है। कोई भी बोझिल चीज प्रवेश नहीं कर सकती है। ह्रदय के साथ बहुत हल्‍की फुलकी घटनाएं ही घट सकती है।

दोनों आंखों के बीच का यह हलकापन ह्रदय में टपकने लगेगा। और ह्रदय उसको ग्रहण करने के लिए खुल जाएगा—‘’और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।‘’ और जैसे-जैसे यह बहती ऊर्जा पहले एक धारा, फिर एक सरिता और फिर एक बाढ़ बनती है तुम पूरी तरह बह जाओगे, दूर बह जाओगे। तुम्‍हें लगेगा ही नहीं कि तुम हो। तुम्‍हें लगेगा कि बस ब्रह्मांड ही है। श्‍वास लेते हुए, श्‍वास छोड़ते हुए तुम्‍हें ऐसा ही लगेगा। कि तुम ब्रह्मांड बन गए हो। ब्रह्मांड भीतर आता है और ब्रह्मांड बाहर जाता है। वह इकाई जो तुम सदा बने रहे—अहंकार—वह नहीं बचता।

(3) नासाग्र को देखना (ध्‍यान)—ओशो

लाओत्‍से ने कहा: व्‍यक्‍ति नासाग्र की और देखे।

क्‍यों—क्‍योंकि इससे मदद मिलती है, यह प्रयोग तुम्‍हें तृतीय नेत्र की रेखा पर ले आता है। जब तुम्‍हारी दोनों आंखें नासाग्र पर केंद्रित होती है तो उससे कई बातें होती है। मूल बात यह है कि तुम्‍हारा तृतीय नेत्र नासाग्र की रेखा पर है—कुछ इंच ऊपर, लेकिन उसी रेखा में। और एक बार तुम तृतीय नेत्र की रेखा में आ जाओ तो तृतीय नेत्र का आकर्षण उसका खिंचाव, उसका चुम्‍बकत्‍व रतना शक्‍तिशाली है कि तुम उसकी रेखा में पड़ जाओं तो अपने बावजूद भी तुम उसकी और खींचे चले आओगे। तुम बस ठीक उसकी रेखा में आ जाना है, ताकि तृतीय नेत्र का आकर्षण, गुरुत्वाकर्षण सक्रिय हो जाए। एक बार तुम ठीक उसकी रेखा में आ जाओं तो किसी प्रयास की जरूरत नहीं है।

अचानक तुम पाओगे कि गेस्‍टाल्‍ट बदल गया, क्‍योंकि दो आंखें संसार और विचार का द्वैत पैदा करती है। और इन दोनों आंखों के बीच की एक आँख अंतराल निर्मित करती है। यह गेस्‍टाल्‍ट को बदलने की एक सरल विधि है।

मन इसे विकृत कर सकता है—मन कह सकता है, “ठीक अब, नासाग्र को देखो। नासाग्र का विचार करो, उस चित को एकाग्र करो।” यदि तुम नासाग्र पर बहुत एकाग्रता साधो तो बात को चूक जाओगे, क्‍योंकि होना तो तुम्‍हें नासाग्र पर है, लेकिन बहुत शिथिल ताकि तृतीय नेत्र तुम्‍हें खींच सके। यदि तुम नासाग्र पर बहुत ही एकाग्रचित्त, मूल बद्ध, केंद्रित और स्‍थिर हो जाओ तो तुम्‍हारा तृतीय नेत्र तुम्‍हें भीतर नहीं खींच सकेगा क्‍योंकि वह पहले कभी भी सक्रिय नहीं हुआ। प्रारंभ में उसका खिंचाव बहुत ज्‍यादा नहीं हो सकता। धीरे-धीरे वह बढ़ता जाता है। एक बार वह सक्रिय हो जाए और उपयोग में आने लगे, तो उसके चारों और जमी हुई धूल झड़ जाए, और यंत्र ठीक से चलने लगे। तुम नासाग्र पर केंद्रित भी हो जाओ तो भी भीतर खींच लिए जाओगे। लेकिन शुरू-शुरू में नहीं। तुम्‍हें बहुत ही हल्‍का होना होगा, बोझ नहीं—बिना किसी खींच-तान के। तुम्‍हें एक समर्पण की दशा में बस वहीं मौजूद रहना होगा।…..

