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ओशो – तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का अंग है

पहले तो दो बातें समझ लेने की है।

  1. एक, तीसरी आँख की ऊर्जा वही है जो ऊर्जा दो सामान्‍य आंखों को चलाती है। ऊर्जा वही है, सिर्फ वह नई दिशा में नए केंद्र की और गति करने लगती है। तीसरी आँख है; लेकिन निष्‍क्रिय है। और जब तक सामान्‍य आंखे देखना बंद नहीं करती, तीसरी आँख सक्रिय नहीं हो सकती है। देख नहीं सकती। उसी उर्जा को यहां भी बहना है। जब उर्जा सामान्‍य आँखो में बहना बंद कर देती है तो वह तीसरी आँख में बहने लगती है। और जब ऊर्जा तीसरी आँख में बहती है तो सामान्‍य आंखों में देखना बंद कर देती है। अब उनके रहते हुए भी तुम उनके द्वारा कुछ नहीं देखते हो। जो ऊर्जा उनमें बहती थी वह वहां से हट कर नये केंद्र पर गतिमान हो जाती है। यह केंद्र दो आँखो के बीच में स्‍थित है। तीसरी आँख बिलकुल तैयार है; वह किसी भी क्षण सक्रिय हो सकती है। लेकिन इसे सक्रिय होने के लिए ऊर्जा चाहिए। और सामान्‍य आंखों की ऊर्जा को यहां लाना होगा ।
  2. दूसरी बात, जब तुम सामान्‍य आँखो से देखते हो तब तुम सचमुच स्‍थूल शरीर से देखते हो। तीसरी आँख स्‍थूल शरीर का हिस्‍सा नहीं है। यह दूसरे शरीर का हिस्‍सा है। तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का हिस्‍सा है। स्‍थूल शरीर के भीतर उसके जैसा ही सूक्ष्‍म शरीर भी है; लेकिन यह स्‍थूल शरीर का हिस्‍सा नहीं है। यही वजह है कि शरीर-शास्‍त्र यह मानने को राज़ी नहीं है कि तीसरी आँख या उसकी जैसी कोई चीज है। तुम्‍हारी खोपड़ी की खोज-बीन की जा सकती है। एक्‍सरे के द्वारा उसे देखा-परखा जा सकता है। लेकिन उसमे कहीं भी वह चीज नहीं मिलेगी जिसे तीसरी आँख कहा जा सके। तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का हिस्‍सा है।

    जब तुम मरते हो तो तुम्‍हारा स्‍थूल शरीर ही मरता है। तुम्‍हारा सूक्ष्‍म शरीर तुम्‍हारे साथ जाता है और वह दूसरा जन्‍म लेता है। जब तक सूक्ष्‍म शरीर नहीं मरेगा तुम जन्‍म मरण के, आवागमन के चक्‍कर से मुक्‍त नहीं हो सकते; तब तक संसार चलता रहेगा।

    तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का अंग है। जब ऊर्जा स्‍थूल शरीर में गतिमान रहती है। तो तुम अपनी स्‍थूल आंखों से देख पाते हो। यही कारण है कि स्‍थूल आंखों से तुम स्‍थूल को ही देख सकते हो। पदार्थ को ही देख सकत हो। अन्‍य किसी चीज को नहीं देख सकते। सामान्‍य आँख के सक्रिय होते ही तुम एक नए आयाम में प्रवेश करते हो। अब तुम वे चीजें देख सकते हो जो स्‍थूल आंखों के लिए दृश्य नहीं थी। लेकिन वे सूक्ष्‍म आंखों के लिए दृश्‍य हो जाती है।
    तीसरी आँख के सक्रिय होने पर अगर तुम किसी आदमी पर निगाह डालोगे तो तुम उसकी आत्‍मा में झांक लोगे। यह वैसे ही है जैसे स्‍थूल आंखों से स्‍थूल शरीर तो दिखाई देगा, लेकिन आत्‍मा दिखाई नहीं देगी। तीसरी आँख से देखने पर तुम्‍हें जो दिखाई देगा वह शरीर नहीं होगा; वह- वह होगा जो शरीर के भी रहता है।

    इन दो बातों को स्‍मरण रखो।
    1. पहली, एक ही ऊर्जा दोनों जगह गति करती है।
    उसे सामान्‍य स्‍थूल आंखों से हटाकर ही तीसरी आँख में गतिमान किया जा सकता है।
    2. दूसरी बात कि तीसरी आँख स्‍थूल शरीर का हिस्‍सा नहीं है।
    वह सूक्ष्‍म शरीर का हिस्सा है, जिसे हम दूसरा शरीर भी कहते है। क्‍योंकि तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का हिस्‍सा है, इस लिए जिस क्षण तुम इसके द्वारा देखते हो तुम्‍हें सूक्ष्‍म जगत दिखाई पड़ने लगता है

    तुम यहां बैठे हो अगर एक प्रेत भी यहां बैठा हो तो वह तुम्‍हें नहीं दिखाई देगा। लेकिन अगर तुम्‍हारी तीसरी आँख काम करने लगे तो तुम प्रेत को देख लोगे। क्‍योंकि सूक्ष्‍म अस्‍तित्‍व सूक्ष्‍म ओखों से ही देखा जा सकता है।

तीसरी आँख देखने की इस विधि से कैसे संबंधित है?
गहन रूप से संबंधित है। सच तो यह है कि यह विधि तीसरी आँख को खोलने की विधि है। अगर तुम्‍हारी दो आंखें बिलकुल ठहर जाएं, वे स्‍थिर हो जाएं, पत्‍थर की तरह स्‍थिर हो जाएं, तो उनके भीतर ऊर्जा का प्रवाह ठहर जाता है। अगर आँख को ठहरा दो तो उनके भीतर ऊर्जा का प्रवाह ठहर जाता है।

ऊर्जा प्रवाहित है, इससे ही आंखों में गति है। कंपन या गति ऊर्जा के कारण है। अगर ऊर्जा गति न करे तो तुम्‍हारी आँख मुर्दो की आँख की तरह हो जाएं। पथराई और मृत। किसी स्‍थान पर दृष्‍टि करने से, इधर-उधर देखे बिना उस पर टकटकी बांधने से एक गतिहीनता पैदा होती है। जो ऊर्जा दोनों आंखों में गतिमान थी वह अचानक गति बंद कर देगी।

लेकिन गति करना ऊर्जा का स्‍वभाव है ऊर्जा गतिहीन नहीं हो सकती। आंखें गतिहीन हो सकती है, लेकिन ऊर्जा नहीं। इसलिए जब ऊर्जा इने दो आंखों से वंचित कर दि जाती है। जब उसके लिए आंखों के द्वार अचानक बंद कर दिये जाते है, जब उनके द्वारा ऊर्जा की गति असंभव हो जाती है, तो वह ऊर्जा अपने स्‍वभाव के अनुसार नए मार्ग ढूंढने में लग जाती है। और तीसरा नेत्र अति निकट होने के कारण, दो भृकुटियों के बीच, आधा इंच अंदर है। उस ऊर्जा के लिए वह निकटतम बिंदु है।

इसलिए जब ऊर्जा दोनों आंखों से मुक्‍त हो जाती है तो पहली बात यह होती है कि वह तीसरी आँख से बहने लगती है। यह ऐसा ही है जैसे कि पानी बहता हो और तुम उसके एक छेद को बंद कर दो, वह तुरंत निकटतम दूसरे छेद को ढूंढ लेगा। जो निकटतम छेद होगा और जो न्‍यूनतम प्रतिरोध पैदा करेगा। उसे पानी ढूंढ लेगा। वह छेद अपने आप मिल जाता है। उसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता है। ज्‍यों ही इन दो आंखों से ऊर्जा का बहना बंद करोगे, त्‍यों ही ऊर्जा अपना मार्ग ढूंढ लेगी। और वह तीसरी आँख से बहने लगेगी।

तीसरी आँख से ऊर्जा का यह प्रवाह तुम्‍हें रूपांतरित कर दूसरे ही लोक में पहुंचा देगा। तब तुम ऐसी चीजें देखने लगते हो जिन्‍हें कभी न देखा था; ऐसी चीजें महसूस करने लगोंगे जिन्‍हें कभी नहीं महसूस किया था। और तब तुम्‍हें ऐसी सुगंधों को अनुभव होगा जिन्‍हें जीवन में कभी नहीं जाना था। तब एक नया लोक, एक सूक्ष्म लोक सक्रिय हो जाता है। यह नया लोक अभी भी है। तीसरी आँख भी है। सूक्ष्‍म लोक भी है; दोनों है; लेकिन अप्रकट है। एक बार तुम उस आयाम में सक्रिय होते हो तो तुम्‍हें बहुत सी चीजें दिखाई देने लगेंगी।

उदाहरण के लिए, अगर कोई आदमी मरणासन्‍न है और तुम्‍हारी तीसरी आँख सक्रिय है तो तुम तुरंत जान लोगे कि यह आदमी अब जाने वाला है। कोई भी शारीरिक विश्‍लेषण कोई भी चिकित्सा-निदान निश्‍चय पूर्व नहीं बता सकता की यह आदमी मरेगा। वे ज्‍यादा से ज्‍यादा संभावना की बात कह सकते है। कह सकते है कि शायद यह आदमी मरेगा। यह वक्‍तव्‍य भ सशर्त होगा कि यदि ऐसी-ऐसी हालतें रही तो यह आदमी मरेगा, या यदि कुछ किया जाए तो यह नहीं मरेगा।

चिकित्‍सा विज्ञान अभी भी मृत्‍यु के सबंध में इतना अनिश्‍चित क्‍यों है? इतने विकास के बावजूद यह मृत्‍यु के संबंध में अनिश्‍चित है। असल में चिकित्‍सा विज्ञान शारीरक लक्षणों के द्वारा मृत्‍यु के संबंध में अपनी निष्‍पति निकलता है। लेकिन मृत्‍यु शारीरिक नहीं है, सूक्ष्‍म घटना है। यह किसी भिन्‍न आयाम की एक अदृश्‍य घटना है।

लेकिन यदि तीसरी आँख सक्रिय हो जाए और कोई आदमी मरने वाला हो तो तुम यह जान लोगे। यह कैसे जाना जाता है।
मृत्‍यु का अपना प्रभाव होता है। अगर कोई मरने वाला होता है तो समझो कि मृत्‍यु ने पहले ही उस पर अपनी छाया डाल दी होती है। और तीसरी आँख से इस छाया को महसूस किया जा सकता है। देखा जा सकता है।

जब एक बच्‍चा जन्‍म लेता है तो जिन्‍हें तीसरी आँख के प्रयोग का गहरा अभ्‍यास है वे उसी क्षण उसकी मृत्‍यु का समय भी जान ले सकते है। लेकिन उस समय मृत्‍यु की छाया अत्‍यंत सूक्ष्‍म होती है। लेकिन किसी की मृत्‍यु के छह महीने पहले वह व्‍यक्‍ति भी कह सकता है कि यह आदमी मरने वाला है। जिसकी तीसरी आँख थोड़ा भी सक्रिय हो गई है। असल में उस समय तुम्‍हारे चारों तरफ एक काली छाया सधन हो जाती है। और उसे देखा जा सकता है। लेकिन सामान्‍य आंखों से उसे नहीं देखा जा सकता है।

तीसरी आँख के खुलते ही तुम लोगों के प्रभामंडल दिखाई देने लगता है। अब कोई आदमी आकर तुम्‍हें धोखा नहीं दे सकता है; क्‍योंकि अगर उसकी कथनी उसके प्रभामंडल से मेल नहीं खाती है तो वह कथनी दो कौड़ी की है। वह कह सकता है कि मुझे कभी क्रोध नहीं आता है; लेकिन उसका लाल प्रभामंडल बता देगा की वह क्रोध से भरा है। वह तुम्‍हें धोखा नहीं दे सकता है। जहां तक उसके प्रभामंडल का सवाल है उसे इसका कुछ पता नहीं है। लेकिन तुम उसका प्रभामंडल देखकर कह सकते हो कि उसका वक्‍तव्‍य सही है। या गलत है। तीसरी आँख के खुलते ही सूक्ष्‍म प्रभामंडल दिखाई देने लगते है।

पुराने जमाने में शिष्‍य की दीक्षा में प्रभामंडल का उपयोग किया जाता था। जब तक तुम्‍हारा प्रभामंडल सम्‍यक न हो तब तक गुरु प्रतीक्षा करेगा। यह तुम्‍हारे चाहने की बात नहीं है। तुम्‍हारा प्रभामंडल देख कर जाना जा सकता है कि तुम तैयार हो की नहीं। इसलिए शिष्‍य को वर्षों इंतजार करना पड़ता था। शिष्‍यत्‍व तुम्‍हारे चाहने पर नहीं तुम्‍हारे प्रभामंडल पर निर्भर है। चाह यहां व्‍यर्थ है। कभी-कभी तो शिष्‍य को कई जन्‍मों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

उदाहरण के लिए, बुद्ध ने वर्षों तक स्‍त्रियों को दीक्षित करने से अपने को रोके रखा। यद्यपि उन पर बहुत दबाव डाला गया; लेकिन वे राज़ी नहीं हुए। और अंत में जब वे राज़ी भी हुए तो उन्‍होंने कहा कि अब मेरा धर्म पाँच सौ वर्षों के बाद जीवंत नहीं रहेगा; क्‍योंकि मैंने समझौता किया है। बुद्ध ने अपने शिष्‍यों से कहा कि मैं तुम्‍हारे आग्रह के दबाव के कारण स्‍त्रियों को दीक्षित करूंगा।
क्‍या कारण था कि बुद्ध स्‍त्रियों को दीक्षित नहीं करना चाहते थे?

एक बुनियादी कारण था जिसका संबंध प्रभामंडल से है। पुरूष सरलता से ब्रह्मचर्य को उपलब्‍ध हो जाता है। लेकिन यह बात स्‍त्री के लिए कठिन है। स्‍त्री मासिक धर्म नियमित घटता है—अचेतन, अनियंत्रित और अनैच्‍छिक। वीर्यपात को तो नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन मासिक स्‍त्राव को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। और यदि उसे नियंत्रित करने की कोशिश जाए तो उसके शरीर पर बहुत बुरे असर होंगे।

और स्‍त्री जब अपने मासिक काल में होती है, उसका प्रभामंडल बिलकुल बदल जाता है। वह कामुक, आक्रमक और उदास हो जाती है। जो भी नकारात्‍मक भाव है वह हर महीने स्‍त्री को एक बार घेरते है। इसी कारण बुद्ध स्‍त्रियों को दीक्षा देने के पक्ष में नहीं थे। बुद्ध ने कहा कि स्‍त्री की दीक्षा कठिन है; क्‍योंकि मासिक धर्म हर महीने वर्तुल में आता रहता है। और उसके साथ ऐच्‍छिक रूप से कुछ भी नहीं किया जा सकता। अब कुछ किया जा सकता है; लेकिन वह बुद्ध के समय में कठिन था । अब वह क्या जा सकता है।

महावीर ने तो स्‍त्री पर्याय के लिए मोक्ष की संभावना को बिलकुल ही अस्‍वीकार कर दिया। उन्‍होंने कहा कि स्‍त्री को पहले पुरूष पर्याय में जन्‍म लेना होगा और तब उसे मोक्ष मिल सकता है। इसलिए पहले तो पूरी चेष्‍टा यह होनी चाहिए कि वह पुरूष पर्याय में नया जन्‍म ले।
क्‍यों? यह भी प्रभामंडल की समस्‍या थी। अगर तुम किसी स्‍त्री को दीक्षित करते हो तो हर महीने वह गिरेगी और सारा प्रयत्‍न व्‍यर्थ चला जाएगा। इसमें कोई भेदभाव का प्रश्न नहीं था। कोई समानता का सवाल नहीं था। कि स्‍त्री और पुरूष समान है या नहीं; कोई समानता का सवाल नहीं था कि स्‍त्री और पुरूष समान है या नहीं। यह समता का प्रश्‍न नहीं था। महावीर के लिए प्रश्‍न यह था कि स्‍त्री की सहायता कैसे कि जाए। तो उन्‍होंने एक सरल रास्‍ता निकाला कि स्‍त्री पुरूष के पर्याय में जन्‍म ले, इससे उसे सहयोग दिया जाए। वह ज्‍यादा सरल लगा। इसका मतलब था कि स्‍त्री को दूसरे जीवन के लिए ठहरना चाहिए। इस बीच उसे पुरूष पर्याय में नया जन्‍म दिलाने के सभी प्रयत्‍न किए जाएं। महावीर को यह बात सरल मालूम हुई। स्‍त्रियों को दीक्षित करना कठिन था; क्‍योंकि वे हर महीने लुढ़क कर अपनी बुनियादी स्‍थिति में लौट आती है। और उन पर किया गया सब श्रम व्‍यर्थ चला जाता है।

लेकिन पिछले दो हजार वर्षों में इस दिशा में बहुत काम हुए है; विशेषकर तंत्र ने बहुत काम किया है। तंत्र ने भिन्‍न-भिन्‍न द्वार खोज निकाले है। तंत्र संसार में अकेला व्‍यवस्‍था है जो पुरूष और स्‍त्री में भेद नहीं करती है। बल्‍कि इसके विपरीत तंत्र का मानना है कि स्‍त्री अधिक आसानी से मुक्‍त हो सकती है। और कारण वही है; सिर्फ भिन्‍न दृष्‍टिकोण से देखा गया है।

तंत्र कहता है की क्‍योंकि स्‍त्री का शरीर समय-समय पर संयमित होता रहता है। इसलिए पुरूष की अपेक्षा स्‍त्री अपने को शरीर से ज्‍यादा सरलता से अलग कर सकती है। क्‍योंकि मनुष्‍य का चित शरीर से ज्‍यादा आसक्‍त है, इसलिए वह शरीर को संयमित कर सकता है। और इसीलिए वह अपनी कामवासना को भी संयमित कर सकता है। लेकिन स्‍त्री अपने शरीर से उतनी नहीं बंधी है। उसका शरीर स्‍वचालित यंत्र की तरह चलता है—एक अलग तल पर; और स्‍त्री इस दिशा में कुछ नहीं कर सकती। स्‍त्री का शरीर स्‍वचलित यंत्र की तरह काम करता है। तंत्र कहता है कि इसीलिए स्‍त्री अपने को अपने शरीर से अधिक आसानी से पृथक कर सकती है। और अगर हय संभव हो—यह अनासक्‍ति, यह अंतराल—तो कोई समस्‍या नहीं रह जाती है, कोई भी समस्‍या नहीं रह जाती है।

तो ये बात बहुत विरोधा भाषी है, लेकिन ऐसा है। यदि कोई स्‍त्री ब्रह्मचर्य धारण करना चाहे और अपने शरीर से पृथक रहना चाहे तो वह यह पुरूष की उपेक्षा अधिक आसानी से कर सकती है। एक बार शरीर से अनासक्ति सध जाए तो वह अपने शरीर को पूरी तरह भूल सकती है।

पुरूष बहुत सरलता से नियंत्रण कर सकता है; लेकिन उसका चित उसके शरीर से ज्‍यादा बंधा है। इसी कारण से नियंत्रण उसके लिए संभव है; लेकिन यह नियंत्रण उसे रोज-रोज करना होगा। सतत करना होगा। और चूंकि स्‍त्री की कामवासना अनाक्रामक है, इसलिए वह इस दिशा में अधिक विश्राम पूर्ण हो सकती है। अधिक अनासक्‍त हो सकती है। लेकिन अनासक्‍ति कठिन है।

तो तंत्र ने अनेक-अनेक उपाय खोजें है। और तंत्र अकेली व्‍यवस्‍था है जो स्‍त्री-पुरूष में भेद नहीं करता और कहता है कि स्‍त्री पर्याय का उपयोग भी किया जा सकता है। तंत्र अकेला मार्ग है जो स्‍त्री को समान हैसियत प्रदान करता है।

शेष सभी धर्म कहते कुछ भी हों, अपने अंतस में यही समझते है कि स्‍त्री हीन पर्याय है। चाहे ईसाइयत हो, इस्‍लाम हो, जैन हो या बौद्ध हो, सब गहरे में यही मानते हे कि स्‍त्री हीन पर्याय है। और इस मान्‍यता का कारण वही है—तीसरी आँख द्वारा किया गया निदान। हर महीने मासिक धर्म के समय स्‍त्रियों का प्रभामंडल बदल जाता है।

तीसरी आँख के जरिए तुम उन चीजों को देखने में समर्थ हो जाते हो जो है, लेकिन जिन्‍हें सामान्‍य आंखों से नहीं देखा जा सकता। देखने की जितनी विधियां है वे सभी तीसरी आँख को प्रभावित करती है। कारण यह है कि देखने में जो ऊर्जा बाहर की और, संसार की और प्रवाहित होती है, वह अचानक रोक दिए जाने के कारण बहने के नए मार्ग ढूँढ़ती है और निकट पड़ने के कारण तीसरी आँख पर पहुंच जाती है।
तिब्‍बत में तो तीसरी आँख के लिए शल्‍य-चिकित्‍सा तक का उपाय किया गया था। कभी-कभी ऐसा होता है कि हजारों वर्षों से निष्‍क्रिय पड़े रहने के कारण तीसरी आँख बिलकुल बंद हो जाती है। मूंद जाती है। इस हालत में अगर तुम सामान्‍य आंखों की गति रोक दो तो तुम बेचैनी महसूस करोगे। कारण यह है कि आँख की ऊर्जा को गति करने का मार्ग नहीं मिला। इस ऊर्जा को मार्ग देने के लिए तिब्‍बत में तीसरी आँख की आपरेशन किया जाने लगा। यह संभव है। और अगर यह आपरेशन न किया जाए तो कई अड़चनें आ सकती है।

अभी दो या तीन दिन पहले एक संन्‍यासिनी मेरे पास आई थी—वह अभी यहां मौजूद है। उसने मुझे कहा कि उसकी तीसरी आँख पर बहुत जलन महसूस हो रही है। इतना ही नहीं कि वह जलन महसूस करती थी, उस जगह की चमड़ी सच में जल गई थी। ऐसा लगता था कि किसी ने बाहर से उसकी चमड़ी जला दी थी। जलन तो भीतर थी लेकिन उससे ऊपर की चमड़ी तक प्रभावित हो गई थी, वह बिलकुल जल गई थी। वह संन्‍यासिनी भयभीत थी कि पता नहीं क्‍या हो रहा है। साथ ही उसे वह जलन प्रीतिकर भी लगती थी—मानों कोई चीज गल रही हो। कुछ घटित हो रहा था और उससे स्‍थूल शरीर भी प्रभावित था—मानों असली आग ने उसे छू दिया हो। कारण क्‍या था?

कारण यह था कि तीसरी आँख सक्रिय हो गई थी। उसकी और ऊर्जा प्रवाहित होने लगी थी। जन्‍मों-जन्‍मों से यह आँख ठंडी पड़ी थी कभी उससे ऊर्जा प्रवाहित नहीं हुई थी। इस लिए जब पहली बार ऊर्जा का प्रवाह आया तो वह गर्म हो उठी। जलन होने लगी। और क्‍योंकि मार्ग अवरूद्ध था, इसलिए ऊर्जा आग जैसी उत्‍तप्‍त हो गई। इस तरह वह तीसरी आँख पर इकट्ठी ऊर्जा चोट करने लगी थी।

भारत में हम इसके लिए चंदन, या घी तथा अन्‍य चीजों का उपयोग करते है। उन्‍हें तीसरी आँख पर लगाते है और उसे तिलक कहते है। उसे तीसरी आँख की जगह पर लगाकर बहार से थोड़ी ठंडक दी जाती है। ताकि भीतर की गर्मी से, जलन से बाहर की चमड़ी न जले। इस आग से चमड़ी ही नहीं जलती है, कभी-कभी सिर की हड्डी में छेद तक हो जाता है।

मैं एक किताब पढ़ रहा था, जिसमें पृथ्‍वी पर मानवीय अस्‍तित्‍व की गहन रहस्‍यमयता के संबंध में बड़ी गहरी खोजें है। सदा ही यह प्रस्‍तावना की गई है कि मनुष्‍य यहां किसी दूसरे ग्रह से आया है। इस बात की कोई संभावना नहीं है। कि मनुष्‍य पृथ्‍वी पर एकाएक विकास को उपलब्‍ध हो गया हो। इस बात की भी संभावना नहीं है कि मनुष्‍य बैबून या बनमानुस से विकसित हुआ हो। क्‍योंकि अगर मनुष्‍य वनमानुष से आता है तो उसके ओर वनमानुष के बीच कोई कड़ी जरूर होनी चाहिए। सारी खोजों और आंकड़ों के बावजूद अब तक कोई एक भी शिव, कपाल या कोई ऐसी चीज नहीं मिली है जिसके सहारे यह कहा जा सके कि वनमानुष और मनुष्‍य के बीच की कड़ी उपलब्‍ध है।

विकास का अर्थ है कदम दर कदम वृद्धि। कोई वनमानुष एकाएक मनुष्‍य नहीं बन सकता। सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ना होता है। पर इसका कोई सबूत नहीं है कि वनमानुष क्रमश: कैसे इस विकास को उपलब्ध हुआ। डार्विन का सिद्धांत परिकल्‍पना भर है; क्‍योंकि बीच की कड़ियां नहीं मिलती है।

यही कारण है कि ऐसे सुझाव दिए गए है कि आदमी अचानक पृथ्‍वी पर उत्‍तर आया होगा। एक मनुष्‍य की पुरानी खोपड़ी कोई लाख साल पुरानी खोपड़ी मिली है। यह खोपड़ी दूसरी खोपड़ियों से जरा भी भिन्‍न नहीं है; उसमे कोई कमी नहीं है। उसके भीतर का ढांचा और संरचना सबकी सब वही है। जहां तक मस्‍तिष्‍क की संरचना का संबंध है, मनुष्‍य विकास करके नहीं आया मालूम पड़ता है। मालूम यही पड़ता है कि वह अचानक कहीं से पृथ्‍वी पर आ धमका।

निस्‍संदेह मनष्‍य किसी दूसरे ग्रह से आया होगा। अभी हम अंतरिक्ष की यात्राएं कर रहे है। यदि इस यात्रा में कोई ऐसा ग्रह हमे मिल जाए जो बसने लायक हो तो हम वहां पर बस जाएंगे। और तब उस ग्रह पर आदमी एकाएक प्रकट हो जाएगा।

तो मैं एक पुस्‍तक पढ़ रहा था जिसमें ऐसा प्रस्‍ताव किया गया है। लेखक ने उसमें अपनी परिकल्‍पना को मजबूत बनाने के लिए बहुत से तर्क खोजें है। उनमें एक बात है जिसका संबंध इस देखने की विधि से है और वह मैं तुम्‍हें बताना चाहता हूं। उसे दो खोपड़ियां मिली है—एक मैक्‍सिको में, दूसरी तिब्‍बत में। दोनों खोपड़ियों में तीसरी आँख के स्‍थान पर छेद है। और छेद ऐसे है जैसे की बंदूक की गोली से हुए हो। ये खोपड़ियां कम से कम पाँच-दस लाख वर्ष पुरानी होगी। अगर वे छेद तीर से किए गए होते तो वे इतने गोल नहीं होते। वे तीर से किये हुए नहीं हो सकते। तो इस आधार पर कि वे छेद बंदूक की गोली से बने है लेखक ने यह साबित करने की चेष्‍टा की है कि दस लाख वर्ष पहले बंदूकें थी। अन्‍यथा ये दो व्‍यक्‍ति मारे कैसे जाते।

सच्‍चाई यह है कि इस बात का बंदूक या गोली से कुछ लेना-देना नहीं है। जब भी तीसरी आँख के पूरी तरह अवरूद्ध होने पर आँखो की ऊर्जा अचानक गति करती है तो वह ऐसा छेद बना देती है। ऊर्जा भीतर से गोली की तरह आती है—बिलकुल गोली की तरह। वह संचित आग है; वह छेद बनाएगी ही। छेद वाली वे दो खोपड़ियां यह नहीं बताती है कि वे दो मनुष्‍य गोली से मारे गए। वे सिर्फ यह बताती है कि यह तीसरी आँख की घटना है। तीसरी आँख बिलकुल अवरूद्ध हो गई होगी। ऊर्जा इकट्ठी हो गई होगी; और गति के लिए जगह न पाकर वह आग बन गई होगी। उससे ही वह विस्‍फोट हुआ होगा। अन्‍यथा ऐसी घटना नहीं घट सकती थी।

यहीं कारण है कि तिब्‍बत में उन्होंने तीसरी आँख में छेद करने के उपाय निकाले, ताकि ऊर्जा आसानी से गति कर सके और इस तरह के एक्सीडेंट न हों।

तो जब तुम देखने की विधि का प्रयोग करो तो इस बात का सदा ध्‍यान रखना। जब भी जलन महसूस हो, डरना मत। लेकिन जब तुम्‍हें ऐसा लेक कि ऊर्जा बड़ी आग जैसी हो गई है। जब लगें की बंदूक की गर्म गोली जैसी कोई चीज खोपड़ी को भेदने के लिए तत्‍पर है, तो विधि का प्रयोग बंद कर दो और तुरंत मेरे पास चले आओ। तब प्रयोग को आगे मत जारी रखो। ज्‍यों ही लगे कि गोली जैसी कोई चीज मेरे माथे को छेद कर निकलना चाहती है। तो प्रयोग बंद कर दो और आँख खोल लो। और उन्‍हें उतनी गति दो जितनी दे सकते हो। आंखों को धूमाऔ, उनके हिलाने से जलन तुरंत कम हो जायेगी। ऊर्जा दो आंखों से फिर गति करने लगेगी। और जब तक मैं न कहूं, प्रयोग को फिर शुरू न करना। क्‍योंकि कई बार ऐसा हुआ है कि इस ऊर्जा से खोपड़ी फट गई।

वैसे तो यदि ऐसा हो भी जाए तो कुछ बुरा नहीं है। इसमें मर जाना भी अच्‍छा है; क्‍योंकि वह स्‍वयं एक ऐसी उपलब्‍धि है जो मृत्‍यु के पार जाती है। लेकिन बचाव के लिए अच्‍छा है कि जब लगे कि कुछ गड़बड़ होने वाली है—चाहे इस विधि से या किसी भी विधि से—तो विधि का प्रयोग बंद कर दो। किसी भी विधि से कुछ गलत की संभावना मालूम हो तो प्रयोग बंद कर देना उचित है।
भारत में अभी ऐसी बहुत सी विधियां सिखाई जा रही है और अनेक साधक नाहक कष्‍ट में पड़ते है; क्‍योंकि सिखाने वालों को खतरे का पता ही नहीं है। और सीखने वाले महज अंधी गली में भटकते है; उन्‍हें पता नहीं है कि वे कहां जा रहे है। और क्‍या कर रहे है।

मैं इन एक सौ बारह विधियों पर विशेषकर इसी कारण से बोल रहा हूं। मैं चाहता हूं कि तुम्‍हें इस सारी विधियों की, उनकी संभावनाओं की, उनके खतरों की जानकारी हो जाए। और तब तुम अपने लिए वह विधि चुन सकते हो जो तुम्‍हारे लिए सर्वाधिक अनुकूल हो। ओर तब अगर तुम किसी विधि का प्रयोग करोगे तो तुम्‍हें भलीभाँति पता होगा कि यह क्‍या है। कि क्‍या हो सकता है। और कुछ होने पर उससे निबटने के लिए क्‍या करना चाहिए।

ओशो

तंत्र-सूत्र भाग: 2 प्रवचन-22
(संस्‍करण: 1993)

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ओशो – तीसरी आँख को विकसित करने लिए

कुछ महत्‍वपूर्ण ध्‍यान:

(1) साक्षी को खोजना— ओशो

शिव ने कहा: होश को दोनों भौहों के मध्‍य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो। देह को पैर से सिर तक प्राण तत्‍व से भर जाने दो, ओर वहां वह प्रकाश की भांति बरस जाए।

वह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस वह विधि लेकर ग्रीस गया। और वास्‍तव में यह पश्‍चिम में सारे रहस्‍यवाद का उद्गम बन गया। स्‍त्रोत बन गया। वह पश्‍चिम में पूरे रहस्‍यवाद का जनक है।

यह विधि बहुत गहन पद्धतियों में से है। इसे समझने का प्रयास करो: “होश को दोनों भौहों के मध्‍य में लाओ।”

आधुनिक मनोविज्ञान और वैज्ञानिक शोध कहती है कि दोनों भौंहों के मध्‍य में एक ग्रंथि है जो शरीर का सबसे रहस्‍यमय अंग है। यह ग्रंथि, जिसे पाइनियल ग्रंथि कहते है। यही तिब्‍बतियों का तृतीय नेत्र है—शिवनेत्र : शिव का, तंत्र का नेत्र। दोनों आंखों के बीच एक तीसरी आँख का अस्‍तित्‍व है, लेकिन साधारणत: वह निष्‍कृय रहती है। उसे खोलने के लिए तुम्‍हें कुछ करना पड़ता है। वह आँख अंधी नहीं है। वह बस बंद है। यह विधि तीसरी आँख को खोलने के लिए ही है।

“होश को दोनों भौंहों के मध्‍य में लाऔ।”……अपनी आंखें बंद कर लो, और अपनी आंखों को दोनों भौंहों के ठीक बीच में केंद्रित करो। आंखे बंद करके ठीक मध्‍य में होश को केंद्रित करो, जैसे कि तुम अपनी दोनों आँखो से देख रहे हो। उस पर पूरा ध्‍यान दो।

वह विधि सचेत होने के सरलतम उपायों में से है। तुम शरीर के किसी अन्‍य अंग के प्रति इतनी सरलता से सचेत नहीं हो सकते। यह ग्रंथि होश को पूरी तरह आत्‍मसात कर लेती है। यदि तुम उस पर होश को भ्रूमध्‍य पर केंद्रित करो तो तुम्‍हारी दोनों आंखें तृतीय नेत्र से सम्‍मोहित हो जाती है। वे जड़ हो जाती है, हिल भी नहीं सकती। यदि तुम शरीर के किसी अन्‍य अंग के प्रति सचेत होने का प्रयास कर रहे हो तो यह कठिन है। यह तीसरी आँख होश को पकड़ लेती है। होश को खींचती है। वह होश के लिए चुम्‍बकीय है। तो संसार भर की सभी पद्धतियों ने इसका उपयोग किया है। होश को साधने का यह सरलतम उपाय है। क्‍योंकि तुम ही होश को केंद्रित करने का प्रयास नहीं कर रहे हो; स्‍वयं वह ग्रंथि भी तुम्‍हारी मदद करती है; वह चुम्‍बकीय है। तुम्‍हारा होश बलपूर्वक उनकी और खींच लिया जाता है। वह आत्‍मसात हो जाता है।

तंत्र के प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि होश तीसरी आँख का भोजन है। वह आँख भूखी है; जन्‍मों-जन्‍मों से भूखी है। यदि तुम उस पर होश को लाओगे तो वह जीवंत हो जाती है। उसे भोजन मिल जाता है। एक बार बस तुम इस कला को जान जाओं। तुम्‍हारा होश स्‍वयं ग्रंथि द्वारा ही चुम्‍बकीय ढंग से खिंचता है। आकर्षित होता है। तो फिर होश को साधना कोई कठिन बात नहीं है। व्‍यक्‍ति को बस ठीक बिंदु जान लेना होता है। तो बस अपनी आंखें बंद करों, दोनों आँखो को भ्रूमध्‍य की और चले जाने दो, और उस बिंदु को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के समीप आओगे तो अचानक तुम्‍हारी आँख जड़ हो जाएंगी। जब उन्‍हें हिलाना कठिन हो जाए तो जानना कि तुमने ठीक बिंदु को पकड़ लिया है।

‘’होश को दोनों भौंहों के मध्‍य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो।‘’……यदि यह होश लग जाए तो पहली बार तुम्‍हें एक अद्भुत अनुभव होगा। पहली बार तुम विचारों को अपने सामने दौड़ता हुआ अनुभव करोगे। तुम साक्षी हो जाओगे। यह बिलकुल फिल्‍म के परदे जैसा होता है। विचार दौड़ रहे है और तुम एक साक्षी हो।

सामान्‍यतया तुम साक्षी नहीं होते: तुम विचारों के साथ एकात्‍म हो। यदि क्रोध आता है तो तुम क्रोध ही हो जाते हो। कोई विचार उठता है तो तुम उसके साक्षी नहीं हो सकते। तुम विचार के साथ एक हो जाते हो। एकात्‍म हो जाते हो, और इसके साथ ही चलने लगते हो। तुम एक विचार ही बन जाते हो। जब काम उठता है तो तुम काम ही बन जाते हो। जब क्रोध उठता है तो तुम क्रोध ही बन जाते हो। जब लोभ बनता है तो तुम लोभ ही बन जाते हो। कोई चलता हुआ विचार और उनसे तुम्‍हारा तादात्म्य हो जाता है। विचार और तुम्‍हारे बीच में कोई अंतराल नहीं होता।

लेकिन तृतीय नेत्र पर केंद्रित होकर तुम अचानक एक साक्षी हो जाते हो। तृतीय नेत्र के द्वारा तुम विचारों को ऐसे ही देख सकते हो जैसे की आकाश में बादल दौड़ रहे हों, अथवा सड़क पर लोग चल रहे है।

साक्षी होने का प्रयास करो। जो भी हो रहा हो, साक्षी होने का प्रयास करो। तुम बीमार हो, तुम्‍हारा शरीर दुःख रहा है और पीड़ित है, तुम दुःखी और पीड़ित हो , जो भी हो रहा है, स्‍वयं का उससे तादात्‍म्‍य मत करो। साक्षी बने रहो। द्रष्‍टा बने रहो। फिर यदि साक्षित्‍व संभव हो जाए तो तुम तृतीय नेत्र मे केंद्रित हो जाओगे।

दूसरा, इससे उल्‍टा भी हो सकता है। यदि तुम तृतीय नेत्र में केंद्रित हो तो तुम साक्षी बन जाओगे। ये दोनों चीजें एक ही प्रक्रिया के हिस्‍से है। तो पहली बात: तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से साक्षी का प्रादुर्भाव होगा। अब तुम अपने विचारों (से साक्षात्‍कार कर सकते हो। यह पहली बात होगी। और दूसरी बात यह होगी कि अब तुम श्‍वास के सूक्ष्‍म और कोमल स्‍पंदन को अनुभव कर सकोगे। अब तुम श्‍वास के प्रारूप को श्‍वास के सार तत्व को अनुभव कर सकेत हो।

पहले यह समझने का प्रयास करो कि ‘’प्रारूप’’ का, श्‍वास के सार तत्व का क्‍या अर्थ है। श्‍वास लेते समय तुम केवल हवा मात्र भीतर नहीं ले रहे हो। विज्ञान कहता है कि तुम केवल वायु भीतर लेते हो—बस ऑक्‍सीजन, हाइड्रोजन व अन्‍या गैसों का मिश्रण। वे कहते है कि तुम ‘’वायु’’ भीतर ले रहे हो। लेकिन तंत्र कहता है कि वायु बस एक वाहन है, वास्‍तविक चीज नहीं है। तुम प्राण को, जीवन शक्‍ति को भीतर ले रहे हो। वायु केवल माध्‍यम है; प्राण उसकी अंतर्वस्‍तु है। तुम केवल वायु नहीं, प्राण भीतर ले रहे हो।

तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से अचानक तुम श्‍वास के सार तत्व को देख सकते हो—श्‍वास को नहीं बल्‍कि श्‍वास के सार तत्व को, प्राण को। और यदि तुम श्‍वास के सार तत्व को, प्राण को देख सको तो तुम उसे बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लगती है, अंतस क्रांति घटित होती है।

(2) पंख की भांति छूना ध्‍यान —ओशो

शिव ने कहा: आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उसके बीच का हलका पन ह्रदय में खुलता है।

ओशो–अपनी दोनों हथेलियों का उपयोग करो, उन्‍हें अपनी बंद आँखो पर रखो, और हथेलियों को पुतलियों पर छू जाने दो—लेकिन पंख के जैसे, बिना कोई दबाव डाले। यदि दबाव डाला तो तुम चूक गए, तुम पूरी विधि से ही चूक गए। दबाव मत डालों; बस पंख की भांति छुओ। तुम्‍हें थोड़ा समायोजन करना होगा क्‍योंकि शुरू में तो तुम दबाब डालोगे। दबाव का कम से कम करते जाओ जब तक कि दबाब बिलकुल समाप्‍त न हो जाए—बस तुम्‍हारी हथैलियां पुतलियों को छुएँ। बस एक स्‍पर्श, बाना दबाव का एक मिलन क्‍योंकि यदि दबाव रहा तो यह विधि कार्य नहीं करेगी। तो बस एक पंख की भांति।

क्‍यों?—क्‍योंकि जहां सुई का काम हो वहां तलवार कुछ भी नहीं कर सकती। यदि तुमने दबाव डाला, तो उसका गुणधर्म बदल गया—तुम आक्रामक हो गए। और जो ऊर्जा आंखों से बह रहा है वह बहुत सूक्ष्‍म है: थोड़ा सा दबाव, और वह संघर्ष करने लगती है जिससे एक प्रतिरोध पैदा हो जाता है। यदि तुम दबाव डालोगे तो जो ऊर्जा आंखों से बह रही है वह एक प्रतिरोध, एक लड़ाई शुरू कर देगी। एक संघर्ष छिड़ जाएगा। इसलिए दबाव मत डालों आंखों की ऊर्जा को थोड़े से दबाव का भी पता चल जाता है।

वह ऊर्जा बहुत सूक्ष्‍म है, बहुत कोमल है। दबाव मत डालों—बस पंख की भांति, तुम्‍हारी हथैलियां ही छुएँ, जैसे कि स्‍पर्श हो ही न रहा हो। स्‍पर्श ऐसे करो जैसे कि वह स्‍पर्श ने हो, दबाव जरा भी न हो; बस एक स्‍पर्श, एक हलका-सा एहसास कि हथेली पुतली को छू रही है, बस।
इससे क्‍या होगा? जब तुम बिना दबाव डाले हलके से छूते हो तो ऊर्जा भीतर की और जाने लगती है। यदि तुम दबाव डालों तो वह हाथ के साथ, हथेली के साथ लड़ने लगती है। और बहार निकल जाती है। हल्‍का-सा स्‍पर्श, और ऊर्जा भीतर जाने लगती है। द्वार बंद हो जाता है। बस द्वार बंद होता है और ऊर्जा वास लौट पड़ती है। जिस क्षण ऊर्जा वापस लौटती है, तुम आपने चेहरे और सिर पर एक हलकापन व्‍याप्‍त होता अनुभव करोगे। यह वापस लौटती ऊर्जा तुम्‍हें हल्‍का कर देती है।