“यदि व्यक्ति नाक का अनुसरण नहीं करता तो यह तो वह आंखें खोलकर दूर देखता है जिससे कि नाक दिखाई न पड़े अथवा वह पलकों को इतना जोर से बंद कर लेता है कि नाक फिर दिखाई नहीं पड़ती।”

नासाग्र को बहुत सौम्‍यता से देखने का एक अन्‍य प्रयोजन यह भी है: कि इससे तुम्‍हारी आंखें फैल कर नहीं खुल सकती। यदि तुम अपनी आंखे फैल कर खोल लो तो पूरा संसार उपलब्‍ध हो जाता है। जहां हजारों व्‍यवधान है। कोई सुंदर स्‍त्री गुजर जाती है और तुम पीछा करने लगते हो—कम से कम मन में। या कोई लड़ रहा है; तुम्‍हारा कुछ लेना देना नहीं है, लेकिन तुम सोचने लगते हो कि  “क्‍या होने वाला है?” या कोई रो रहा है और तुम जिज्ञासा से भर जाते हो। हजारों चीजें सतत तुम्‍हारे चारों और चल रही है। यदि आंखे फैल कर खुली हुई है तो तुम पुरूष ऊर्जा—याँग—बन जाते हो।

यदि आंखे बिलकुल बंद हो तो तुम एक प्रकार सी तंद्रा में आ जाते हो। स्‍वप्‍न लेने लगते हो। तुम स्‍त्रैण ऊर्जा—यन—बन जाते हो। दोनों से बचने के लिए नासाग्र पर देखो—सरल सी विधि है, लेकिन परिणाम लगभग जादुई है।

और ऐसा केवल ताओ को मानने वालों के साथ ही है। बौद्ध भी इस बात को जानते है, हिंदू भी जानते है। ध्‍यानी साधक सदियों से किसी न किसी तरह इस निष्‍कर्ष पर पहुंचते रहे है कि आंखे यदि आधी ही बंद हों तो अत्‍यंत चमत्‍कारिक ढंग से तुम दोनों गड्ढों से बच जाते हो। पहली विधि में साधक बह्म जगत से विचलित हो रहा है। और दूसरी विधि में भीतर के स्‍वप्‍न जगत से विचलित हो रहा है। तुम ठीक भीतर और बाहर की सीमा पर बने रहते हो और यही सूत्र है: भीतर और बाहर की सीमा पर होने का अर्थ है उस क्षण में तुम न पुरूष हो न स्‍त्री हो तुम्‍हारी दृष्‍टि द्वैत से मुक्‍त है; तुम्‍हारी दृष्‍टि तुम्‍हारे भीतर के विभाजन का अतिक्रमण कर गई। जब तुम अपने भीतर के विभाजन से पार हो जाते हो, तभी तुम तृतीय नेत्र के चुम्‍बकीय क्षेत्र की रेखा में आते हो।

“मुख्‍य बात है पलकों को ठीक ढंग से झुकाना और तब प्रकाश को स्‍वयं ही भीतर बहने देना।”
इसे स्‍मरण रखना बहुत महत्‍वपूर्ण है: तुम्‍हें प्रकाश को भीतर नहीं खींचना है, प्रकाश को बलपूर्वक भीतर नहीं लाना है। यदि खिड़की खुली हो तो प्रकाश स्‍वयं ही भीतर आ जाता है। यदि द्वार खुला हो तो भीतर प्रकाश की बाढ़ जा जाती है। तुम्‍हें उसे भीतर प्रकाश की बाढ़ आ जाती है। तुम्‍हें उसे भीतर लाने की जरूरत नहीं है। उसे भीतर धकेलने की जरूरत नहीं है। भीतर घसीटने की जरूरत नहीं है। और तुम प्रकाश को भी तर कैसे घसीट सकते हो? प्रकाश को तुम भीतर कैसे धकेल सकते हो? इतना ही चाहिए कि तुम उसके प्रति खुले और संवेदनशील रहो।…..

“दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है।”
स्‍मरण रखो, तुम्‍हें दोनों आँखो से नासाग्र को देखना है ताकि नासाग्र पर दोनों आंखे अपने द्वैत को खो दें। तो जो प्रकाश तुम्‍हारी आंखों से बाहर बह रहा है वह नासाग्र पर एक हो जाता है। वह एक केंद्र पर आ जाता है। जहां तुम्‍हारी दोनों आंखें मिलती है, वहीं स्‍थान है जहां खिड़की खुलती है। और फिर सब शुभ है। फिर इस घटना को होने दो, फिर तो बस आदत मनाओ, उत्‍सव मनाओ, हर्षित होओ। प्रफुल्‍लित होओ। फिर कुछ भी नहीं करना है।

“दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है, सीधा होकर बैठता है।”
सीधी होकर बैठना सहायक है। जब तुम्‍हारी रीढ़ सीधी होती है। तुम्‍हारे काम-केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्‍ध हो जाती है। सीधी-सादी विधियां है, कोई जटिलता इनमें नहीं है, बस इतना ही है कि जब दोनों आंखें नासाग्र पर मिलती है, तो तुम तृतीय नेत्र के लिए उपलब्‍ध कर दो। फिर प्रभाव दुगुना हो जाएगा। प्रभाव शक्तिशाली हो जाएगा, क्‍योंकि तुम्‍हारी सारी ऊर्जा काम केंद्र में ही है। जब रीढ़ सीधी खड़ी होती है तो काम केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्‍ध हो जाती है। यह बेहतर है कि दोनों आयामों से तृतीय नेत्र पर चोट की जाए, दोनों दिशाओं से तृतीय नेत्र में प्रवेश करने की चेष्‍टा की जाए।

“व्‍यक्‍ति सीधा होकर और आराम देह मुद्रा में बैठता है।”
सदगुरू चीजों को अत्‍यंत स्‍पष्‍ट कर रहे है। सीधे होकर, निश्‍चित ही, लेकिन इसे कष्‍टप्रद मत बनाओ; वरन फिर तुम अपने कष्‍ट से विचलित हो जाओगे। योगासन का यही अर्थ है। संस्‍कृत शब्‍द ‘’आसन’’ का अर्थ है: एक आरामदेह मुद्रा। आराम उसका मूल गुण है। यदि वह आरामदेह न हो तो तुम्‍हारा मन कष्‍ट से विचलित हो जाएगा। मुद्रा आरामदेह ही हो…..
“और इसका अर्थ अनिवार्य रूप से सिर के मध्‍य में होना नहीं है।”
और केंद्रिय होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम्‍हें सिर के मध्‍य में केंद्रित होना है।

“केंद्र सर्वव्‍यापी है; सब कुछ उसमें समाहित है; वह सृष्‍टि की समस्‍त प्रक्रिया के निस्‍तार से जुड़ा हुआ है।”
और जब तुम तृतीय नेत्र के केंद्र पर पहुंच कर वहां केंद्रित हो जाते हो और प्रकाश बाढ़ की भांति भीतर आने लगता है, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए, जहां से पूरी सृष्‍टि उदित हुई है। तुम निराकार और अप्रकट पर पहुच गए। चाहो तो उसे परमात्‍मा कह लो। यही वह बिंदु है, यह वह आकाश है, जहां से सब जन्‍मा है। यही समस्‍त अस्‍तित्‍व का बीज है। यह सर्वशक्‍तिमान है। सर्वव्‍यापी है, शाश्‍वत है।……