और इन दोनों आंखों के बीच में तीसरी आंख, प्रज्ञा-चक्षु है। ठीक दोनों आंखों के मध्‍य में तीसरी आँख है। आँखो से वापस लोटती ऊर्जा तीसरी आँख से टकराती है। यहीं कारण है कि व्‍यक्‍ति हल्‍का और जमीन से उठता हुआ अनुभव करता है। जैसे कि कोई गुरुत्वाकर्षण न रहा हो। और तीसरी आँख से ऊर्जा ह्रदय पर बरस जाती है; यह एक शारीरिक प्रक्रिया है: बूंद-बूंद करके ऊर्जा टपकती है। और तुम अत्‍यंत हल्‍कापन अपने ह्रदय में प्रवेश करता अनुभव करोगे। ह्रदय गति कम हो जाएगी। श्‍वास धीमी हो जाएगी। तुम्‍हारा पूरा शरीर विश्रांत अनुभव करेगा।

यदि तुम गहन ध्‍यान में प्रवेश नहीं भी कर रहे हो, तो भी यह प्रयोग तुम्‍हें शारीरिक रूप से उपयोगी होगा। दिन में किसी भी समय, आराम से कुर्सी पर बैठ जाओ—या तुम्‍हारे पास यदि कुर्सी न हो, जब तुम रेलगाड़ी में सफर कर रहे हों—तो अपनी आंखें बंद कर लो। पूरे शरीर में एक विश्रांति अनुभव करो। और फिर दोनों हथेलियों को अपनी आंखों पर रख लो। लेकिन दबाव मत डालों—यह बड़ी महत्‍वपूर्ण बात है। बस पंख की भांति छुओ।

जब तुम स्‍पर्श करो और दबाव न डालों, तो तुम्‍हारे विचार तत्‍क्षण रूक जाएंगे। विश्रांत मन में विचार नहीं चल सकते। वे जम जाते है। विचारों को उन्‍माद और बुखार की जरूरत होती है। उनके चलने के लिए तनाव की जरूरत होती है। वे तनाव के सहारे ही जीते है। जब आंखें शांत व शिथिल हों और ऊर्जा पीछे लौटने लगे तो विचार रूक जायेंगे। तुम्‍हें एक मस्‍ती का अनुभव होगा। जो रोज-रोज गहराता जाएगा।
तो इस प्रयोग को दिन में कई बार करो। एक क्षण के लिए छूना भी अच्‍छा रहेगा। जब भी तुम्‍हारी आंखे थकी हुई ऊर्जा विहीन और चुकी हुई महसूस करें—पढ़कर, फिल्‍म देखकर, या टेलिविजन देखकर। जब भी तुम्‍हें ऐसा लगे, अपनी आंखे बंद कर लो। और स्‍पर्श करो मोर पंखी। तत्‍क्षण प्रभाव होगा। लेकिन यदि तुम इसे एक ध्‍यान बनाना चाहते हो तो इसे कम से कम चालीस मिनट के लिए करो। और पूरी बात यही है कि दबाव नहीं डालना। एक क्षण के लिए तो पंख जैसा स्‍पर्श सरल है; चालीस मिनट के लिए कठिन है। कई बार तुम भूल जाओगे और दबाव डालने लगोगे।

दबाव मत डालों। चालीस मिनट के लिए वह बोध बनाए रहो कि तुम्‍हारे हाथों में कोई बोझ नहीं है। वे बस स्‍पर्श कर रहे है। यह बोध बनाए रहो कि वे दबाव नहीं डाल रहे है, बस स्‍पर्श कर रहे है। यह एक गहन बोध बन जाएगा। बिलकुल ऐसे जैसे श्‍वास-प्रश्‍वास। जैसे बुद्ध कहते है कि पूरे जाग कर श्‍वास लो। ऐसा ही स्‍पर्श के साथ भी होगा। तुम्‍हें सतत स्‍मरण रखना होगा कि तुम दबाव नहीं डाल रहे। तुम्‍हारा हाथ बस एक पंख, एक भारहीन वस्‍तु बन जाना चाहिए। जो बस छुए। तुम्‍हारा चित समग्ररतः: सचेत होकर वहां आंखों के पास लगा रहेगा। और ऊर्जा सतत बहती रहेगी। शुरू में तो वह बूंद-बूंद करके ही टपकेगी। कुछ ही महीनों में तुम्‍हें लगेगा वह सरिता सी हो गई है, और एक साल बीतते-बीतते तुम्‍हें लगेगा कि वह एक बाढ़ की तरह हो गई है। और जब ऐसा होता है—‘’आँख की पुतलियाँ को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन…।‘’ जब तुम स्‍पर्श करोगे तो तुम्‍हें हलकापन महसूस कर सकते हो। जैसे की तुम स्‍पर्श करते हो, तत्क्षण एक हलकापन आ जाता है। और वह ‘’उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है।‘’…वह हलकापन ह्रदय में प्रवेश कर जाता है, खुल जाता है। ह्रदय में केवल हलकापन ही प्रवेश कर सकता है। कोई भी बोझिल चीज प्रवेश नहीं कर सकती है। ह्रदय के साथ बहुत हल्‍की फुलकी घटनाएं ही घट सकती है।

दोनों आंखों के बीच का यह हलकापन ह्रदय में टपकने लगेगा। और ह्रदय उसको ग्रहण करने के लिए खुल जाएगा—‘’और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।‘’ और जैसे-जैसे यह बहती ऊर्जा पहले एक धारा, फिर एक सरिता और फिर एक बाढ़ बनती है तुम पूरी तरह बह जाओगे, दूर बह जाओगे। तुम्‍हें लगेगा ही नहीं कि तुम हो। तुम्‍हें लगेगा कि बस ब्रह्मांड ही है। श्‍वास लेते हुए, श्‍वास छोड़ते हुए तुम्‍हें ऐसा ही लगेगा। कि तुम ब्रह्मांड बन गए हो। ब्रह्मांड भीतर आता है और ब्रह्मांड बाहर जाता है। वह इकाई जो तुम सदा बने रहे—अहंकार—वह नहीं बचता।

(3) नासाग्र को देखना (ध्‍यान)—ओशो

लाओत्‍से ने कहा: व्‍यक्‍ति नासाग्र की और देखे।

क्‍यों—क्‍योंकि इससे मदद मिलती है, यह प्रयोग तुम्‍हें तृतीय नेत्र की रेखा पर ले आता है। जब तुम्‍हारी दोनों आंखें नासाग्र पर केंद्रित होती है तो उससे कई बातें होती है। मूल बात यह है कि तुम्‍हारा तृतीय नेत्र नासाग्र की रेखा पर है—कुछ इंच ऊपर, लेकिन उसी रेखा में। और एक बार तुम तृतीय नेत्र की रेखा में आ जाओ तो तृतीय नेत्र का आकर्षण उसका खिंचाव, उसका चुम्‍बकत्‍व रतना शक्‍तिशाली है कि तुम उसकी रेखा में पड़ जाओं तो अपने बावजूद भी तुम उसकी और खींचे चले आओगे। तुम बस ठीक उसकी रेखा में आ जाना है, ताकि तृतीय नेत्र का आकर्षण, गुरुत्वाकर्षण सक्रिय हो जाए। एक बार तुम ठीक उसकी रेखा में आ जाओं तो किसी प्रयास की जरूरत नहीं है।

अचानक तुम पाओगे कि गेस्‍टाल्‍ट बदल गया, क्‍योंकि दो आंखें संसार और विचार का द्वैत पैदा करती है। और इन दोनों आंखों के बीच की एक आँख अंतराल निर्मित करती है। यह गेस्‍टाल्‍ट को बदलने की एक सरल विधि है।

मन इसे विकृत कर सकता है—मन कह सकता है, “ठीक अब, नासाग्र को देखो। नासाग्र का विचार करो, उस चित को एकाग्र करो।” यदि तुम नासाग्र पर बहुत एकाग्रता साधो तो बात को चूक जाओगे, क्‍योंकि होना तो तुम्‍हें नासाग्र पर है, लेकिन बहुत शिथिल ताकि तृतीय नेत्र तुम्‍हें खींच सके। यदि तुम नासाग्र पर बहुत ही एकाग्रचित्त, मूल बद्ध, केंद्रित और स्‍थिर हो जाओ तो तुम्‍हारा तृतीय नेत्र तुम्‍हें भीतर नहीं खींच सकेगा क्‍योंकि वह पहले कभी भी सक्रिय नहीं हुआ। प्रारंभ में उसका खिंचाव बहुत ज्‍यादा नहीं हो सकता। धीरे-धीरे वह बढ़ता जाता है। एक बार वह सक्रिय हो जाए और उपयोग में आने लगे, तो उसके चारों और जमी हुई धूल झड़ जाए, और यंत्र ठीक से चलने लगे। तुम नासाग्र पर केंद्रित भी हो जाओ तो भी भीतर खींच लिए जाओगे। लेकिन शुरू-शुरू में नहीं। तुम्‍हें बहुत ही हल्‍का होना होगा, बोझ नहीं—बिना किसी खींच-तान के। तुम्‍हें एक समर्पण की दशा में बस वहीं मौजूद रहना होगा।…..

“यदि व्यक्ति नाक का अनुसरण नहीं करता तो यह तो वह आंखें खोलकर दूर देखता है जिससे कि नाक दिखाई न पड़े अथवा वह पलकों को इतना जोर से बंद कर लेता है कि नाक फिर दिखाई नहीं पड़ती।”

नासाग्र को बहुत सौम्‍यता से देखने का एक अन्‍य प्रयोजन यह भी है: कि इससे तुम्‍हारी आंखें फैल कर नहीं खुल सकती। यदि तुम अपनी आंखे फैल कर खोल लो तो पूरा संसार उपलब्‍ध हो जाता है। जहां हजारों व्‍यवधान है। कोई सुंदर स्‍त्री गुजर जाती है और तुम पीछा करने लगते हो—कम से कम मन में। या कोई लड़ रहा है; तुम्‍हारा कुछ लेना देना नहीं है, लेकिन तुम सोचने लगते हो कि  “क्‍या होने वाला है?” या कोई रो रहा है और तुम जिज्ञासा से भर जाते हो। हजारों चीजें सतत तुम्‍हारे चारों और चल रही है। यदि आंखे फैल कर खुली हुई है तो तुम पुरूष ऊर्जा—याँग—बन जाते हो।

यदि आंखे बिलकुल बंद हो तो तुम एक प्रकार सी तंद्रा में आ जाते हो। स्‍वप्‍न लेने लगते हो। तुम स्‍त्रैण ऊर्जा—यन—बन जाते हो। दोनों से बचने के लिए नासाग्र पर देखो—सरल सी विधि है, लेकिन परिणाम लगभग जादुई है।

और ऐसा केवल ताओ को मानने वालों के साथ ही है। बौद्ध भी इस बात को जानते है, हिंदू भी जानते है। ध्‍यानी साधक सदियों से किसी न किसी तरह इस निष्‍कर्ष पर पहुंचते रहे है कि आंखे यदि आधी ही बंद हों तो अत्‍यंत चमत्‍कारिक ढंग से तुम दोनों गड्ढों से बच जाते हो। पहली विधि में साधक बह्म जगत से विचलित हो रहा है। और दूसरी विधि में भीतर के स्‍वप्‍न जगत से विचलित हो रहा है। तुम ठीक भीतर और बाहर की सीमा पर बने रहते हो और यही सूत्र है: भीतर और बाहर की सीमा पर होने का अर्थ है उस क्षण में तुम न पुरूष हो न स्‍त्री हो तुम्‍हारी दृष्‍टि द्वैत से मुक्‍त है; तुम्‍हारी दृष्‍टि तुम्‍हारे भीतर के विभाजन का अतिक्रमण कर गई। जब तुम अपने भीतर के विभाजन से पार हो जाते हो, तभी तुम तृतीय नेत्र के चुम्‍बकीय क्षेत्र की रेखा में आते हो।

“मुख्‍य बात है पलकों को ठीक ढंग से झुकाना और तब प्रकाश को स्‍वयं ही भीतर बहने देना।”
इसे स्‍मरण रखना बहुत महत्‍वपूर्ण है: तुम्‍हें प्रकाश को भीतर नहीं खींचना है, प्रकाश को बलपूर्वक भीतर नहीं लाना है। यदि खिड़की खुली हो तो प्रकाश स्‍वयं ही भीतर आ जाता है। यदि द्वार खुला हो तो भीतर प्रकाश की बाढ़ जा जाती है। तुम्‍हें उसे भीतर प्रकाश की बाढ़ आ जाती है। तुम्‍हें उसे भीतर लाने की जरूरत नहीं है। उसे भीतर धकेलने की जरूरत नहीं है। भीतर घसीटने की जरूरत नहीं है। और तुम प्रकाश को भी तर कैसे घसीट सकते हो? प्रकाश को तुम भीतर कैसे धकेल सकते हो? इतना ही चाहिए कि तुम उसके प्रति खुले और संवेदनशील रहो।…..

“दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है।”
स्‍मरण रखो, तुम्‍हें दोनों आँखो से नासाग्र को देखना है ताकि नासाग्र पर दोनों आंखे अपने द्वैत को खो दें। तो जो प्रकाश तुम्‍हारी आंखों से बाहर बह रहा है वह नासाग्र पर एक हो जाता है। वह एक केंद्र पर आ जाता है। जहां तुम्‍हारी दोनों आंखें मिलती है, वहीं स्‍थान है जहां खिड़की खुलती है। और फिर सब शुभ है। फिर इस घटना को होने दो, फिर तो बस आदत मनाओ, उत्‍सव मनाओ, हर्षित होओ। प्रफुल्‍लित होओ। फिर कुछ भी नहीं करना है।

“दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है, सीधा होकर बैठता है।”
सीधी होकर बैठना सहायक है। जब तुम्‍हारी रीढ़ सीधी होती है। तुम्‍हारे काम-केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्‍ध हो जाती है। सीधी-सादी विधियां है, कोई जटिलता इनमें नहीं है, बस इतना ही है कि जब दोनों आंखें नासाग्र पर मिलती है, तो तुम तृतीय नेत्र के लिए उपलब्‍ध कर दो। फिर प्रभाव दुगुना हो जाएगा। प्रभाव शक्तिशाली हो जाएगा, क्‍योंकि तुम्‍हारी सारी ऊर्जा काम केंद्र में ही है। जब रीढ़ सीधी खड़ी होती है तो काम केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्‍ध हो जाती है। यह बेहतर है कि दोनों आयामों से तृतीय नेत्र पर चोट की जाए, दोनों दिशाओं से तृतीय नेत्र में प्रवेश करने की चेष्‍टा की जाए।

“व्‍यक्‍ति सीधा होकर और आराम देह मुद्रा में बैठता है।”
सदगुरू चीजों को अत्‍यंत स्‍पष्‍ट कर रहे है। सीधे होकर, निश्‍चित ही, लेकिन इसे कष्‍टप्रद मत बनाओ; वरन फिर तुम अपने कष्‍ट से विचलित हो जाओगे। योगासन का यही अर्थ है। संस्‍कृत शब्‍द ‘’आसन’’ का अर्थ है: एक आरामदेह मुद्रा। आराम उसका मूल गुण है। यदि वह आरामदेह न हो तो तुम्‍हारा मन कष्‍ट से विचलित हो जाएगा। मुद्रा आरामदेह ही हो…..
“और इसका अर्थ अनिवार्य रूप से सिर के मध्‍य में होना नहीं है।”
और केंद्रिय होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम्‍हें सिर के मध्‍य में केंद्रित होना है।

“केंद्र सर्वव्‍यापी है; सब कुछ उसमें समाहित है; वह सृष्‍टि की समस्‍त प्रक्रिया के निस्‍तार से जुड़ा हुआ है।”
और जब तुम तृतीय नेत्र के केंद्र पर पहुंच कर वहां केंद्रित हो जाते हो और प्रकाश बाढ़ की भांति भीतर आने लगता है, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए, जहां से पूरी सृष्‍टि उदित हुई है। तुम निराकार और अप्रकट पर पहुच गए। चाहो तो उसे परमात्‍मा कह लो। यही वह बिंदु है, यह वह आकाश है, जहां से सब जन्‍मा है। यही समस्‍त अस्‍तित्‍व का बीज है। यह सर्वशक्‍तिमान है। सर्वव्‍यापी है, शाश्‍वत है।……

“ध्‍यान की साधन अपरिहार्य है।”
ध्‍यान क्‍या है?—निर्विचार का एक क्षण। निर्विचार की एक दशा, एक अंतराल। और यह सदा ही घट रहा है, लेकिन तुम इसके प्रति सजग नहीं हो; वरना तो इसमें कोई समस्‍या नहीं है। एक विचार आता है, फिर दूसरा आता है, और उन दो विचारों के बीच में सदा एक छोटा सा अंतराल होता है। और वह अंतराल ही दिव्‍य का द्वार है, वह अंतराल ही ध्‍यान है। यदि तुम उस अंतराल ही ध्‍यान है। यदि तुम उस अंतराल में गहरे देखो, तो वह बड़ा होने लगता है।
मन ट्रैफिक से भरी हुई एक सड़क की तरह है; एक कार गुजरती है फिर दूसरी कार गुजरती है फिर दूसरी कार गुजरती है। और तुम कारों से इतने ज्‍यादा ग्रसित हो कि तुम्‍हें वह अंतराल तो दिखाई ही नहीं पड़ता जो दो कारों के बीच सदा मौजूद है। वरना तो कारें आपस में टकरा जाएंगी। वे टकराती नहीं; उनके बीच में कुछ है जो उन्‍हें अलग रखता है। तुम्‍हारे विचार आपस में नहीं टकराते, एक दूसरे पर नहीं चढ़ते, एक दूसरे में नहीं मिल जाते। वे किसी भी तरह एक दूसरे पर नहीं चढ़ते। हर विचार की अपनी सीमा होता है, हार विचार परिभाष्‍य होता है। लेकिन विचारों का जुलूस इतना तेज होता है, इतना तीव्र होता है कि अंतराल को तुम तब तक नहीं देख सकते, जब तक कि तुम उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहे हो। उसकी खोज नहीं कर रहे हो।
ध्‍यान का अर्थ है गेस्‍टाल्‍ट को बदल डालना। साधारणत: हम विचारों को देखते है: एक विचार, दूसरा विचार, फिर कोई और विचार। जब तुम गेस्‍टाल्‍ट को बदल देते हो तो तुम एक अंतराल को देखते हो, फिर दूसरे अंतराल को देखते हो। तुम्‍हारा आग्रह विचार पर नहीं रहता। अंतराल पर आ जाता है।
‘’यदि सांसारिक विचार उठे तो व्‍यक्‍ति जड़ न बैठा रहे, वरन निरीक्षण करे कि विचार कहां से शुरू हुआ, और कहां विलीन हुआ।‘’
यह पहले ही प्रयास में नहीं होने वाला है। तुम नासाग्र पर देख रहे होओगे और विचार आ जाएंगे। वे इतने जन्‍मों से आते रहे है कि इतनी सरलता से तुम्‍हें नहीं छोड़ सकते। वे तुम्‍हारा हिस्‍सा बन गए है। तुम करीब-करीब एक पूर्वनिर्धारित जीवन जी रहे हो।
ऐसा होता है: जब लोग ध्‍यान में शांत होकर बैठते है, तो सामान्‍यत: जितने विचार आते है। तब उससे अधिक विचार आते है—असमान्‍य विस्‍फोट होते है। लाखों विचार दौड़ें चले आते है, क्‍योंकि उनका अपना स्‍वार्थ है तुम्हें, और तुम उनकी ताकत से बाहर निकलने की चेष्‍टा कर रहे हो? तुम शांत होकर बैठे नहीं रह सकते। तुम्‍हें कुछ करना पड़ेगा। संघर्ष से तो कोई लाभ नहीं होगा। क्‍योंकि तुम यदि संघर्ष करने लगे तो तुम नासाग्र पर देखना भूल जाओगे। तृतीय नेत्र का, प्रकाश के प्रवाह को बोध खो जाएगा; तुम सब भूल कर विचारों के जंगल में खो जाओगे। यदि तुम विचारों का पीछा करने लगे तो तुम खो गए। उसका अनुसरण करने लगे तो तुम खो गए। उनके साथ तुम संघर्ष करने लगे तो भी तुम खो गए। तो फिर क्‍या करना?
और यही राज है। बुद्ध भी इसी राज को उपयोग में लाए। वास्‍तव में सभी राज तो लगभग एक से ही है क्‍योंकि मनुष्‍य यही है—ताला वही है, जो कुंजी भी वहीं होनी चाहिए। यही राज है; बुद्ध इसे सम्मा सती, सम्‍यक स्‍मृति कहते है। इतना स्‍मरण रखो: यह विचार आया है, बिना किसी विरोध, बिना किसी दलील , बिना किसी निंदा के देखो कि वह है, कहां एक वैज्ञानिक की भांति निरीक्षक हो रहो। देखो कि वह कहां है, कहां से आ रहा है। कहां जा रहा है। उसके आने को देखो उसके रूकने को देखो उसके जाने को देखो। और विचार बहुत गत्‍यात्‍मक है; वे देर तक नहीं रुकते। तुम्‍हें तो बस विचार के उठने उसके रूकने, उसके जाने को देखना भर है। न संघर्ष करने की चेष्‍टा करो। न अनुसरण करो, बस एक मौन निरीक्षक बने रहो। और तुम्‍हें हैरानी होगी; निरीक्षक जितना थिर हो जाता है, विचार उतने ही कम आएँगे। जब निरीक्षक बिलकुल पूर्ण हो जाता है तो विचार समाप्‍त हो जाते है। बस एक अंतराल, एक मध्‍यांतर ही बचता है।
लेकिन एक बात और याद रखना: मन फिर से एक चाल चल सकता है।
‘’प्रतिबिंब को आगे सरकाने से कुछ भी प्राप्‍त नहीं होता।‘’
यही फ्रायडियन मनोविश्‍लेषण भी है: विचारों की मुक्‍त साहचर्य शृंखला। एक विचार आता है, और फिर तुम दूसरे विचार की प्रतीक्षा करते हो, और फिर तीसरे की, और यह पूरी शृंखला है। … हर मनोविश्‍लेषण यही कहता है—तुम अतीत में पीछे जाने लगते हो। एक विचार दूसरे से जुड़ा होता है। और यह शृंखला अनंत तक चलती है। उसका काई अंत नहीं है। यदि तुम उसके भीतर जाने लगो तो तुम एक अनंत यात्रा पर निकल जाओगे। और यह बिलकुल अपव्‍यय होगा। मन ऐसा कर सकता है। तो इसके प्रति सजग रहो।….
मन के द्वारा तुम मन के पार नहीं जा सकेत। इसलिए व्‍यर्थ में अनावश्‍यक चेष्‍टा मत करो। वरना एक बात तुम्‍हें दूसरे में ले जाएगी। और ऐस आगे से आगे चलता रहेगा। और तुम बिलकुल भूल ही जाओगे कि तुम क्‍या करने का प्रयास कर रहे थे। नासाग्र गायब हो जाएगा। तृतीय नेत्र भूल जाएगा। और प्रकाश का प्रवाह तो तुमसे मीलों दूर चला जाएगा। तो ये दो बातें स्‍मरण रखने की है, ये दो पंख है। एक: जब अंतराल आ जाएं, कोई विचार न चलता हो, तो ध्‍यान करो। जब कोई विचार आए तो बस इन तीन बातों को देखो: विचार कहां है, वह कहां से आया है और कहां जा रहा है। एक क्षण के लिए अंतराल को देखना छोड़ दो और विचार को देखो, उसे अलविदा करो। जब वह चला जाए, तो फिर से ध्‍यान के अभ्‍यास पर वापस लौट आओ।
‘’जब विचारों की उड़ान आग बढती जाए, जो व्‍यक्‍ति को रूक कर विचारों का निरीक्षण करना चाहिए। इस प्रकार वह ध्‍यान भी करे और तब फिर से निरीक्षण शुरू करे।‘’
तो जब भी विचार आता है, तब निरीक्षण करो। जब भी विचार जाता है तब ध्‍यान करो।
‘’यह संबोधि को तीव्रता से लाने का दोहरा उपाय है। संबोधि का अर्थ है प्रकाश का वृताकार प्रवाह। प्रवाह है निरीक्षण और प्रकाश है ध्‍यान।‘’
जब भी तुम ध्‍यान करोगे तो प्रकाश को भीतर प्रवेश करता पाओगे, और जब भी तुम एकाग्र होकर देखोगें तो प्रवाह को निर्मित करोगे। प्रवाह को संभव बनाओगे। दोनों की ही जरूरत है।
‘’प्रकाश ध्‍यान है। ध्‍यान के बिना निरीक्षण का अर्थ है प्रकाश के बिना प्रवाह।‘’
यही हुआ है। हठयोग के साथ यही दुर्घटना घटी है। वे निरीक्षण तो करते है, चित को एकाग्र तो करते है, लेकिन प्रकाश को भूल जाते है। अतिथि के विषय में वक बिलकुल भूल गए है। वे बस घर को तैयार किए चले जाते है; वे घर को तैयार करने में इतने उलझ गए है कि वे उस प्रयोजन को ही भूल गए है। जिसके लिए घर की तैयारी है। हठ योगी सतत अपने शरीर को तैयार करता है, शरीर को शुद्ध करता है, योगासन, प्राणायाम करता है। और आजीवन करता ही चला जाता है। वह भूल ही गया है कि यह सब वह कर किस लिए रहा है। और प्रकाश बाहर खड़ा है लेकिन हठ योगी उसे भीतर नहीं आने दे रहे है। क्‍योंकि प्रकाश तभी भीतर आ सकता है तब तुम पूर्णता: समर्पण की दशा में आ जाओ।
‘’ध्‍यान के बिना निरीक्षण का अर्थ है प्रकाश के बिना प्रवाह।‘’
तथाकथित योगियों के साथ यही दुर्घटना घटी है। दूसरी दुर्घटना मनोविश्‍लेषकों और दार्शनिकों के साथ घटी है।
‘’निरीक्षण के बिना ध्‍यान का अर्थ है प्रवाह के बिना प्रकाश।‘’
वे प्रकाश पर विचार करते है, लेकिन उन्‍होंने प्रकाश की बाढ़ भीतर आ सके इसके लिए तैयारी नहीं की है; वे प्रकाश पर केवल विचार करते है। वे अतिथि के विषय में सोचते है, अतिथि के विषय में हजारों बातों की कल्‍पना करते है, लेकिन उनका घर तैयार नहीं है। दोनों की चूक रहे है।
‘’इसका ख्‍याल रखो।‘’
दोनों में से किसी भी भ्रांति में मत गिरो। यदि तुम सचेत रह सको तो यह अत्‍यंत सरल सी प्रक्रिया है और गहन रूप से रूपांतरणकारी है। जो व्‍यक्‍ति ठीक ढंग से समझ ले वह एक क्षण में ही एक भिन्‍न वास्‍तविकता में प्रवेश कर सकता है।

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ओशो – अपनी नींद में ध्‍यान कैसे करें

धीरे-धीरे ध्‍यान तुम्‍हारे संपूर्ण जीवन में व्‍याप्‍त हो जाना चाहिए। यहां तक की सोने के लिए जाते समय भी।

बिस्‍तर पर लेटने पर कुछ ही मिनटों में तुम नींद की गोद में चले जाओगे। इन कुछ मिनटों में मौन, अँधेरा और विश्रांत शरीर इनके संबंध में सजग रहो। जब तक पूरी तरह से नींद न आ जाए तब तक ऊँघते समय सजग रहो और तुमको आश्‍चर्य होगा। जब तक पूरी तरह नींद आती है तब तक के अंतिम क्षण तक यदि तुम ऐसा अभ्‍यास जारी रखते हो तो फिर सुबह में भी पहला विचार सजगता के संबंध में ही होगा। सोते समय जो तुम्‍हारा अंतिम विचार होगा वही सुबह में जागने पर पहला विचार होगा क्‍योंकि तुम्‍हारी नींद के दौरान यह अंतर-प्रवह के रूप में जारी रहता है।

ध्‍यान के लिए किसी के पास समय नहीं है—दिन में बहुत व्‍यस्‍तता रहती है। लेकिन रात के छह आठ घंटों को ध्‍यान में बदला जा सकता है। तुम पानी से नहाते हो। ऐसा तुम सजगता के साथ क्‍यों नहीं करते हो? रोबट की तरह यांत्रिक रूप से क्‍यों? तुम ऐसा हर रोज करते हो। इसलिए तुम करते जाते हो। और यह यंत्रवत हो जाता है। हर काम जीवंत होकर करो। धीरे-धीरे तुम्‍हारा संपूर्ण दिन, चौबीसों घंटे ध्‍यान से भर जाएगा। तभी तुम सही मार्ग पर हो। तब तुम्‍हें सफलता मिलने की पूरी गारंटी है।

  1. रात को बत्‍ती बुझा दो, बिस्‍तर पर बैठ जाओ। और ‘ओ’ ध्‍वनि करते हुए मुंह से गहरी श्‍वास छोड़ो। पूरी तरह से श्‍वास छोड़ने के बार एक मिनट के रूक जाओ। न तो श्‍वास लो और न ही छोड़ो—केवल रूक जाओ। इस ठहराव में तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो। श्‍वास भी नहीं ले रहे हो।
    केवल एक क्षण के लिए उस ठहराव में रहो। और साक्षी बनो। देखो कि क्‍या हो रहा है। सजग रहो कि तुम कहां हो। उस ठहराव के एक क्षण में संपूर्ण परिस्‍थिति का साक्षी बनो। वहां समय नहीं रहता। क्‍योंकि समय श्‍वास के साथ चला जाता है। तुम श्‍वास लेते हो इसलिए तुम महसूस करते हो कि समय बीत रहा है। समय रूक गया है तो सब कुछ रूक गया है…उस ठहराव में तुम अपने अंतस और ऊर्जा के गहनत्म स्‍त्रोत के प्रति सजग हो सकते हो।
  2. तब नाक से श्‍वास लो, श्‍वास लेने के लिए अतिरिक्‍त प्रयास मत करो। श्‍वास छोड़ने के लिए ही पूरा प्रयास करो। तुमने श्‍वास छोड़ दिया, फिर एक क्षण के लिए रूक जाओ, तब शरीर को श्‍वास लेने दो। तुम केवल शरीर पर ध्‍यान दो। और जब शरीर श्‍वास लेगा तब तुम अपने चारों और एक गहन मौन महसूस करोगे। क्‍योंकि तब तुम जानोंगे कि जीवन के लिए प्रयास करने की आवश्‍यकता नहीं है। जीवन स्‍वयं श्‍वास लेता है। जीवन स्‍वयं अपने तरीके से चलता है। यह एक नदी है। तुम इसमें अनावश्यक ही वेग उत्‍पन करने का प्रयास करते हो।
  3. तुम देखोगें कि शरीर श्‍वास लेता है। इसमें तुम्‍हारे प्रयास की आवश्‍यकता नहीं है। इसमें तुम्‍हारे अहं की आवश्‍यकता नहीं—तुम्‍हारी आवश्‍यकता नहीं। तुम केवल एक साक्षी हो जाते हो। तुम केवल शरीर को श्‍वास लेते देखते हो। गहन मौन की अनुभूति होगी। शरीर में पूरी तरह श्‍वास भर जाने पर एक क्षण के लिए फिर से रूक जाओ। फिर गौर करो।
    ये दोनों क्षण एक दूसरे से बिलकुल भिन्‍न है। जिन्‍होंने जीवन की आंतरिक प्रक्रिया को देखा है वे गहराई के साथ कहते है कि प्रत्‍येक बार श्‍वास लेने के साथ तुम जन्‍मते हो और प्रत्‍येक श्‍वास छोड़ने के साथ तुम मरते हो। प्रत्‍येक क्षण जन्‍म लेते हो। एक बार तुम जान लेते हो कि यह जीवन है और यह मृत्‍यु है। तब तुम इन दोनों से पार हो जाते हो। साक्षी होना न तो जीवन है और न ही मृत्‍यु। साक्षी न तो कभी जन्‍म लेता है और न ही कभी मरता है। केवल शरीर मरता है। केवल कायित संरचना समाप्‍त होती है।
  4. इसी रात बीस मिनट तक इस ध्‍यान को करो और फिर सो जाओ। सुबह जब तुम महसूस करो कि नींद तुम्हें छोड़ कर चली गई है तब तुरंत अपनी आंखें मत खोलों। जब नींद तुम्‍हें छोड़ देती है और जीवन ऊर्जा तुम्‍हारे अंदर जगने लगती है तब तुम उसे देख सकते हो। ध्‍यान की गहराई में जाने के लिए यह देखना सहायक होगा।
  5. रात भर के विश्राम के बाद मन ताजा है, शरीर ताजा है; सब कुछ तरोताजा है। भारहीन है। कोई धूल नहीं, थकान नहीं—तुम गहराई से गौर से देखते हो। तुम्‍हारी आंखें स्‍वच्‍छ है। सब कुछ जीवंत है। इस क्षण को मत गंवाओ। नींद से जागरण में बदलने वाली ऊर्जा को महसूस करो। ध्‍यान से देखो।
  6. तीन मिनट तक अपने शरीर को बिल्‍ली की तरह खींचो—लेकिन आंखें बंद करके। अंतस से शरीर को देखो। खींचो, आगे बढ़ो और ऊर्जा को प्रवाहित होने दो। तथा इसे महसूस करो। जब यह तरोताजा रहता है। तब इसे महसूस करना अच्‍छा है। यह अनुभूति पूरे दिन तुम्‍हारे साथ रहेगी।
  7. इसे दो तीन मिनट तक करो। यदि तुम्‍हें आनंद आ रहा है तो पाँच मिनट तक। और तब दो-तीन मिनट तक पागल की तरह जोर से हंसों, लेकिन आंखे मूंदकर। ऊर्जाऐं प्रवाहित हो रही है। शरीर सजग, सचेत और जीवंत है। नींद जा चुकी है। तुम नई ऊर्जा से भर जाते हो।
  8. पहला काम हंसना है क्‍योंकि यह दिन भर की गतिविधि तय करता है। यदि तुम ऐसा करते हो तो तुम महसूस करोगे कि तुम खुशमिजाज रहते हो। तुम्‍हारा पूरा दिन आनंदमय रहता है। दूसरे क्‍या कहेंगे उसकी परवाह मत करो। हंसों ओर उन्‍हें हंसने में मदद करो।

याद रखो कि दिन के पहले काम से दिन की दूसरी गतिविधि तय होती है। और रात का अंतिम काम भी रात की रूप रेखा तय करता है। इसलिए सोते समय विश्रांत रहो और जब जागों तो हंसते हुए जागों। हंसना दिन की पहली प्रार्थना बने। हंसी महन स्‍वीकृति दिखाता है। हंसी उत्‍सव दिखाता है। हंसी दिखाता है कि जीवन अच्‍छा है।

सुबह का पहला काम यह है कि शरीर की बिल्‍ली की तरह खींचो और फिर हंसों, और इसके बाद ही बिस्‍तर छोड़ो। पूरा दिन अलग तरह से गुजरेगा।

ओशो
वेदांता: सेवन स्‍टेप्‍स टु समाधि

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ओशो —हर चक्र की अपनी नींद

सहस्‍त्रार को छोड़ कर प्रत्‍येक चक्र की अपनी नींद है। सातवें चक्र में बोध समग्र होता है। यह विशुद्ध जागरण की अवस्‍था है। इसीलिए कृष्‍ण गीता में कहते है कि योगी सोता नहीं।

‘योगी’ का अर्थ है जो अपने अंतिम केंद्र पर पहुंच गया। अपनी परम खिलावट पर जो कमल की भांति खिल गया। वह कभी नहीं सोता। उसका शरीर सोता है। मन सोता है। वह कभी नहीं सोता। बुद्ध जब सो भी रहे होते है तो अंतस में कहीं गहरे में प्रकाश आलोकित रहता है। सातवें चक्र में निद्रा का कोई स्‍थान नहीं होता। बाकी छ: चक्रों में यिन और यैंग, शिव और शक्‍ति, दोनों है। कभी वे जाग्रत होते है और कभी सुषुप्‍ति में—उनके दोनों पहलू है।

जब तुम्‍हें भूख लगती है तो भूख का चक्र जाग्रत हो जाता है। यदि आपने कभी उपवास किया तो आप चकित हुए होंगे। शुरू में पहले दो या तीन दिन भूख लगती है। और फिर अचानक भूख खो जाती है। यह फिर लगेगी और फिर समाप्‍त हो जाएगी। फिर लगेगी……ओर तुम कुछ भी नहीं खा रहे हो। इसलिए तुम यह भी नहीं कह सकते हो कि ‘भूख मिट गई। क्‍योंकि मैंने कुछ खा लिया है।’ तुम उपवास किए हो, कभी-कभी तो भूख जोरों से लगती है। तुम तड़पा जाते हो। लेकिन यदि तुम बेचैन नहीं होते हो तो यह समाप्‍त हो जायेगी। चक्र सो गया है। दिन में फिर एक समय आएगा जब यह जगेगा। और फिर सो जायेगा।

काम केंद्र में भी ऐसा ही होता है। काम-वासना जगती है, तुम उसमें उतरते हो और संपूर्ण वासना तिरोहित हो जाती है। चक्र सो गया है। यदि तुम बिना दमन किए ब्रह्मचर्य का पालन करो तो तुम हैरान रह जाओगे। यदि तुम काम वासना का दमन न करो और केवल साक्षी रहो….तीन महीने के लिए यह प्रयोग करो—बस साक्षी रहो। जब काम वासना उठे, शांत बैठ जाओ। इसे उठने दो। इसे द्वार खटखटाने दो, आवाज सुनो, ध्‍यान में सुनो लेकिन इसके साथ बह मत जाओ। इसे उठने दो इसे दबाओ मत। इसमें लिप्‍त मत होओ। साक्षी बने रहो। और तुम जान कर चकित रह जाओगे। कभी-कभी वासना इतनी तीव्रता से उठती है कि लगता है पागल हो जाओगे। और फिर स्‍वय: ही तिरोहित हो जाएगी। जैसे कभी थी ही नहीं। वह फिर लौटेगी, फिर चली जाएगी।

चक्र चलता रहता है। कभी-कभी दिन में वासना जगेगी। और फिर रात में सो जाएगी। और सातवें चक्र के नीचे सब छ: चक्रों में ऐसा ही होता है।

निद्रा का अपना अगल चक्र नहीं है।

लेकिन सहस्‍त्रार के अतिरिक्‍त प्रत्‍येक चक्र में इसका अपना स्‍थान है। तो एक बात और समझ लेने जैसी है—जैसे-जैसे तुम ऊपर के चक्रों में प्रवेश करते जाओेगे तुम्‍हारी नींद की गुणवता बेहतर होती जाएगी क्‍योंकि प्रत्‍येक चक्र में गहरी विश्रांति का गुण है। जो व्‍यक्‍ति मूलाधार चक्र पर केंद्रित है उसकी नींद गहरी न होगी। उसकी नींद उथली होगी क्‍योंकि यह दैहिक तल पर जीता है। भौतिक स्‍तर पर जीता है। मैं इन चक्रों कि व्‍याख्‍या इस प्रकार भी कर सकता हूं।

  1. प्रथम, भौतिकमूलाधार
  2. दूसरा, प्राणाधारस्‍वाधिष्‍ठान
  3. तीसरा, काम या विद्युत केंद्रमणिपूर
  4. चौथा, नैतिक अथवा सौंदयपुरकअनाहत
  5. पांचवां, धार्मिकविशुद्ध
  6. छठा, आध्‍यात्‍मिकआज्ञा
  7. सातवां, दिव्‍यसहस्‍त्रार

जैसे-जैसे ऊपर जाओगे तुम्‍हारी नींद गहरी हो जाएगी। और इसका गुणवता बदल जायेगी। जो व्‍यक्‍ति भोजन ग्रसित है और केवल खाने के लिए जीता है। उसकी नींद बेचैन रहेगी। उसकी नींद शांत न होगी। उसमें संगीत न होगा। उसकी नींद एक दु:ख स्वप्न होगी। जिस व्‍यक्‍ति का रस भोजन में कम होगा और जो वस्‍तुओं की बजाएं व्‍यक्‍तियों में अधिक उत्‍सुक होगा, लोगों के साथ जुड़ना चाहता है। उसकी नींद गहरी होगी। लेकिन बहुत गहरी नहीं। निम्‍नतर क्षेत्र में कामुक व्‍यक्‍ति की नींद सर्वाधिक गहरी होगी। यही कारण है कि सेक्‍स का लगभग ट्रैक्‍युलाइजर, नशे की तरह उपयोग किया जाता है। यदि तुम सो नहीं पार रहे हो तो और तुम संभोग में उतरते हो तो शीध्र ही तुम्‍हें नींद आ जायेगी। संभोग तुम्‍हें तनाव मुक्‍त करता है। पश्‍चिम में चिकित्‍सक उन सबको सेक्‍स की सलाह देते है जिन्‍हें नींद नहीं आ रहा है। अब तो वे उन्‍हें भी सेक्‍स की सलाह देते है जिन्‍हें दिल का दौरा पड़ने का खतरा है। क्‍योंकि सेक्‍स तुम्‍हें विश्रांत करता है। तुम्‍हें गहरी नींद प्रदान करता है। निम्‍न तल पर सेक्‍स तुम्‍हें सर्वाधिक गहरी नींद देता है।