“ध्‍यान की साधन अपरिहार्य है।”
ध्‍यान क्‍या है?—निर्विचार का एक क्षण। निर्विचार की एक दशा, एक अंतराल। और यह सदा ही घट रहा है, लेकिन तुम इसके प्रति सजग नहीं हो; वरना तो इसमें कोई समस्‍या नहीं है। एक विचार आता है, फिर दूसरा आता है, और उन दो विचारों के बीच में सदा एक छोटा सा अंतराल होता है। और वह अंतराल ही दिव्‍य का द्वार है, वह अंतराल ही ध्‍यान है। यदि तुम उस अंतराल ही ध्‍यान है। यदि तुम उस अंतराल में गहरे देखो, तो वह बड़ा होने लगता है।
मन ट्रैफिक से भरी हुई एक सड़क की तरह है; एक कार गुजरती है फिर दूसरी कार गुजरती है फिर दूसरी कार गुजरती है। और तुम कारों से इतने ज्‍यादा ग्रसित हो कि तुम्‍हें वह अंतराल तो दिखाई ही नहीं पड़ता जो दो कारों के बीच सदा मौजूद है। वरना तो कारें आपस में टकरा जाएंगी। वे टकराती नहीं; उनके बीच में कुछ है जो उन्‍हें अलग रखता है। तुम्‍हारे विचार आपस में नहीं टकराते, एक दूसरे पर नहीं चढ़ते, एक दूसरे में नहीं मिल जाते। वे किसी भी तरह एक दूसरे पर नहीं चढ़ते। हर विचार की अपनी सीमा होता है, हार विचार परिभाष्‍य होता है। लेकिन विचारों का जुलूस इतना तेज होता है, इतना तीव्र होता है कि अंतराल को तुम तब तक नहीं देख सकते, जब तक कि तुम उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहे हो। उसकी खोज नहीं कर रहे हो।
ध्‍यान का अर्थ है गेस्‍टाल्‍ट को बदल डालना। साधारणत: हम विचारों को देखते है: एक विचार, दूसरा विचार, फिर कोई और विचार। जब तुम गेस्‍टाल्‍ट को बदल देते हो तो तुम एक अंतराल को देखते हो, फिर दूसरे अंतराल को देखते हो। तुम्‍हारा आग्रह विचार पर नहीं रहता। अंतराल पर आ जाता है।
‘’यदि सांसारिक विचार उठे तो व्‍यक्‍ति जड़ न बैठा रहे, वरन निरीक्षण करे कि विचार कहां से शुरू हुआ, और कहां विलीन हुआ।‘’
यह पहले ही प्रयास में नहीं होने वाला है। तुम नासाग्र पर देख रहे होओगे और विचार आ जाएंगे। वे इतने जन्‍मों से आते रहे है कि इतनी सरलता से तुम्‍हें नहीं छोड़ सकते। वे तुम्‍हारा हिस्‍सा बन गए है। तुम करीब-करीब एक पूर्वनिर्धारित जीवन जी रहे हो।
ऐसा होता है: जब लोग ध्‍यान में शांत होकर बैठते है, तो सामान्‍यत: जितने विचार आते है। तब उससे अधिक विचार आते है—असमान्‍य विस्‍फोट होते है। लाखों विचार दौड़ें चले आते है, क्‍योंकि उनका अपना स्‍वार्थ है तुम्हें, और तुम उनकी ताकत से बाहर निकलने की चेष्‍टा कर रहे हो? तुम शांत होकर बैठे नहीं रह सकते। तुम्‍हें कुछ करना पड़ेगा। संघर्ष से तो कोई लाभ नहीं होगा। क्‍योंकि तुम यदि संघर्ष करने लगे तो तुम नासाग्र पर देखना भूल जाओगे। तृतीय नेत्र का, प्रकाश के प्रवाह को बोध खो जाएगा; तुम सब भूल कर विचारों के जंगल में खो जाओगे। यदि तुम विचारों का पीछा करने लगे तो तुम खो गए। उसका अनुसरण करने लगे तो तुम खो गए। उनके साथ तुम संघर्ष करने लगे तो भी तुम खो गए। तो फिर क्‍या करना?
और यही राज है। बुद्ध भी इसी राज को उपयोग में लाए। वास्‍तव में सभी राज तो लगभग एक से ही है क्‍योंकि मनुष्‍य यही है—ताला वही है, जो कुंजी भी वहीं होनी चाहिए। यही राज है; बुद्ध इसे सम्मा सती, सम्‍यक स्‍मृति कहते है। इतना स्‍मरण रखो: यह विचार आया है, बिना किसी विरोध, बिना किसी दलील , बिना किसी निंदा के देखो कि वह है, कहां एक वैज्ञानिक की भांति निरीक्षक हो रहो। देखो कि वह कहां है, कहां से आ रहा है। कहां जा रहा है। उसके आने को देखो उसके रूकने को देखो उसके जाने को देखो। और विचार बहुत गत्‍यात्‍मक है; वे देर तक नहीं रुकते। तुम्‍हें तो बस विचार के उठने उसके रूकने, उसके जाने को देखना भर है। न संघर्ष करने की चेष्‍टा करो। न अनुसरण करो, बस एक मौन निरीक्षक बने रहो। और तुम्‍हें हैरानी होगी; निरीक्षक जितना थिर हो जाता है, विचार उतने ही कम आएँगे। जब निरीक्षक बिलकुल पूर्ण हो जाता है तो विचार समाप्‍त हो जाते है। बस एक अंतराल, एक मध्‍यांतर ही बचता है।