जब तुम और ऊपर की और जाते हो, चौथे अनाहत चक्र पर तो नींद अत्‍यंत निष्‍कंप, शांत, पावन व परिष्‍कृत हो जाती है। जब तुम किसी से प्रेम करते हो तो तुम अत्‍यंत अनूठी विश्रांति का अनुभव करते हो। मात्र विचार कि कोई तुम्‍हें प्रेम करता है। और तुम किसी से प्रेम करते हो। तुम्‍हें विश्रांत कर देता है। सब तनाव मिट जाते है। एक प्रेमी व्‍यक्‍ति गहरी निद्रा जानता है। धृणा करो तो तुम सो न पाओगे। क्रोध करो तो तुम सो न पाओगे। तुम नीचे गिर जाओगे। प्रेम करो, करूणा करो। और तुम गहरी नींद आएगी।

पांचवें चक्र के साथ नींद लगभग प्रार्थना पूर्ण बन जाती है। इसी लिए सब धर्म लगभग आग्रह करते है कि सोने से पहले तुम प्रार्थना करो। प्रार्थना को निद्रा के साथ जोड़ दो। प्रार्थना के बिना कभी मत सोओ। ताकि निद्रा में भी तुम्‍हें उसके संगीत का स्‍पंदन हो। प्रार्थना की प्रतिध्‍वनि तुम्‍हारी नींद को रूपांतरित कर देती है।

पांचवां चक्र प्रार्थना है—और यदि तुम प्रार्थना कर सकते हो तो और अगली सुबह तुम चकित होओगे। तुम उठोगे ही प्रार्थना करते हुए। तुम्‍हारा जागना ही एक तरह की प्रार्थना होगी। पांचवें चक्र में नींद प्रार्थना बन जाती है। यह साधारण नींद नहीं रहती।

तुम निद्रा में नहीं जा रहे। बल्‍कि एक सूक्ष्‍म रूप से परमात्‍मा में प्रवेश कर रहे हो। निद्रा एक द्वार है जहां तुम अपना अहंकार भूल जाते हो। और परमात्‍मा में खो जाना आसान होता है। जो कि जाग्रत अवस्‍था में नहीं हो पाता। क्‍योंकि जब तुम जागे हुए होते हो तो अहंकार बहुत शक्‍तिशाली होता है।

जब तुम गहरी निद्रावस्‍था में प्रवेश कर जाते हो तुम्‍हारी आरोग्‍यता प्रदान करने वाली शक्‍तियों की क्षमता सर्वाधिक होती है। इसीलिए चिकित्‍सक का कहना है कि यदि कोई व्‍यक्‍ति बीमार है और सो नहीं पाता तो उसके ठीक होने की संभावना कम हो जाती है। क्‍योंकि आरोग्‍यता भीतर से आती है। आरोग्‍यता तब आती है। जब अहंकार का आस्‍तित्‍व बिलकुल नहीं बचता। जो व्‍यक्‍ति पांचवें चक्र—प्रार्थना के चक्र तक पहुंच गया है। उसका जीवन एक प्रसाद बन जाता है। जब वह चलता है तो उसकी भाव भंगिमाओं में आप एक विश्रांति का गुण पाओगे।

आज्ञा चक्र, अंतिम चक्र है जहां नींद श्रेष्‍ठतम हो जाती है। इसके पार नींद की आवश्‍यकता नहीं रहती, कार्य समाप्‍त हुआ। छटे चक्र तक निद्रा की आवश्‍यकता है। छठे चक्र में निद्रा ध्‍यान में रूपांतरित हो जाती है। प्रार्थना पूर्ण ही नहीं,ध्‍यानपूर्ण।

क्‍योंकि प्रार्थना में द्वैत है। मैं और तुम, भक्‍त और भगवान। छठवें में द्वैत समाप्‍त हो जाता है। निद्रा गहन हो जाती है। इतनी जितनी की मृत्‍यु। वास्‍तव में मृत्‍यु और कुछ नहीं बल्‍कि एक गहरी नींद है और कुछ नहीं बल्‍कि एक छोटी-सी मृत्‍यु है। छठे चक्र के साथ नींद अंतस की गहराई तक प्रवेश हो जाती है। और कार्य समाप्‍त हो जाता है।

जब तुम छठे से सातवें तक पहुंचते हो तो निद्रा की आवश्‍यकता नहीं रहती।
तुम द्वैत के पार चले गए हो। तब तुम कभी थकते ही नहीं। इसलिए निद्रा की आवश्‍यकता नहीं रहती है।

यह सातवीं अवस्‍था विशुद्ध जागरण की अवस्‍था है।

ओशो
दि डिवाइन मैलडी

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शिव सूत्र – 10. साक्षित्‍व ही शिवत्‍व है

साक्षित्‍व ही शिवत्‍व है—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 20 सितंबर, 1974, प्रात: काल, श्री ओशो आश्रम, पूना।


सूत्र:
सुखासुखयोर्बहिर्मननमू।
तद्विमुक्तस्तु केवली।
तदारूढप्रमितेस्तन्धयाज्जीवसंक्षय।
भूतकंचुकी तदाविमुक्तो भूय: पतिसम: पर:।
ओम, श्री शिवार्पण अस्तु।

सुख—दुख बाह्य वृत्तियां है—ऐसा सतत जानता है  और उनसे विमुक्त—वह केवली हो जाता है। उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा—क्षय के कारण जन्म—मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है। ऐसा भूत—कंचुकी विमुक्त पुरुष परम शिवरूप ही होता है।
ओम भगवान श्री शिव को यह अर्पित हो।


सूत्र में प्रवेश के पहले—पीछे मैंने आपको कहा था कि मंत्र के संबंध में कुछ कहूंगा। आज शिविर का अंतिम दिन है; मंत्र के पर्त संबंध में कुछ समझ लें। उसका प्रयोग जीवन में क्रांति ला सकता है।

पहली बात—जैसा मैंने कल कहा, पर्त—पर्त तुम्हारे व्यक्तित्व में है; जैसे प्याज में होती है। एक—एक पर्त को उघाड़ना है, ताकि भीतर छिपे केंद्र को तुम खोज पाओ। हीरा छिपा है, खोया तुमने नहीं है। खो सकते भी नहीं हो; क्योंकि वह हीरा तुम ही हो। दब सकते हो; हीरा भी मिट्टी में दब जाता है। हीरे पर भी पर्त जम जाती है। हीरा भी पत्थर जैसा दिखाई पड़ने लगता है। पर भीतर कुछ भी नष्ट नहीं होता।

तुम्हें शायद खयाल न हो कि हीरे का इतना मूल्य क्यों है? हीरे के मूल्य के पीछे, मनुष्य की शाश्वत की खोज है। इस जगत में हीरा सबसे स्थिर है। सब चीजें बदल जाती हैं; हीरा बिना बदला हुआ बना रहता है। करोड़ों—करोड़ों वर्ष में भी, वह क्षीण नहीं होता। इस बदलते हुए संसार में हीरा न बदलते हुए अस्तित्व का प्रतीक है। इसलिए हीरे का इतना मूल्य है। अन्यथा वह पत्थर है। मूल्य है उसकी शाश्वतता का, उसके ठहराव का। हीरा होना तुम्हारा शाश्वत स्वभाव है। और सारी साधना तुम्हारी मिट्टी की जम गयी पर्तों को अलग करने की है। पर्तें मिट्टी की हैं; इसलिए अलग करना बहुत कठिन न होगा। और पर्तें हीरे पर हैं और मिट्टी की है, शाश्वत पर है, परिवर्तनशील की हैं, इसलिए बहुत कठिन बात नहीं होगी। मंत्र इन पर्तों को खोदने की विधि है।

एक छोटी घटना तुमसे कहूं।
मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र बहुत वर्षों बाद मिला। तो उसने घर के समाचार पूछे और फिर पूछा कि तुम्हारी बेटी का क्या हुआ। नसरुद्दीन ने कहा, ‘तुम भरोसा करो या न करो, बेटी की शादी हो गयी और साधारण आदमी से नहीं, एक बड़े डाक्टर से।’
मित्र को भरोसा न आया। उसने कहा, ‘ क्षमा करना; विश्वास करना कठिन है। और बुरा मत मानना, तुम भी जानते हो कि बेटी तुम्हारी सुंदर तो थी ही नहीं; निश्चित रूप से कुरूप थी। मिलिट्री के टेंट जैसी उसकी देह थी। तो मैं भरोसा नहीं कर सकता कि उसकी शादी हो गयी, और वह भी फिर डाक्टर से! बड़े डाक्टर से! बड़े रहस्य की घटना है! कैसे फांस लिया उसने एक डाक्टर को?’
नसरुद्दीन ने कहा, ‘ अच्छा—अच्छा! तो न ही सही बडा डाक्टर, न सही डाक्टर। लेकिन एक बात मैं तुमसे कहूंगा। मेरे सिर का दर्द उसने दूर किया। मेरे लिए वह डाक्टर है।’

जो सिर का दर्द दूर करे, वह डाक्टर; और जो सिर को ही दूर कर दे, वह मंत्र है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! सिर जब तक है, तब तक दर्द होता ही रहेगा; ऐसी भी विधि है, जिससे सिर दूर हो जाये। तुम्हारी सारी तकलीफ तुम्हारा सिर है, तुम्हारे विचार हैं, विचारों का ऊहापोह है, चिंतना है। अगर विचार खो जायें तो सिर खो गया! तब तुम तो रहोगे, लेकिन मन न रहेगा। मन को जो मार दे वह मंत्र है। मन की जिससे मृत्यु घटित हो जाये, वह मंत्र है। और मन जब नहीं रह जाता तो तुम्हारे और शरीर के बीच जो सेतु है वह टूट जाता है। मन ही जोड़े हुए है तुम्हें शरीर से। अगर बीच का सेतु, बीच का संबंध टूट जाये तो शरीर अलग, तुम अलग हो जाते हो। और जिसने जान लिया अपने को शरीर से अलग और मन से शून्य, वह शिवत्व को उपलब्ध हो जाता है। वह परम केवली है।

इसलिए मंत्र को समझ लें। मंत्र की परिभाषा है—जिससे सिर ही खो जाये, मन न बचे। और ये जो पर्तें हैं शरीर की, मन की, इनको काटने की विधि है। एक—एक कदम बढ़ना जरूरी है। और धैर्य रखना होगा। क्योंकि मंत्र बहुत धीरज का प्रयोग है। अधैर्य जिनके मन में बहुत ज्यादा है, उन्हें मंत्र से लाभ न होगा, नुकसान हो सकता है। इसे पहले समझ लें। क्योंकि वैसे ही तुम काफी परेशान हो और मंत्र एक नई परेशानी बन जायेगी अगर अधैर्य हुआ।

मैं एक स्टेशन से गुजर रहा था। खिलौनों के एक ठेले पर एक खिलौना मैंने देखा। और वह चिल्ला—चिल्लाकर खिलौने बेचनेवाला कह रहा था कि कोई बच्चा इस खिलौने को तोड़ नहीं सकता, यह अनब्रेकेबल है। तो मैंने सोचा, खरीद लूं नसरुद्दीन के बच्चे के काम आयेगा, क्योंकि उसकी पली सदा यही रोना रोती रहती है कि खिलौना घर तक नहीं आ पाता और लड़का तोड़ देता है। उसे मैंने खरीद लिया। उसके दाम भी ज्यादा थे और मजबूत भी था। दिया नसरुद्दीन की पली को, बेटे के लिए। पति—पत्नी दोनों प्रसन्न हुए कि इसको वह भी तोड़ न पायेगा, हम भी तोड़ न पायेंगे। सच में ही खिलौना मजबूत था।

सात दिन बाद उनके घर गया। पूछा, तो पत्नी कहने लगी, ‘बड़ी मुसीबत हो गयी! ‘ मैने पूछा कि क्या उसने वह खिलौना तोड़ दिया। पत्नी ने कहा, ‘नहीं, वह खिलौना तो नहीं तोड़ पाया, लेकिन उस खिलौने से उसने सारे खिलौने तोड़ डाले, घर के सब दर्पण तोड़ डाले और अब आत्मरक्षा के लिए हमें कुछ उपाय करना पड़ेगा। वह खिलौने का अस की तरह उपयोग कर रहा है।’

तुम वैसे ही विक्षिप्त दशा में हो। मंत्र से विक्षिप्तता टूट भी सकती है, बढ़ भी सकती है। वैसे ही तुम बोझ से भरे हो और नया मंत्र और एक बोझ ले आयेगा। इसलिए एक अनहोनी घटना रोज घटती है, कि जिनको तुम साधारणतया धार्मिक आदमी कहते हो, वे साधारण सांसारिक आदमी से ज्यादा परेशान हो जाते हैं; क्योंकि संसारी को संसार की परेशानी है, उनको संसार की तो बनी ही रहती है, धर्म की और जुड़ जाती है। वह प्लस है। उससे कुछ घटता नहीं, बढ़ता है। मन पुराने सब धंधे तो जारी रखता है, यह एक नया धंधा और पकड़ लिया है; व्यस्तता और बढ गयी।

तो मंत्र के साथ अत्यंत धैर्य चाहिए, अन्यथा उस झंझट में मत पडना। जैसे दवा को मात्रा में लेना होता है—यह मत सोचना कि पूरी बोतल इकट्ठी पी गये तो बीमारी अभी ठीक हो जायेगी; उससे बीमार मर सकता है, बीमारी न मरेगी—उसे मात्रा में ही लेना। और मंत्र की मात्राएं बड़ी होमियोपौथिक हैं, बड़ी सूक्ष्म हैं। तो बहुत धैर्य की जरूरत है, वह पहली जरूरत है। फल की बहुत जल्दी आकांक्षा मत करना; वह जल्दी आयेगा भी नहीं। क्योंकि यह परम फल है। यह कोई मौसमी फूल नहीं है कि बोया और पन्द्रह दिन के भीतर आ गया। जन्म—जन्म। लग जाते हैं। और एक कठिन बात जो समझ लेने की है, वह यह है कि जितना धैर्य हो उतना जल्दी फल आ जायेगा। और जितना अधैर्य हो, उतनी ज्यादा देर लग जायेगी।

एक आदमी जा रहा था रास्ते से। उसका जूता उसे काट रहा था; जूता छोटा था। वह जूते को गालियां दे रहा था और परेशान था। नसरुद्दीन ने उससे पूछा कि मेरे भाई, इतना तंग जूता कहां से खरीदा। वह आदमी वैसे ही जला— भुना था, वैसे ही क्रोध में था, उसने कहा, ‘जूता कहां से खरीदा! झाडू से तोड़ा है! ‘नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरे भाई, थोड़ी देर रुक जाते तो पैर के नाप का तो हो जाता। कच्चा तोड़ लिया!’
मंत्र कभी कच्चा मत तोडना, नहीं तो बुरे फंस जाओगे। जूते को तो कोई फेंक दे, मंत्र को फेंकना बहुत मुश्किल है। क्योंकि जूता तो बाहर है, मंत्र भीतर होता है। और अगर गलती से मंत्र में फंस गये तो निकालना बहुत मुश्किल हो जाता है। बहुत—से धार्मिक लोग पागल हो जाते हैं। उसका कारण है कि मंत्र में फंस गये, कुछ जल्दी कर ली तोड्ने की; फल पक नहीं पाया था, कच्चा ले गये। पके तो फल बहुत मीठा हो जाता है; कच्चा बहुत तिक्त होगा, बहुत क्क्वा होगा, जहरीला होगा।

पहली पर्त है शरीर। तो मंत्र का पहला प्रयोग शरीर से शुरू करना जरूरी है। क्योंकि वहीं तुम हो, वहीं से इलाज शुरू होगा। अगर तुमने वह पर्त छोड़कर मंत्र का इलाज शुरू किया तो बीमारी तुम्हारी रह जायेगी, मिटेगी नहीं। कल नहीं परसों, कच्चा फल हाथ आयेगा। ध्यान रखना, यात्रा वहीं से शुरू की जा सकती है जहां तुम खड़े हो; कहीं और से यात्रा की तो वह सपना है। तुम अभी शरीर हो। तो अभी मंत्र को शरीर से ही शुरू करना होगा। विधि को समझ लो।

पहले दस मिनट शांत बैठ जाना। शांत बैठने के पहले—क्योंकि शांत बैठना आसान नहीं है—पांच मिनट नाचना, उछलना, कूदना। और दिल खोलकर उछलना, कूदना, नाचना, ताकि शरीर के भीतर, रग—रग, रेशे—रेशे में जो रेस्टलेसनेस, वह जो बेचैनी है, वह निकल जाये। तभी तुम दस मिनट शांति से बैठ पाओगे। शांति से बैठने के लिए यह जरूरी रेचन है। दस—पांच मिनट, जितना तुम्हें ठीक लगे, जितनी तुम्हारी बेचैनी हो उस हिसाब से, तुम नाचना, कूदना, डोलना, शरीर को सब तरफ से हिलाना ताकि दस मिनट शरीर हिलने की आकांक्षा न करे। उसकी हिलने की तृप्ति कर देना। दस मिनट शरीर को हिलाना—डुलाना, नाचना—कूदना, दौड़ना, फिर बैठ जाना। और फिर बैठ जाना बिलकुल थिर, दस मिनट अब शरीर न हिले। आंखें आधी खुली रखना और उचित होगा कि प्रयोग खुले में मत करना, बंद में करना। छोटा कमरा हो, बंद हो और बिलकुल खाली हो, वहां कोई भी चीज न हो। इसलिए मंदिर, मस्जिद या चर्च बहुत अच्छा है—जहां कुछ भी नहीं है, कोई सामान नहीं। या घर में एक कोना साफ कर लेना, जहां कुछ भी नहीं है। वहां देवी—देवताओं को भी मत रखना, वे भी उपद्रव हैं। बिलकुल खाली कर देना।

बस, खालीपन ही एक परमात्मा है, बाकी सब चीजें मन का ही खेल है। और मन ऐसा पागल है कि लोगों के अगर पूजागृह देखो तो उनका पागलपन पता चल जाये। कोई सौ—पचास देवी—देवताओं को लटकाये हुए हैं, जमाने भर के कलेंडर काट—काट कर टांग लिये हैं। जो भी देवी—देवता जहां मिल जाता है, रद्दी में, अखबार में उसको वे चिपका लेते हैं। यह इनकी खोपड़ी का सबूत है। और इन सबके सामने जल्दी—जल्दी सिर झुकाकर, पानी वगैरह छिड़कर, सबको तृप्त करके, वे गये! इनमें से कोई एक भी तृप्त नहीं होता है। एक को तृप्त करने से सभी तृप्त हो जायेंगे, सभी को तृप्त करने से एक भी तृप्त नहीं होता।

एक साधे, सब सधे। और वह एक बाहर नहीं है, भीतर है।

कमरे को बिलकुल खाली रखना है। जितना शून्य हो, उतना अच्छा है; क्योंकि इसी शून्य की भीतर तलाश है। यह कमरा तुम्हारे भीतर के शून्य का प्रतीक हो, और छोटा हो, क्योंकि मंत्र में उसका उपयोग है; और खाली हो, उसका भी उपयोग है। आंख आधी खुली रखना; क्योंकि जब आंख पूरी खुली होती है, तो तुम दरवाजे पर खड़े हो अपने मकान के—पीठ मकान की तरफ, मुंह संसार की तरफ। एकदम से पीठ न मुड़ेगी। एकदम से परिवर्तन आसान नहीं। तुम सिर्फ आधी आंख खोलना, आधा संसार की तरफ बंद और आधा अपनी तरफ खुले, आधी आंख खुले होने का यही अर्थ है कि आधा संसार देख रहे हैं, आधा अपने को। यहीं से शुरू करना।

और जल्दी की कोई आवश्यकता नहीं है। आधी आंख जब खुली होती है तो तुम एक तंद्रा जैसी स्थिति अनुभव करोगे। तो अपनी नाक के शीर्ष भाग को देखते रहना। बस, उतनी ही आंख खोलनी है। एकाग्रता नहीं करनी है; शांत भाव से नाक का अगला हिस्सा दिखाई पड़ रहा है—नासाग्र दिखाई पड़ रहा है तब ओम का पाठ जोर से शुरू करना—शरीर से, क्योंकि शरीर में तुम हो। तो जोर से ओम की ध्वनि करना कि कमरे की दीवालों से टकराकर तुम पर गिरने लगे। इसलिए खाली जरूरी है। खाली होगी तो प्रतिध्वनि होगी। जितनी प्रतिध्वनि हो उतनी लाभ की है। इसलिए अगर तुम ईसाइयों का कैथड्रल देखे हो तो वह मंत्र के लिए बनाया गया था। वहां कुछ भी बोलो तो वह ध्वनि हजारों गुनी होकर तुम पर लौट आती है। हिंदुओं ने मंदिर बनाया था, अर्धवृत्त में सिर्फ इसलिए कि उसके गुंबज में ध्वनि टकराकर वापस लौट आयेगी। वृत्ताकार वस्तु से कोई भी म्बनि बाहर नहीं जा सकती है, भीतर लौट आती है। वे मंत्र के लिए थे।

तो तुम बैठ जाना, जोर से ओंकार—ओम.. ओम.. जितने जोर से कर सकी; क्योंकि शरीर का उपयोग करना है। तुम्हारा पूरा शरीर निमज्जित हो जाये ओम। ऐसा लगने लगे कि तुमने अपनी पूरी जीवन—ऊर्जा ओम में लगा दी, कुछ बचाया नहीं—जैसे इसी पर जीवन—मरण टिका है। इससे कम में मंत्र नहीं होता। ऐसे धीरे—धीरे मुर्दे की तरह कहते रहो, आधे—आधे, उससे हल न होगा; समग्र भाव से—जैसे कि इसी पर निर्भर है कि अगर तुमने पूरी तरह ओम कहा तो ही तुम बचोगे, अन्यथा मर जाओगे। दांव पर लगा देना—जैसे सिंहनाद होने लगे। आधी आंख खुली, आधी बंद, जोर से ओम का पाठ। और ध्यान रखना, जैसे कोई पत्थर फेंकता है शांत झील में, लहरें उठती हैं, चारों तरफ चली जाती है, ऐसा जब तुम ओम कहोगे, तो तुमने एक पत्थर फेंका उस शांत शून्यता में कमरे की, चारों तरफ किरणें फैली, ध्वनि गयी, टकरायी, वापस लौटी।

और तुम इतने जल्दी ओम कहना कि ओवरलैपिंग हो जाये। एक मंत्र—उच्चार के ऊपर दूसरा मंत्र—उच्चार हो जाये—ओम…. ओम… .ओम। दो ओम के बीच जगह मत छोडना। पसीना—पसीना हो जाना। सारी ताकत लगा देना। थोड़े’ ही दिनों में तुम पाओगे कि पूरा कक्ष ओम से भर गया। तुम पाओगे कि पूरा कक्ष तुम्हें साथ दे रहा है; ध्वनि लौट रही है। अगर तुम कोई गोल कक्ष खोज पाओ तो ज्यादा आसान होगा। अगर गुंबदवाला कक्ष खोज पाओ तो और भी आसान होगा। बिलकुल कुछ भी न हो, ताकि ध्वनि पूरी तरह तुम पर बरसने लगे। तुम्हारा शरीर एक सान से गुजर जायेगा और तुम पाओगे कि ऐसी शीतलता जल के सान से कभी भी नहीं मिलती।

अभी वैज्ञानिक इस पर बहुत खोज कर रहे है। और वे कहते है कि वृक्षों को अगर कुछ खास ध्वनि का संगीत सुनाया जाये, तो उनमें जल्दी फूल आ जाते है, जल्दी फल आ जाते है, वृक्ष जल्दी बढ़ जाते है। रूस और अमरीका में दोनों जगह खेतों में संगीत का प्रयोग किया जा रहा है ताकि फसलें जल्दी आ जायें, दुगनी आ जायें। और परिणाम सफल हुए हैं।

रविशंकर के सितार पर एक प्रयोग किया जा रहा था कनाड़ा में। रविशंकर सितार बजाते और बीज बोये थे एक तरफ, दूसरी तरफ, थोड़े पास, थोड़े दूर, कई तरह के बीज बोये थे। और बडी हैरानी की बात हुई कि जब उनमें से अंकुर आये तो वे सभी अंकुर रविशंकर के सितार की तरफ झुके हुए थे। वृक्ष बड़े हुए, लेकिन जैसे तुम अपने कान को बहरे आदमी के पास कर देते हो—सुनने के लिए, सभी पौधों ने अपने कान सितार पर लगा दिये। और दुगनी बढ़ती होती है। जो पौधा तीन महीने में बढ़ता, वह डेढ़ महीने में बढ़ जाता। और पौधे परम आनंदित होते। पौधा सिर्फ शरीर है। अभी उसका सब सोया हुआ है, बिलकुल प्रसुप्त है। लेकिन शरीर भी ध्वनि से तरंगित होता है, आंदोलित होता है।

जब चारों तरफ से ओंकार तुम पर बरसने लगेगा, लौटने लगेगा तुम्हारी ध्वनि वर्तुलाकार हो जायेगी, तुम पाओगे कि शरीर का रोआं—रोआं प्रसन्न हो रहा है; रोएं रोएं से रोग झड़ रहा है; शांति, स्वास्थ्य प्रगाढ हो रहा है। तुम हैरान होकर पाओगे कि तुम्हारे शरीर की बहुत—सी तकलीफें अपने—आप खो गयीं; क्योंकि यह बडा गहरा सान है और बड़ी गहराई तक इसकी पकड़ और पहुंच है।

शरीर ध्वनि का ही जोड़ है। और ओंकार से अद्भुत ध्वनि नहीं। यह दस मिनट ओंकार का उच्चार जोर से, शरीर के माध्यम से, फिर आंख बंद कर लेना। ओंठ बंद कर लेना। जीभ तालू से लग जाए, इस तरह मुंह बंद कर लेना कि बिलकुल बंद है, कोई जगह न बची; क्योंकि अब जीभ का उपयोग नहीं करना है, ओंठ का उपयोग नहीं करना है।

दूसरा कदम है, दस मिनिट तक अब ओम का उच्चार करना भीतर मन में। अभी तक कक्ष था चारों तरफ, अब शरीर है चारों तरफ। अभी तक मकान के भीतर थे तुम, अब शरीर मकान है। दूसरे दस मिनिट में अब तुम अपने भीतर मन में. ही गुजाना। ओंठ का, जीभ का, कण्ठ का कोई उपयोग न करना। सिर्फ मन में ओम….. ओम्. .लेकिन गति वही रखना। तीव्रता वही रखना। जैसे तुमने कमरे को भर दिया था ओंकार से, ऐसे ही अब शरीर को भीतर से भर देना ओंकार से—कि शरीर के भीतर ही कंपन होने लगे, ओम. दोहरने लगे, पैर से लेकर सिर तक। और इतनी तेजी से यह ओम करना है, जितनी तेजी से तुम कर सको और दौ ओम के बीच जरा भी जगह मत छोड़ना क्योंकि मन का एक नियम है कि वह एक साथ दो विचार नहीं कर सकता। एक साथ दो विचार असंभव हैं।

अगर तुमने ओम इतने जोर से गुंजाया कि दो ओम के बीच में जरा—सी भी संधि न बची तो कोई विचार न आ सकेगा। अगर जरा—सी संधि बची तो विचार आ जायेगा; उसी संधि में जगह बना लेगा। तो संधि मत छोड़ना; संधि—शून्य उच्चार। इसकी भी फिक्र न करना कि एक ओम पर दूसरा चढ़ा जा रहा है। जैसे कभी मालगाड़ी टकरा जाती है, एक डब्बे के ऊपर दूसरा डब्बा हो जाता है, ऐसा तुम ओम को एक दूसरे के ऊपर हो जाने देना। जगह बीच में मत छोड़ना और ध्यान रखना, शरीर का उपयोग नहीं करना है इसमें। आंख इसलिए अब बंद कर ली। शरीर थिर है। मन में ही गज करनी है। शरीर से ही टकराकर गज मन पर वापस गिरेगी, जैसे कमरे से टकराकर शरीर पर गिर रही थी। उससे शरीर शुद्ध हुआ; इससे मन शुद्ध होगा। और जैसे—जैसे गज गहन होने लगेगी, तुम पाओगे कि मन विसर्जित होने लगा। एक गहन शांति, जैसी तुमने कभी नहीं जानी, उसका स्वाद मिलना शुरू हो जायेगा।

दस मिनिट तक तुम भीतर गुंजार करना। दस मिनिट के बाद गर्दन झुका लेना कि तुम्हारी दाढी छाती को छूने लगे। दो—चार दिन तकलीफ भी मालूम होगी गर्दन में, उसकी फिक्र मत करना, वह चली जायेगी। तीसरे चरण में दाढ़ी छूने लगे; जैसे गर्दन कट गयी, उसमें कोई जान न रही। और अब तुम मन में भी गुंजार मत करना ओम का। अब तुम सुनने की कोशिश करना; जैसे ओंकार हो ही रहा है, तुम सिर्फ सुननेवाले हो, करनेवाले नहीं। क्योंकि मन के बाहर तभी जा सकोगे, जब कर्ता छूट जायेगा। अब तुम साक्षी हो जाना। अब तुम गर्दन झुकाकर यह कोशिश करना कि भीतर ओंकार चल रहा है, मैं उसे अं।

गालिब का बहुत प्रसिद्ध वचन है: ‘दिल के आईने में है तस्वीरे यार। जब जरा गर्दन स्थायी, देख ली।’ वह गर्दन झुकाना जरूरी है। जैसे ही गर्दन झुकती है, दिल का आईना सामने आ जाता है। और उस परमप्रिय की तस्वीर वहां है, प्रतिबिम्ब वहां है। लेकिन गर्दन झुकाना तुम्हें नहीं आता। तुम तो गर्दन अक्काकर चलते हो। जहां गर्दन झुकाने की बात आयी, वहीं तुम और तन जाते हो। तुम अगर परमात्मा को खो रहे हो, सिर्फ एक अकड़ से कि तुम गर्दन झुकाने को राजी नहीं; समर्पण की तुम्हारी तैयारी नहीं। यह तो प्रतीक है। गर्दन को लटका देना है, जैसे कट गयी, ताकि तुम झुक सको। और जैसे ही गर्दन झुकती है, भीतर देखना आसान हो जाता है। जैसे ही गर्दन झुकती है, विचार मुश्‍किल हो जाते हैं।

अब तुम सुनने की कोशिश करना। अभी तक तुम मंत्र का उच्चार कर रहे थे; अब तुम मंत्र के साक्षी बनने की कोशिश करना। और तुम चकित होओगे कि तुम पाओगे कि भीतर सूक्ष्म उच्चार चल रहा है। वह ओम जैसा है ठीक ओम नहीं है; क्योंकि भाषा में उसे लाना कठिन है; ठीक ओम् जैसा है। तुम अगर शाति से सुनोगे तो अब वह तुम्हें सुनायी पड़ेगा। शरीर से तुम हट गये। पहले मंत्र के प्रयोग ने तुम्हें शरीर से काट दिया। दूसरे मंत्र के प्रयोग ने तुम्हें मन से काट दिया। अब तीसरा मंत्र का प्रयोग साक्षी—भाव का है।

और इसलिए ओंकार से अद्भुत कोई मंत्र नहीं है। ओम् से अद्भुत कोई मंत्र नहीं है। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध प्यारे हैं, लेकिन मन के बाहर न ले जा सकेंगे, क्योंकि उनकी प्रतिमा, उनका रूप है। ओम अरूप है। और बुद्ध, कृष्ण, जीसस, उनके साथ तुम्हारा लगाव है; भाव है, प्रेम है, आसक्ति है, मोह है। वह मन के बाहर न ले जाने देगा। ओम बिलकुल अर्थहीन है। ओम बड़ा अनूठा है। इसमें कोई अर्थ नहीं है। न इसका कोई रूप है। न इसकी कोई प्रतिमा है। न इसकी कोई आकृति है। यह वर्णमाला का हिस्सा भी नहीं है। और यह निकटतम है उस ध्वनि के, जो भीतर सतत चल रही है; जो तुम्हारे जीवन का स्वभाव है। जैसे कि झरने कलकल का नाद करते हैं—उन्हें करना नहीं पड़ता, उनके बहने से ही कलकल नाद होता रहता है; जैसे हवा गुजरती है वृक्षों से तो एक सरसराहट की आवाज होती है—वह उसे करनी नहीं पड़ती, उस के गुजरने से और वृक्षों की टकराहट से हो जाती है। ऐसे ही तुम्हारा होना ही इस ढंग का है कि उसमें ओम गज रहा है। वह तुम्हारे होने की ध्वनि है—दि साऊंड ऑफ यूअर बीइंग।’

इसलिए ओम किसी धर्म की बपौती नहीं है। वह न हिंदुओं का है, न जैनों का, न बौद्धों का, न मुसलमानों का न ईसाइयों का। ओम् अकेला मंत्र है जो गैर साम्प्रदायिक है, बाकी सब मंत्र साम्प्रदायिक हैं। यह तुम जानकर चकित होओगे कि जैन भी ओम का उपयोग करते हैं, ईसाई भी उपयोग करते हैं, मुसलमान भी। थोड़ा फर्क है। वे ओम की जगह आमीन का उपयोग करते है। वह ओम् का ही रूपांतरण है; वह ओम का ही भ्रष्ट रूप है। झा मुल्क से उन तक खबर पहुंचते—पहुंचते ओम आमीन हो गया; क्योंकि इसका संबंध सोच—विचार से नहीं है। यत तो जो लोग भी निःसोच में डूब गये, उन्हें सुनायी पड़ा है।

तो दो चरण तो तुम मंत्र करोगे, तीसरे चरण में तुम मंत्र को सुनोगे; श्रावक बनोगे, साक्षी बनोगे। दो तक कर्त्ता रहोगे; क्योंकि शरीर और मन कर्तृत्व का हिस्सा है और तीसरा चरण साक्षी— भाव का है। तीसरे चरण में तुम सिर्फ सुनना। शरीर कटा, मन कटा; तब तुम बच गये। प्याज के छिलके अलग हुए, अब सिर्फ शुद्ध अस्तित्व बचा। वही शिवत्व है।

और एक बार इसका स्वाद आ जाये, तो फिर तुम जल्दी—जल्दी जाने लगोगे। फिर स्वाद ही खींचने लगेगा। फिर स्वाद एक मैगनेट बन जाता है। और जिसमे हमें स्वाद आता है, उस तरफ हम सहज ही चले जाते है। कठिनाई तो वहीं होती है, जहां हमें स्वाद नहीं आता। तुम ध्यान लगाते हो, नहीं लगता, क्योंकि तुम्हें स्वाद नहीं आया अभी। पहले स्वाद आ जाये, उसके बाद कोई अड़चन न होगी। फिर तो मन वहां—वहां अपने—आप पहुंच जाता है। जरा समय मिला आंख बंद की कि ‘दिल के आईने में है तस्वीरे यार’। जब बाजार में, दुकान में, कहीं मौका मिला, ‘जब जरा गर्दन स्थायी देख ली’।

वह स्वाद एक दफा आ जाये, वही पहला कदम कठिन है। पहला कदम आधी मंजिल के बराबर है। एक दफा स्वाद आ जाये फिर तो मन भौर की तरह वहीं—वहीं जाता है जहां रस है। मन की सहज वृत्ति है वहीं—वहीं जाने की, जहां रस है। तुम्हें रस नहीं आया अभी, इसलिए तुम ठोक—पीट करते हो बहुत कि मन को धक्का दो कि ध्यान लगाओ, कि ईश्वर का स्मरण करो और वह कहता है कि चलो बाजार, क्यों समय खराब कर रहे हो? इतनी देर में कुछ कमा ही लेते! और फिर यह बाद में कर लेना, जल्दी भी क्या है? जब समय हो, तब कर लेना; अभी दुकान का समय है, दफ्तर का समय है।

मन तुम्हें वहां ले जाता है, जहां उसने रस पाया है। उसका भी कोई कसूर नहीं है। एक बार तुम्हें रस आ जाये भीतर का, तुम पाओगे कि मुश्किल हो जाता है बाहर आना। अभी भीतर जाना मुश्किल, तब बाहर आना मुश्किल हो जाता है।

सारीपुत्त था—बुद्ध का शिष्य—वह इस परम मंत्र की अवस्था को उपलब्ध हुआ। उसने भीतर का महामंत्र सुन लिया। जिस दिन उसने भीतर का महामंत्र सुना, बुद्ध ने कहा कि अब तू जा, और लोगों को शिक्षा दे। उसने कहा कि अब मेरा जाने का कहीं मन नहीं होता। बुद्ध ने कहा : ‘इसलिए भेजता हूं क्योंकि पहले तू बाहर पकड़ा हुआ था—वह भी बंधन था, अब कहीं तू भीतर न पकड़ जाये—वह भी बंधन है। जैसे बाहर से भीतर आने में कठिनाई थी, अब बाहर जानै में कठिनाई है।’

परम सिद्ध तो वही है, जिसकी कठिनाई खो गयी। वह बाहर भीतर ऐसे आता है जैसे हवा का झोंका आता—जाता है। न बाहर आने में कोई अड़चन है, न भीतर जाने में कोई अड़चन है। बाहर बाहर नहीं है; अब भीतर भीतर नहीं है; अब दोनों एक हो गये। तुम अपने घर के बाहर जैसी सरलता से आ जाते हो, जैसी सरलता से भीतर चले जाते हो, ऐसे ही यह जीवन तुम्हारा घर है, इसके बाहर और भीतर आने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। तो कुछ हैं, जो आसक्त हैं संसार से; फिर कुछ हैं, जो आसक्त हो जाते हैं आत्मा से। दोनों आसक्त हैं और दोनों बंधन में हैं; परम मोक्ष फलित नहीं हुआ। ज्ञानी वही है, जिसका अब कोई बंधन नहीं—न बाहर, न भीतर; जिसका प्रवाह सहज है।

मंत्र की यह प्रक्रिया—तीसरा चरण—जितनी देर तुम रह सको, सम्हालना। पहला चरण—शांत बैठना। शांत के पहले भूमिका—दस मिनिट उछल—कूद, शरीर की सब बेचैनी को बाहर फेंक देना; क्योंकि शरीर में बेचैनी भरी रहती है। जब मैं यह कहता हूं तो यह एक वैज्ञानिक बात आपसे कह रहा हूं—शरीर में बेचैनी भरी रहती है। जैसे तुम किसी को चांटा मारना चाहते हो, जब तुम चांटा मारना चाहते हो तो तुम्हारी शरीर—ऊर्जा हाथ में आ जाती है। इसलिए जब कमजोर आदमी चांटा मारता है तो बहुत जोर से मारता है। तुम आशा नहीं कर सकते थे कि यह आदमी और इतने जोर का चांटा मारेगा। यह साधारण हाथ नहीं रहा; ऊर्जा हाथ में आ गय(ई। लेकिन चांटा तुम नहीं मार पाते; हजार कारण हो सकते हैं। जिंदगी जटिल है! जिसको तुम चांटा मारने जा रहे हो, उससे कुछ स्वार्थ है, वह पूरा करना जरूरी है। तुम चांटे को रोक लेते हों—ऊर्जा के वापिस लौटने का कोई उपाय नहीं है। यह वैज्ञानिक शोध है, अत्यंत आधुनिक।

शरीर से बाहर तो ऊर्जा के जाने का मार्ग है; बाहर गयी ऊर्जा को भीतर लाने का कोई मार्ग नहीं है। तो जो ऊर्जा हाथ में आ गयी, अब वह हाथ में रुकेगी, अगर तुमने चांटा नहीं मारा। चांटा किसको मारा, इससे फर्क नहीं पड़ता। तुम हवा में ही चांटा मार दो, तो भी ऊर्जा का निष्कासन हो जायेगा। लेकिन ऊर्जा को भीतर लानेवाले स्नायु शरीर में नहीं हैं। वह वहीं अटकी रहेगी। और इस तरह तुम बहुत—सी ऊर्जा चौबीस घंटे में, शरीर के अलग—अलग हिस्सों में अटका लेते हो। फिर तुम ध्यान को बैठे। वह सब अटकी ऊर्जा बाधा डालेगी। इसलिए तुम कहते हो, पैर में दर्द हो रहा है। कहीं चींटी चढ़ रही है। कहीं कमर में कुछ मालूम होता है। कहीं गर्दन में खुजलाहट आती है। यह सब काल्पनिक नहीं है। यह तुम कल्पना नहीं कर रहे हो। यह हो रहा है; क्योंकि कभी तुम खाली बैठे नहीं, कुछ न कुछ में लगे रहे, ऊर्जा संलग्न थी। अब तुम खाली बैठे हो तो जहां—जहां ऊर्जा अटकी है, वहां—वहां बेचैनी, रेस्टलेसनेस पैदा होगी।

एक छोटे बच्चे को देखो। उसको कह दो कि बैठो शांत। वह आंख बंद करके बैठ जायेगा; लेकिन देखो, कितनी मुसीबत उठा रहा है, सिर्फ खाली बैठने में! हाथ को दबायेगा, पैर को दबायेगा, आंख बंद करेगा, मुंह रोकेगा; क्योंकि सब तरफ ऊर्जा का प्रवाह है। पैर भागना चाहते हैं। हाथ फैलना चाहते हैं। आंखें देखना चाहती हैं। कान सुनना चाहते हैं। उनकी पुरानी आदत है। वह ऊर्जा का पुराना प्रवाह का ढंग है।

इसलिए मैं सदा जोर देता हूं कि प्रत्येक ध्यान के पहले रेचन जरूरी है। रेचन तुम्हें सहयोगी होगा। दस मिनिट दौड़ लो, कूद लो, उछल लो; सारी ऊर्जा जो जम गयी है, उसे फेंक दो, फिर बैठ जाओ। जैसे तूफान के बाद शांति आ जाती है, ऐसे रेचन के बाद शरीर हलका हो जाता है, उसकी बेचैनी खो जाती है। पर वह भूमिका है, वह कोई चरण नहीं। वह मकान के बाहर की सीढ़ी है। मकान के भीतर असली यात्रा तो शुरू होती है. दस मिनट ओंकार की ध्वनि—शरीर से, दस मिनिट ओंकार की ध्वनि मन से। दस मिनिट ‘ओंकार की ध्वनि तुम्हें नहीं करनी, वह अस्तित्व में हो ही रही है, तुम्हें सिर्फ सुननी है।