लेकिन एक बात और याद रखना: मन फिर से एक चाल चल सकता है।
‘’प्रतिबिंब को आगे सरकाने से कुछ भी प्राप्‍त नहीं होता।‘’
यही फ्रायडियन मनोविश्‍लेषण भी है: विचारों की मुक्‍त साहचर्य शृंखला। एक विचार आता है, और फिर तुम दूसरे विचार की प्रतीक्षा करते हो, और फिर तीसरे की, और यह पूरी शृंखला है। … हर मनोविश्‍लेषण यही कहता है—तुम अतीत में पीछे जाने लगते हो। एक विचार दूसरे से जुड़ा होता है। और यह शृंखला अनंत तक चलती है। उसका काई अंत नहीं है। यदि तुम उसके भीतर जाने लगो तो तुम एक अनंत यात्रा पर निकल जाओगे। और यह बिलकुल अपव्‍यय होगा। मन ऐसा कर सकता है। तो इसके प्रति सजग रहो।….
मन के द्वारा तुम मन के पार नहीं जा सकेत। इसलिए व्‍यर्थ में अनावश्‍यक चेष्‍टा मत करो। वरना एक बात तुम्‍हें दूसरे में ले जाएगी। और ऐस आगे से आगे चलता रहेगा। और तुम बिलकुल भूल ही जाओगे कि तुम क्‍या करने का प्रयास कर रहे थे। नासाग्र गायब हो जाएगा। तृतीय नेत्र भूल जाएगा। और प्रकाश का प्रवाह तो तुमसे मीलों दूर चला जाएगा। तो ये दो बातें स्‍मरण रखने की है, ये दो पंख है। एक: जब अंतराल आ जाएं, कोई विचार न चलता हो, तो ध्‍यान करो। जब कोई विचार आए तो बस इन तीन बातों को देखो: विचार कहां है, वह कहां से आया है और कहां जा रहा है। एक क्षण के लिए अंतराल को देखना छोड़ दो और विचार को देखो, उसे अलविदा करो। जब वह चला जाए, तो फिर से ध्‍यान के अभ्‍यास पर वापस लौट आओ।
‘’जब विचारों की उड़ान आग बढती जाए, जो व्‍यक्‍ति को रूक कर विचारों का निरीक्षण करना चाहिए। इस प्रकार वह ध्‍यान भी करे और तब फिर से निरीक्षण शुरू करे।‘’
तो जब भी विचार आता है, तब निरीक्षण करो। जब भी विचार जाता है तब ध्‍यान करो।
‘’यह संबोधि को तीव्रता से लाने का दोहरा उपाय है। संबोधि का अर्थ है प्रकाश का वृताकार प्रवाह। प्रवाह है निरीक्षण और प्रकाश है ध्‍यान।‘’
जब भी तुम ध्‍यान करोगे तो प्रकाश को भीतर प्रवेश करता पाओगे, और जब भी तुम एकाग्र होकर देखोगें तो प्रवाह को निर्मित करोगे। प्रवाह को संभव बनाओगे। दोनों की ही जरूरत है।
‘’प्रकाश ध्‍यान है। ध्‍यान के बिना निरीक्षण का अर्थ है प्रकाश के बिना प्रवाह।‘’
यही हुआ है। हठयोग के साथ यही दुर्घटना घटी है। वे निरीक्षण तो करते है, चित को एकाग्र तो करते है, लेकिन प्रकाश को भूल जाते है। अतिथि के विषय में वक बिलकुल भूल गए है। वे बस घर को तैयार किए चले जाते है; वे घर को तैयार करने में इतने उलझ गए है कि वे उस प्रयोजन को ही भूल गए है। जिसके लिए घर की तैयारी है। हठ योगी सतत अपने शरीर को तैयार करता है, शरीर को शुद्ध करता है, योगासन, प्राणायाम करता है। और आजीवन करता ही चला जाता है। वह भूल ही गया है कि यह सब वह कर किस लिए रहा है। और प्रकाश बाहर खड़ा है लेकिन हठ योगी उसे भीतर नहीं आने दे रहे है। क्‍योंकि प्रकाश तभी भीतर आ सकता है तब तुम पूर्णता: समर्पण की दशा में आ जाओ।
‘’ध्‍यान के बिना निरीक्षण का अर्थ है प्रकाश के बिना प्रवाह।‘’
तथाकथित योगियों के साथ यही दुर्घटना घटी है। दूसरी दुर्घटना मनोविश्‍लेषकों और दार्शनिकों के साथ घटी है।
‘’निरीक्षण के बिना ध्‍यान का अर्थ है प्रवाह के बिना प्रकाश।‘’
वे प्रकाश पर विचार करते है, लेकिन उन्‍होंने प्रकाश की बाढ़ भीतर आ सके इसके लिए तैयारी नहीं की है; वे प्रकाश पर केवल विचार करते है। वे अतिथि के विषय में सोचते है, अतिथि के विषय में हजारों बातों की कल्‍पना करते है, लेकिन उनका घर तैयार नहीं है। दोनों की चूक रहे है।
‘’इसका ख्‍याल रखो।‘’
दोनों में से किसी भी भ्रांति में मत गिरो। यदि तुम सचेत रह सको तो यह अत्‍यंत सरल सी प्रक्रिया है और गहन रूप से रूपांतरणकारी है। जो व्‍यक्‍ति ठीक ढंग से समझ ले वह एक क्षण में ही एक भिन्‍न वास्‍तविकता में प्रवेश कर सकता है।