इसलिए मैं कहता हूं—राम, कृष्ण, बुद्ध उतने ठीक नहीं होंगे; दूसरे चरण तक तो ले जायेंगे, तीसरे चरण तक नहीं ले जायेंगे; क्योंकि जो तीसरे चरण में जो ध्वनि हो रही है, वह ओम की है। लेकिन कभी—कभी राम से भी कोई तीसरे चरण में पहुंच जाता है। वह ऐसा ही है जैसा तुम कभी ट्रेन में चलते हो, रेलगाड़ी आवाज करती है—छक्—छक्। उसमें तुम कोई भी चीज सोचना चाहो तो सोच सकते हो। तुम अगर सोचना चाहो—अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह, तो धीरे— धीरे तुमको लगने लगेगा कि वह छक्—छक् नहीं है, वह अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह हो रहा है; या राम, राम, राम—तो राम—राम हो रहा है। लेकिन सिर्फ छक्—छक्—छक्—छक् हो रहा है।

ओम शुद्ध ध्वनि है। अगर तुम राम को .ही पक्क्कर चलोगे तो तुम्हें राम भी सुनायी पड़ने लगेगा वहां, लेकिन वह आरोपण है। और आरोपण का अर्थ हैं—मन थोड़ा जिंदा है। हम वही जानना चाहते हैं, जो है। हम वही देखना चाहते हैं, जो है। हम मन को उसके ऊपर थोपना नहीं चाहते, रंग नही देना चाहते। इसलिए मंत्र, महा मंत्र तो ओंकार है। बाकी सब मंत्र छोटे—छोटे हैं; दूसरे तक ले जा सकते हैं, तीसरे में बाधा डालेंगे। कोई जरूरत नहीं

तुम ओम् का प्रयोग करना और इस भांति जैसा मैंने कहा। तीन महीने तुम चिंता मत करना कि क्या परिणाम आ रहे हैं। तुम परिणाम का विचार ही मत करना। तुम सिर्फ किये जाना। तुम सोचना ही मत कि कुछ हो रहा है कि नहीं हो रहा है, अभी तक हुआ कि नहीं। तुम तीन महीने तक सोचना ही मत। तुम एक तारीख तय कर लेना कि तीन महीने बाद फलां तारीख को लौटकर सोचेंगे कि कुछ हुआ कि नहीं। तब तक नहीं सोचेंगे फल को। अगर तुमने इतना साहस रखा और यह साहस वैसा ही है जैसा छोटे बच्चे कभी—कभी आम की गोही बो देते हैं और आधी घड़ी बाद फिर जाकर निकालकर देखते है कि अभी तक अंकुर आया कि नहीं। फिर गड़ा आते हैं उदासी में कि अभी तक कुछ भी नहीं हुआ। फिर घडीभर बाद पहुंच जाते है, फिर उखाड़ कर देख लेते हैं। यह अंकुर कभी आयेगा ही नहीं। क्योंकि अंकुर आने के लिए जरूरी है एक समय की सीमा कि गोही अंधकार में दबी रहे, पृथ्वी में गड़ा रहे।

तुम्हारा ध्यान भी फल नहीं ला पाता; क्योंकि तुम बार—बार गोही को उखाड़—उखाड़कर देखते हो, कुछ हुआ कि नहीं। वह हृदय में पहुंच नहीं पाता, उसके पहले तुम निकालकर देख लेते हो।

जीसस ने कहा है कि तुम्हारा दाया हाथ क्या करता है, तुम्हारे बायें हाथ को पता न चले। मंत्र को ऐसा गड़ा दो भीतर। उसको उखाड़—उखाड़कर मत देखो, वह बीज है। इसलिए मंत्र को हमने बीज कहा है। बीज का अर्थ है कि उसको उखाड़—उखाड़कर मत देखना। उसका समय है। वह अपने समय से ही फूटेगा, तुम्हारी जल्दबाजा से नहीं। तुम्हारी जल्दबाजी से उलटा ही परिणाम होगा कि शायद वह कभी न फूटे।
इस महामंत्र को, इस समाधि शिविर से अपने साथ ले जायें और प्रयोग करें। तीन महीने धैर्य से किया तो बड़े मीठे रस से भर जायेंगे—जिसको कबीर ने गूंगे का गुड़ कहा है। और एक बार वह गुड़ स्वाद में आ जाये, फिर कोई कठिनाई नहीं है। फिर तुम जहां हो, ठीक हो; तुम जो कर रहे हो ठीक हो। फिर संसार स्‍प्नवत हो जाता है। जीवन एक अभिनय से ज्यादा नहीं रह जाता। तुम साक्षी हो जाते हो। तुम्हारा साक्षित्व ही शिवत्व है।

अब हम सूत्रों को लें।


‘सुख—दुख बाह्य वृत्तियां है ऐसा सतत जानता है।’ वह जो शिवत्व को उपलब्ध हुआ, ऐसा सतत जानता है कि सुख—दुख बाह्य वृत्तियां हैं। सुख भी बाहर घटता है, दुख भी बाहर घटता_ है; दोनों में से कोई भी तुम्हारे भीतर नहीं पहुंचता। लेकिन तुम दोनों से परेशान हो जाते हो। सुख को भी तुम पकड लेते हो, तादात्‍म्य कर लेते हो और समझते हो कि मैं सुखी हूं—बस, तुमने दुख पैदा किया! अब देर नहीं है। यहीं से दुख शुरू हो गया।

जैसे ही तुमने कहा— ‘मैं सुखी हूं, तुमने दुख के बीज बो दिये। अब ज्यादा देर न लगेगी, जल्दी ही दुख आ जायेगा, जल्दी ही दुख आ जायेगा। क्योंकि दुख का अर्थ है—वृत्तियों के साथ एक हो जाना। फिर जब दुख आयेगा, तब तुम दुख के साथ एक हो जाओगे। तुम्हारी तकलीफ यह है कि जो भी सामने आता है, तुम उसी के साथ एक हो जाते हो; जो भी दिखाई पड़ता है, उसमें तुम देखनेवाले नहीं रह जाते हो, भोक्ता हो जाते हो। दुख आया तो रोते हो, छाती पीटते हो; सुख आया तो नाचने—कूदने लगते हो। सुख भी बाहर से आता है, दुख भी बाहर से आता है और तुम्हारे भीतर जाने का कोई उपाय नहीं। लेकिन तुम ही अपने हाथ से सुख—दुख के साथ जुड़कर सुख—दुख भोग लेते हो। जैसे ही कोई व्यक्ति मन के पार गया, उसे फिर दिखाई पड़ेगा कि सब मंदिर के बाहर ही हो रहा है, भीतर कुछ आता नहीं।

‘सुख—दुख बाह्य वृत्तियां हैं, ऐसा सतत जानता है।’ ‘सतत’ शब्द महत्त्वपूर्ण है। ऐसा कभी—कभी तो तुम भी जानते हो। और अक्सर जब दूसरे को समझाना हो, तब तो तुम पका ही जानते हो। तुम जितने बुद्धिमान दूसरों के लिए हो, काश! उतने ही अपने लिए होते। जितनी समझ सलाह में तुम लगाते हो, उतनी समझ, काश! तुमने अपनी जीवन—यात्रा में लगायी होती।

क्या कारण हैं कि दूसरे के लिए तुम इतने समझदार क्यों होते हो? कोई आदमी दुख में है तो तुम कहते हो कि इतने परेशान क्यों होते हो! यह सब चलता रहता है; संसार है! अपने को जरा दूर रखो। और यही दुख तुम पर आयेगा तो—बडे मजे की बात है कि—हो सकता है, यही आदमी, जिसको तुम सलाह दे रहे हो वह तुम्हें सलाह दे कि भाई, सुख—दुख तो बाहर की वृत्तियां हैं।

बात क्या है? कारण क्या है? कारण यह है कि जब दूसरे पर दुख आता है, तब तुम साक्षी हो। इसलिए ज्ञान उत्पन्न होता है। दूसरे पर दुख आ रहा है, तुम पर तो आ नहीं रहा है। तुम सिर्फ देखनेवाले हो। इतने ही देखनेवाले जब तुम अपने दुख के लिए हो जाओगे, तब इतना ही ज्ञान तुम्हें अपने प्रति भी बना रहेगा। तुमने अभी अपना ज्ञान बांटा है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक मनोचिकित्सक के पास गया और उसने कहा कि मेरी पत्नी की हालत अब खराब है, कुछ आपको करना ही पडेगा। मनोचिकित्सक ने अध्ययन किया उसकी पली का कुछ सप्ताह तक और कहा कि इसका मस्तिष्क तो बिलकुल खत्म हो गया है। नसरुद्दीन ने कहा कि ‘वह मुझे पता था। रोज मुझे बांटती थी, मुझे देती थी। आखिर हर चीज खत्म हो जाती है। रोज थोडा— थोड़ा करके अपनी बुद्धि मुझे देती रही, खत्म हो गयी।’ तुम दूसरों को तो बुद्धि बांट रहे हो; लेकिन उसी बुद्धि का प्रयोग तुम अपने पर ही नहीं कर पाते।

अब जब दुबारा तुम्हारे जीवन में सुख आये तो तुम उसे ऐसे देखना जैसे किसी और के जीवन में आया हो। तुम जरा दूर खड़े होकर देखने की कोशिश करना। जरा फासला चाहिए। थोड़ा—सा भी फासला काफी फासला हो जाता है। बिलकुल सटकर मत खड़े हो जाओ अपने से। तुम अपने पड़ोसी हो। इतने सटकर मत खड़े हो जाओ।

नसरुद्दीन से मैंने पूछा कि जो रास्ते के किनारे पर होटल है, उस होटल का मालिक कहता है कि तुम्हारा बहुत सगा—संबंधी है, बहुत निकट का। नसरुद्दीन ने कहा ‘गलत कहता है। नाता है, लेकिन बहुत दूर का। बड़ा फासला है।’ मैंने पूछा. ‘क्या नाता है?’ तो नसरुद्दीन ने कहा कि हम एक ही बाप के बारह बेटे हैं। वह पहला है, मैं बारहवां हूं। बड़ा फासला है।

तुम अपने पड़ोसी हो, फासला काफी है। ज्यादा सटकर मत खडे होओ। जरा दूरी रखो। दूरी के बिना परिप्रेक्ष्य खो जाता है, पर्सपैक्टिव खो जाता है। कोई भी चीज देखनी हो तो थोड़ा—सा फासला चाहिए। तुम अगर बिलकुल फूल पर आंखें रख दो तो क्या खाक दिखाई पड़ेगा; कि तुम दर्पण में तुम बिलकुल सिर लगा दो, कुछ भी दिखाई न पड़ेगा। थोड़ी दूरी चाहिए। अपने से थोड़ी दूरी ही सारी साधना है। जैसे—जैसे दूरी बढ़ती है, तुम हैरान होकर देखोगे कि तुम व्यर्थ ही परेशान थे। जो घटनाएं तुम पर कभी घटी ही न थीं, तुमसे बाहर घट रही थीं, सिर्फ करीब खडे होने के कारण प्रतिबिंब तुममें पड़ता था, छाया तुम पर पड़ती थी, धुन तुम तक आ जाती थी—उसी प्रतिध्वनि को तुम अपनी समझ लेते थे और परेशान होते थे।

एक मकान में आग लगी थी और मकान का मालिक स्वभावत: छाती पीटकर रो रहा था। लेकिन एक आदमी ने कहा कि तुम नाहक परेशान हो रहे हो; क्योंकि मुझे पता है कि कल तुम्हारे लड़के ने यह मकान बेच दिया है। उसने कहा. ‘क्या कहा!’ लड़का गांव के बाहर गया था। रोना खो गया। मकान में अब भी आग लगी है। वह बढ़ गयी बल्कि पहले से। लपटें उठ रही है, सब जल रहा है। लेकिन अब यह आदमी इस मकान से फासले पर हो गया। अब यह मकान—मालिक नहीं है। तभी लड़का भागता हुआ आया। उसने कहा ‘क्या हुआ? यह मकान जल रहा है? सौदा तो हो गया था, लेकिन पैसे अभी मिले नहीं है। अब जले के कौन पैसे देगा?’ फिर बाप अपनी छाती पीटने लगा। मकान वहीं का वहीं है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। मकान को पता ही नहीं कि यहां सुख हो गया, दुख हो गया। और फिर फर्क हो सकता है, अगर वह आदमी आकर कह दे कि कोई बात नहीं, मैं वचन का आदमी हूं; जल गया तो जल गया; खरीद लिया तो खरीद लिया; पैसे दूंगा। फिर बात बदल गयी।

सब बाहर हो रहा है। और तुम इतने करीब सटकर खड़े हो जाते हो, उससे कठिनाई होती है। थोड़ा फासला बनाओ। जब सुख आये तो थोड़ा दूर खड़े होकर देखना। जब दुख आये, तब भी दूर खड़े होकर देखना। और सुख से शुरू करना। ध्यान रहे—दुख से शुरू मत करना।

हममें से अक्सर लोग, जब दुख होता है, तब दूर होने की कोशिश करते हैं। तब सफल न हो पाओगे। वह जरा कठिन मार्ग है। जब सुख होता है तब जरा दूर होने की कोशिश करना; क्योंकि दुख से तो सभी दूर होना चाहते है, वह बिलकुल सामान्य मन की वृत्ति है। सुख से कोई दूर नहीं होना चाहता। इसलिए दुख से दूर होने की तुम कोशिश मत करना; क्योंकि वह तो तुम सदा से कर रहे हो। उससे कुछ फल नहीं हुआ।

उलटे चलना होगा। जैसी तुमने यात्रा की है, उससे तो तुम भटकते ही चले गये हो। वापस लौटना होगा।

प्रतिक्रमण करना होगा। इसको महावीर प्रतिक्रमण कहते हैं, पतंजलि ने प्रत्याहार कहा है। वापस लौटना होगा—रिटर्निग बैक टू द सोर्स।

थोड़े कदम वापस लौट आओ। सुख जब आये तब जरा दूर खड़े होकर देखो। मत धडकने दो हृदय को जोर से। मत नाचो। इतना ही जानो कि आया है, यह भी चला जायेगा। यह भी रुकनेवाला नहीं; कुछ रुकता नहीं। लहर है हवा की, आयी और गयी। तुम जान’ भी न पाये कि चली गयी। बस दूर खड़े होकर तुम उसे साक्षी—भाव से देखते रहो।

क्या होगा? डर क्या है? सुख को हम देखते क्यों नहीं साक्षी—भाव से? साक्षी—भाव से  देखने के पीछे कारण है; क्योंकि साक्षी— भाव से देखा कि सुख सुख न रह जायेगा। वह सुख था ही, जितने करीब थे। जितने तुम भूले थे उतना ही सुख था। जितनी याद की उतना ही कुछ न रह जायेगा। इसलिए कोई आदमी सुख का साक्षी नहीं होना चाहता। पर वहीं से यात्रा है।

सुख आये, साक्षी—भाव से देखना। देखते ही देखते तुम पाओगे कि सुख खो गया, तुम रह गये। और अगर तुम सुख में सफल हो गये, फिर तुम दुख में सफल हो जाओगे। कुंजी तुम्हारे हाथ में है। फिर दुख आये, तुम दूर से खड़े होकर देखना। और दूर खड़े हो सकते हो; क्योंकि शरीर और तुम दूर हो। इससे बड़ी दूरी किन्हीं दो चीजों के बीच नहीं हो सकती। चेतना और पदार्थ की दूरी से बड़ी दूरी और क्या हो सकती है! चांद—तारे भी इतने दूर नहीं है एक दूसरे से, जितना तुम अपने शरीर से दूर हो। एक जड़ है, एक चेतन है। एक मिट्टी से बना है—मृण्मय है; एक चैतन्य से बना है—चिन्मय है। बड़ा फासला है। इससे ज्यादा विपरीत छोर नहीं मिल सकते।

सुख से शुरू करो, दुख तक ले जाओ। और एक ही बात स्मरण रखो कि तुम बाहर हो।

सुख—दुख बाह्य वृत्तियां है, ऐसा तुम्हें साधना पड़ेगा; लेकिन बार—बार खो—खो जायेगा। यह सतत नहीं हो सकता। सतत तो तभी होगा, जब तुम आत्मा में घिर हो जाओगे; जब मंत्र सफल हो जायेगा, मन कट जायेगा। लेकिन तब तक जितनी देर बने, साधना। जितनी देर अभ्यास कर सको, करना। उससे रास्ता साफ होगा। उससे भला बीज न बोये जायें, लेकिन जमीन साफ होगी। बीज बोने के वक्त कम—से—कम तैयार जमीन तो तुम पाओगे। यह बार—बार खो जायेगा, यह सतत नहीं रह सकता। जरा ही तुम होश गवांओगे कि फिर सुख पकड़ लेगा, दुख पकड़ लेगा।

सुख—दुख बाह्य वृत्तियां है—शिवत्व को उपलब्ध योगी ऐसा सतत जानता है। सतत का अर्थ है—एक भी क्षण को व्यवधान नहीं पड़ता। सतत तो वही चीज हो सकती है जो तुम्हारा स्वभाव हो। जो तुम्हारा स्वभाव नहीं वह सतत नहीं हो सकता। तुम कितनी देर क्रोध कर सकते हो?

बोधिधर्म गया चीन। चीन के सम्राट ने उससे कहा कि मेरे मन में बडा क्रोध आता है, मैं क्या करूं? तो बोधिधर्म ने कहा : ‘तुमको अगर क्रोध करना पड़े तो तुम कितनी देर कर सकते हो?’ उसने कहा— ‘कितनी देर! यह भी कोई सवाल है? घडी, आधा घड़ी, ज्यादा से ज्यादा।’ तो बोधिधर्म ने कहा : ‘जो घड़ी, आधा घड़ी किया जा सके, वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। चौबीस घंटे कर सकते हो? सतत कर सकते हो?’ तो सम्राट ने कहा. ‘हम घडी—दो—घडी करके परेशान हो रहे हैं और यह हम पूछने आये भी नहीं कि सतत कैसे करें।’ बोधिधर्म ने कहा ‘यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि जो तुम सतत कर सकी, वही स्वभाव है। इसमें परेशान क्यों हो रहे हो?’

क्या है जो तुम सतत कर सकते हो? इसे थोड़ा सोचना। तुम सुखी भी सतत नहीं रह सकते हो। यह तुम्हें बहुत कठिन मालूम पड़ेगा समझ में आना; लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि तुम सुखी सतत नहीं रह सकते हो। थोड़ी देर सोचो, कितनी देर सुखी रह पाते हो। कुछ भी हो जाये, थोड़ी देर में सुख खोने लगता है और तुम दुखी होने लगते हो। और अगर कुछ भी न हो तो तुम सुख से ऊब जाओगे। महल हो, अच्छा भोजन हो, पत्नी हो, सब हो; कोई दुख—दुविधा न हो, कोई अड़चन न हो; क्या करोगे? कितनी देर सुखी रहोगे? घड़ी दो घड़ी में तुम ऊब जाओगे। स्वाद बदलना चाहोगे।

अक्सर ऐसा होता है, सुंदरतम पत्‍नीवाला व्यक्ति भी साधारण नौकरानी के प्रेम में पड़ जाता है। दूसरों को हैरानी होती है; क्योंकि दूसरे साक्षी है कि यह क्या हो रहा है। ऐसी सुंदर स्‍त्री जो कि खोजनी मुश्‍किल है, उसे छोड़कर एक बदशकल नौकरानी! क्या हो गया है इस आदमी को? स्वाद बदल रहा है। ऊब गया है! सौंदर्य भी उबा देता है। एक सुंदर सी को भी कब तक देखते रहोगे! थोड़ी देर में सिर पीटने लगोगे। अच्छे से अच्छा गीत भी कितनी बार सुनोगे! सिर घूमने लगेगा। कहोगे कि अब बंद करो। अगर फिर भी गीत बजता ही जाये, तो नारकीय हो जाये।
मन किसी चीज को सतत सह ही नहीं सकता। सुख को भी नहीं सह सकता है। इसलिए जब भी सुख होता है, तत्क्षण मन दुख पैदा करता है। उससे स्वाद बदलता है। फिर तुम तैयार जाते हो सुख झेलने के लिए। तुम शांत भी नहीं बैठ सकते थोड़ी देर; मन जल्दी ही अशांति पैदा कर लेगा; क्योंकि शांति भी उबाने लगती है।

बर्ट्रेड रसेलने लिखा है कि मैं मोक्ष जाना पसंद न करूंगा; क्योंकि मैंने सुना है कि मोक्ष में सिद्धशिला पर लोग बैठे हुए है अनंत काल से। कुछ करने को भी नहीं है वहां; क्योंकि करने का मतलब संसार। महावीर स्वामी क्या करते होगे? बैठे हैं सिद्धशिला पर। कितने दिन से बैठे हैं। और कब तक बैठना है, इसका भी कोई अंत नहीं। और काम भी नहीं है। अखबार भी नहीं छपते वहां कि सुबह से बैठकर पढ़ो। कोई खबर भी वहां नहीं घटती; क्योंकि खबरें तो गलत जगह घटती है। नर्क में बहुत घटती हैं। यहां से भी ज्यादा घटती हैं। वहां दिन में कम से कम दस बारह ऐडीशन अखबार के निकालने पड़ते होंगे, क्योंकि वहां घटता ही रहता है; मार—पीट, काट चलती ही रहती है। स्वर्ग में कुछ घट ही नहीं रहा; सब अपनी—अपनी सिद्धशिला पर बैठे हैं।

बर्ट्रेड रसेल ने लिखा है, इससे मन ऐसा घबड़ाता है कि इससे तो नर्क ही बेहतर है। मन ठीक कह रहा है। लेकिन बर्ट्रेड रसेल को पता नहीं कि मन जब तक हो, तब तक कोई मोक्ष नहीं जाता। मन तो यहीं छूट जाता है, जो बदलाहट मांगता है। मोक्ष तो वही जाता है जिसका मन न रहा। मोक्ष तो वही जाता है जो सतत है।

तुम्हारे भीतर सतत तुम क्या झेल सकोगे? न तो सुख तुम सतत झेल सकते हो, क्योंकि उससे भी उत्तेजना होती है; न तुम दुख सतत झेल सकते हो, क्योंकि उससे भी उत्तेजना होती है। तुम सिर्फ शांत हो सकते हो सतत; क्योंकि वह उत्तेजना की अवस्था नहीं है। वह दोनों के ठीक मध्य में और दोनों के पार है।

 

मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर मेहमान था। उसका बेटा खाना खा रहा था। पहले वह बायें हाथ से खा रहा था, थोड़ी देर में उसने दायें हाथ से खाना शुरू कर दिया। मैं थोडा चौका। फिर मैंने देखा कि उसने फिर बायें हाथ से शुरू कर दिया। नसरुद्दीन ने कहा : ‘हजार बार तुझसे कहा लड़के कि दायें हाथ से खाना खा; बायें हाथ से मत खा।’ लड़के ने कहा : ‘क्या फर्क पड़ता है; मुंह बिलकुल दोनों के बीच में हैं—चाहे इधर से खाओ, चाहे उधर से खाओ। यात्रा बराबर करनी पड़ती है। मुंह बिलकुल मध्य में हैं।’

सुख और दुख के मध्य में खोजना किसी बिंदु को, वही सतत हो सकता है। ठीक मध्य में संतुलन है, सम्यकत्व है। वहां न यह अति है, न वह अति है। जैसे तराजू होता है, वह जो मध्य में काटा है बीच में थिर—वही तुम हो सकते हो। इस पर वजन पड़ा थोड़ी देर में थक जाओगे तो दूसरे तरफ वजन डालना पड़ेगा। जैसे लोग मरघट ले जाते है अर्थी को रखकर कंधे पर तो रास्ते में कंधा बदलते हैं—एक कंधा दुखने लगता है, दूसरे पर रख लेते हैं। कुछ वजन कम नहीं होता, लेकिन कंधा बदलने से राहत मिलती है। फिर थोड़ी देर में यह कंधा दुखने लगता है, दूसरे पर रख लेते है।

सुख—दुख तुम्हारे कंधे है और कर्ता का भाव तुम्हारी अर्थी है, जिसको तुम बदलते रहते हो। कभी सुख के साथ जुड़ जाते हो, कभी दुख के साथ जुड़ जाते हो। साक्षी बनो! मध्य में ठहर जाओ। तब तुम सतत रह पाओगे। बुद्धत्व सतत रह सकता है, क्योंकि वह शांत अवस्था है। वहां आनंद तो है, लेकिन वह आनंद सूरज की प्रगाढ़ किरणों की भांति नहीं है; चांद की शांत किरणों की भांति है। वहां आनंद तो है लेकिन जलती हुई अग्रि की भांति नहीं, शांत आलोक की भांति है। उस में कोई तनाव नहीं है। उसमें कोई बेचैनी नहीं है।

तुमने खयाल किया कि सुखी आदमी अकसर हार्ट फेल से मर जाते है। कभी बहुत सुख जा आये, लाटरी एकदम से आ जाये—न मिले तो मुसीबत, मिल जाये तो मुसीबत—एक दम से लाटरी मिल जाये कि तुम गये। मैने सुना है कि एक आदमी को लाटरी मिल गयी दस लाख रुपये की। पत्नी को खबर मिली। पली बहुत घबडायी क्योंकि वह अपने पति को जानती है कि अगर दस पैसे मिल जायें तो हार्ट फेल हो जाये। दस लाख रुपये! पति बाहर थे। वह भागी पड़ोस में गयी। एक मंदिर के पुजारी को उसने पक्का, क्योंकि उसे वह ज्ञानी समझती थी। उसने कहा. ‘ भैया, कुछ मेरी सहायता करें। पति घर आये, उसके पहले कुछ जमाओ। दस लाख रुपये की लाटरी मिल गई है! ‘ उसने कहा ‘मत घबड़ा। ढंग से हम समझा लेंगे। मात्रा—मात्रा में काम करना पड़ेगा। आने दे पति को, मैं आता हूं।’

पुजारी जाकर बैठ गया। पति आया। पुजारी ने सोचा कि दस लाख बहुत ज्यादा हो जायेगा, एक लाख से शुरू करें। धीरे— धीरे चोट करने से ठीक रहेगा। तो उसने कहा : ‘सुनो, एक लाख रुपये लाटरी में मिल गये हैं! ‘वह आदमी बोला. ‘सच! अगर एक लाख मिला तो पचास हजार तुम्हारे मंदिर को दान।’ पुजारी का वहीं हार्ट फेल हो गया। उसने कभी सोचा ही नहीं था—पचास हजार!

सुख भी मार डालता है। दुख तो मारता ही है, सुख भी मार डालता है; क्योंकि दोनों में एक उत्तेजना है। और जहां उत्तेजना है वहां चीजें टूट जाती है। सतत तो वही रह सकता है जो तुम्हारा अनुत्तेजित स्वभाव है। जिसे साधना न पड़े, वही सतत रह सकता है। जो सदा बिना साधे तुम्हारे भीतर है वही सतत रह सकता है। जिसे तुम छोड़ भी नहीं सकते, वही सतत रह सकता है।

इसलिए सारे धर्म की खोज स्वभाव की खोज है। स्वभाव की खोज धर्म है; क्योंकि वह शाश्वत है, उससे तुम कभी न ऊबोगे क्योंकि वह तुम ही हो। उससे अलग होने का उपाय ही नहीं है। उसके पार खड़े होकर देखने का उपाय नहीं। जिससे भी तुम दूर खड़े होकर देख सकते हो, उससे तुम ऊब जाओगे; वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है।

मंत्र जब मन को मार डालेगा; मंत्र के द्वारा मन जब आत्महत्या कर लेगा, तब तुम्हारे भीतर उस सतत झरने का प्रवाह शुरू होगा। और जैसे ही यह सतत झरना पैदा होता है, और सुख—दुख बाह्य वृत्तियों से विमुख, वह केवली हो जाता है। तब वह अकेला है। अब वह अकेले धुन में मस्त है। अब उसे कुछ भी नहीं चाहिए। अब सब चाह मर गयी। क्योंकि सुख भी बाहर है, दुख भी बाहर है। अब न तो वह सुख की चाह करता है, न दुख से बचने की चाह करता है। जो बाहर है, उससे उसका संबंध ही छूट गया। अब तो वह अपने भीतर थिर है और भीतर सतत आनंदित है, इसलिए चाह का कोई सवाल नहीं। अब वह सतत अपनी चेतना में रमता है। उसका सच्चिदानंद अब निरंतर चलता रहता है। वह उसकी श्वास—श्वास में, होने के कण—कण में व्याप्त है।

‘और उनसे विमुक्त वह केवली हो जाता है।’

‘उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा—शून्यता के कारण जन्म मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है, फिर न कोई जन्म है, न फिर कोई मरण है। जन्म और मरण सुख की खोज की यात्रा में हैं। हम चाहते हैं सुख। सुख मिल सकता है केवल शरीर से, तो शरीर ग्रहण करना पड़ता है। जैसा सुख हम चाहते है, वैसा शरीर हम ग्रहण कर लेते है। फिर सुख की आकांक्षा मरते क्षण भी बनी रहती है। मरते जाते हैं, लेकिन सुख की आकांक्षा बनी रहती है। वही आकांक्षा बीज बन जाती है नये जन्म का।

जब एक वृक्ष मरने लगता है, तो क्या करता है? मरने के पहले वृक्ष अपनी सारी जीवन—ऊर्जा को इकट्ठा कर के बीज में संग्रहीत कर देता है। बीज उस वृक्ष की आकांक्षा है कि मैं फिर भी रहूंगा। और बीज बड़ी अदभुत घटना है! क्योंकि वृक्ष इतना बड़ा है, लेकिन अपने सार—संचय को वह निचोड़कर अपने बीज में रख देता है। और उस बीज को यात्रा पर भेज देता है। यह वृक्ष तो मर जायेगा। यह देह तो गिरेगी, लेकिन नयी देह का उसने इंतजाम कर लिया। और इसलिए तुम देखो, एक वृक्ष एक बीज से पैदा होता है। लेकिन मरते वक्त, मरने के पहले एक वृक्ष करोड़ों बीज छोड़ जाता है—क्योंकि क्या भरोसा एक बीज न पहुंच पाये ठीक भूमि तक! पत्थर पर गिर जाये! पानी न मिले! जानवर खा जायें! कोई रौद डाले! इतना खतरा वृक्ष मोल नहीं ले सकता। एक के साथ तो खतरा रहेगा, बचे न बचे। इसलिए करोड़ बीज पैदा करता है। और हजार उपायों से बीज को ऐसी जगह भेजता है कि जहां उसको ठीक भूमि मिल जाये।

तुम देखो! सैमर का फूल देखा है? सैमर के वृक्ष की एक खूबी है कि उसके नीचे कोई पौधा पैदा नहीं हो सकता। इसलिए सैमर अपने बीज में रुई लगा देता है, ताकि कोई बीज नीचे न गिर पाये—क्योंकि नीचे हीरा तो मर जायेगा। तुम यह मत समझ लेना कि रुई तुम्हारे तकियों—गद्दों में भरने के लिये सैमर लगाता है, रुई लगाता है सैमर अपने बीज को पंख देने के लिए, ताकि हवा के झोकों में वह दूर चला जाये। एक बात पकी कर लेता है कि नीचे न गिर पाये बस, कहीं भी गिरे, यहां न गिर पाये; क्योंकि नीचे सैमर के कोई भी वृक्ष पैदा न हो पायेगा। सैमर सारे पानी को चूस लेता है।

बड़े वृक्ष के नीचे पैदा होना मुश्किल भी है। इसलिए सभी वृक्ष अपनी—अपनी तरकीबें खोज लेते हैं। तुम इनको इतना आसान न समझना। वे सब काफी कुशल और चालाक हैं। तुम उनको सीधा—सादा मत समझना! संसार में कोई सीधा—सादा हो ही नहीं सकता। सीधा—सादा हुआ कि मोक्ष! यहां तो तिरछा ही हो सकता है। तिरछा होना यहां होने की शर्त है। वही यहां योग्यता है।

तो वृक्ष हजार…। अगर तुम वृक्षों के सम्बंध में अध्ययन करो तो तुम चकित हो जाओगे कि कैसी कैसी तरकीबें वृक्ष खोजते है। तितलियों के सहारे…… तितलियों को आकर्षित करते हैं। तितलियां सोचती होंगी कि शायद यह जो मधुर रस बह रहा है, वह उनके लिए है तो भ्रांति में हैं। उनको केवल रिश्वत दी जा रही है। वृक्ष उनके पैरों में, पंखों में अपने बीज को लगाकर भेज रहा है। हजार तरकीबें वृक्ष करेगा बचने की। और. जब वृक्ष इतनी तरकीबें करता है, तो तुम कितनी न करते होओगे। तुम्हारी चालाकी का तो कोई अंत नहीं।’

एक मनुष्य, एक पुरुष, अगर उसके पूरे वीर्यकणों का उपयोग करे, तो इस पूरी पृथ्वी पर जितनी जनसंख्या है, एक पुरुष पैदा कर सकता है। एक साधारण पुरुष अपने जीवन में — साधारण, न ब्रह्मचारी, न व्यभिचारी, दोनों के मध्य में जो साधारण है — कम से कम चार हजार बार संभोग करता है। एक संभोग में कोई दस करोड़ जीवाणु, दस करोड़ बीज, एक संभोग में स्खलित होते हैं। अगर उसके सभी बीज सफल हो जायें — जो कि किसी दिन हो सकता है, अब तक तो नहीं हो सकता था, क्योंकि स्‍त्री की सीमा है, क्षमता है, और उसको नौ महीने लगेंगे। एक बीज पड़ेगा तो एक सी बहुत से बहुत बारह, पंद्रह, बहुत, से बहुत चौबीस बच्चे पैदा कर सकती है। इसलिए सीमा है। इसलिए सम्राट हजारों रानियां रख लेते थे ताकि वह सीमा तोड़ दी जाये।

लेकिन अब वैज्ञानिक उपायों से यह संम्भव हो गया है कि हम एक ही व्यक्ति के वीर्यकणों को सारी दुनिया की स्रियों को दे दें, इन्सेक्ट कर दें। इस बात की बहुत सम्भावना है, क्योंकि वैज्ञानिक जब सुझाव देते हैं, उनके सुझाव कितने ही खतरनाक हों, थोड़े बहुत दिनों में स्वीकृत हो जाते हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि सभी लोगों को बच्चे पैदा करने का हक नहीं होना चाहिए। आइंस्टीन जैसा कोई आदमी, जिसके पास ऐसी प्रतिभा है, उसके बीज का उपयोग करो। ठीक है। जब बागबानी में तुम इतनी कुशलता बताते हो, बीज चुनते हो तो आदमी की बागबानी में क्यों न बीज को! बागबान देखता है, अच्छे से अच्छा बीज खोजकर लाता है। हर कुछ रही नहीं बो देता है। तो आज नहीं कल दुनिया में सभी लोगों को बच्चे पैदा करने का हक नहीं रह जानेवाला। थोड़े से लोग जिनको वैज्ञानिक तय करेंगे, — स्वास्थ्य में, बुद्धि में, प्रतिभा में, उम्र में — उनका बीज उपयोग में लाया जायेगा। और उसके पैकेट मिल सकेंगे। उसको तुम ले आ सकते हो। तब एक ही आदमी पूरी पृथ्वी को भर दे, इतने बीज पैदा करता है। यह भी जीवन—आकांक्षा है।

तुम हैरान होओगे—कही तुमने यह पढ़ा न होगा, क्योंकि कहीं यह लिखा हुआ नहीं है अब तक—कि जैसे ही कोई व्यक्ति सुख—दुख के बाहर हो जाता है, केवली हो जाता है, उसके भीतर वीर्य का पैदा होना बंद हो जाता है। वही ठीक ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकता है, जिसके भीतर वीर्य का पैदा होना बंद हो गया। लेकिन वह तभी हो सकता है—वीर्य का पैदा होना बंद—जब सारी आकांक्षा जन्म की खो गयी हो। जब तक जन्म की आकांक्षा है कि मैं बचूं किसी भी रूप में बचूं यह शरीर खो जाये तो कोई हर्ज नहीं, दूसरे शरीर में रहूं लेकिन रहूं, जीवेषणा जब तक है तब तक शरीर पैदा करता जाता है वीर्यकणों को।

इधर शरीर भी जीयेगा, उधर तुम्हारी आत्मा भी वासनाग्रस्त, नये गर्भ की खोज करती रहेगी। तुम तभी तक भटकोगे, जब तक तुम सुख और दुख के साथ अपने को एक समझे हो। तब तक तुम पूरी कोशिश करोगे कि दुख न हो और सुख हो। और मैं और—और सुख की यात्रा करूं, और—और सुख खोजूं। तुम्हारे सपने तुम्हें नये जन्मों में ले जायेंगे।

‘उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा—शून्यता के कारण जन्म—मरण का पूर्ण क्षय हो. जाता है, वह जन्मता नहीं, और जो जन्मता नहीं उसके मरण का कोई कारण नहीं। जन्मोगे तो मरोगे। जन्म का ही दूसरा पहलू मरण है। वह जन्म के ही सिक्के पर है—एक तरफ जन्म और दूसरी तरफ मृत्यु है। इधर तुम जन्मे, उधर तुम मरेने। लेकिन जिसे मृत्यु से मुक्त होना है, उसे जन्म से मुक्त होना पडेगा।

मृत्यु से तो सभी मुक्त होना चाहते हैं। लेकिन जन्म से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। यही हमारी कठिनाई है। दुख से सभी मुक्त होना चाहते है, सुख से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। जिस दिन तुम सुख से मुक्त होना चाहते, उस दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति घटी; उस दिन तुम धार्मिक हुए।

मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा समुद्र की यात्रा पर गया। पहली ही दफा जहाज में सवार हुआ। बड़ा बीमार हो गया—उलटी, वमन, चक्कर! और एक दिन सुबह इतना घबरा गया! तूफान भंयकर था और जहाज करवटें ले रहा था और वह लोट रहा था। उसने अपनी पत्नी को कहा कि सुन, सारी सम्पत्ति तेरे नाम से लिख छोड़ी है और मेरी वसीयत बैंक में रखी है। सब हिसाब—किताब वहां है। और मुझे दूसरे किनारे पर दफना देना। चाहे मैं मरूं या न; क्योंकि जिंदा या मुर्दा, यह यात्रा अब दुबारा नहीं कर सकता हूं। जिंदा या मुर्दा यह यात्रा अब दुबारा नहीं कर सकता हूं। तुम मुझे वहीं दफना आना, बाकी सब बैंक में है, वह तुम सम्हाल लेना।

जिस दिन तुम्हें जिंदगी ऐसी बेहूदी दिखायी पड़ने लगेगी, पूरी यात्रा इतनी व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगी कि जिंदा या मुर्दा—तुम कोई भी हालत में—इस यात्रा पर वापस न आना चाहोगे; जिस दिन तुम्हें यह जिंदगी मृत्यु से बदतर दिखाई पड़ने लगेगी—और यह है—उसी दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति होगी। अभी तुम धर्म में भी उत्सुक होते हो तो वह भी सुख की ही खोज के लिए। इसलिए तुम्हें धर्म कभी मिल नहीं पाता।

धर्म में तुम्हारी उत्सुकता वास्तविक तभी होगी, जब तुम इस जीवन की यात्रा पर किसी भी स्थिति में जाने को राजी नहीं हो। तुमने सब देख लिया और तुमने सब व्यर्थ पाया। तुमने सुख देख लिये और पाया कि वे भी पीड़ा से भर जाते हैं। और तुमने दुख देख लिये और पाया कि वे भी पीड़ा से भर जाते हैं। दुख तो दुख हैं ही, यहां सुख भी दुख है, यहां जो मीठा लगता है, वह भी जहर है। यहां जहर तो जहर है ही, अमृत की जो घोषणा है, वह भी जहर को ही छिपाने की तरकीब है। जिस दिन तुम्हें सब व्यर्थ हो गया, सब बाहर है और सब सारहीन है, उसी दिन तुम्हारे जीवन में धर्म का जन्म होगा।

ध्यान रहे, अपने मन में साफ—साफ खोजना कि तुम धर्म में उत्सुक सुख के लिए हो? — तो तुम उत्सुक ही नहीं हो। धर्म में उत्सुकता तो सच्ची तभी है जब तुम शांति के लिए, सुख के लिए नहीं, शांति के लिए उत्सुक हो। सुख भी व्यर्थ, दुख भी व्यर्थ; अब तुम दोनों से छुटकारा चाहते हो।

उस कैवल्य अवस्था में आरूढ़ हुए योगी की अभिलाषा—शून्यता के कारण, अब उसकी कोई वासना नहीं। अब वह किसी यात्रा पर नहीं जाना चाहता। यात्रा मात्र व्यर्थ हो गयी। जन्म—मरण का पूर्ण क्षय हो जाता है।

’ऐसा भूतकंचुकी विमुक्त पुरुष परम शिवरूप हो जाता है।’ वही ब्रह्म है, वही परमात्मा है। ऐसा भूतकंचुकी—यह शब्द बड़ा प्यारा है।


भूतकंचुकी का अर्थ है—पांचों तत्व, जिनसे शरीर बना है, उसके लिए वस्त्र जैसे हो गये, भूतकंचुक हो गये। जिसके लिए शरीर, मन—क्योंकि दोनों हो पंच भूतों से बने है; यह स्थूल पंच भूतों से जो बना है, वह शरीर और, जो हस सूक्ष्म पंच तन्मात्राओं से बना है, वह मन—ये दोनों एक के ही सूक्ष्म और स्थूल रूप है—ये दोनों ही जब वस्रों जैसे हो गये, और उसने अपने को पहचान लिया, जो इन बसों के भीतर छिपा है; जिसने प्याज को पूरा खोल लिया, भीतर के शिवत्व को शून्यत्व को जान लिया, ऐसा भूतकंचुकी विमुक्त पुरुष स्वयं परमात्मा हो जाता है।

हम इस देश में किसी एक परमात्मा में भरोसा नहीं करते कि कोई एक परमात्मा आकाश में बैठा है और सब को चला रहा है। नहीं; हम इस देश में, सभी जीवन—यात्राओं का अंत परमात्मा में होता है, ऐसा भरोसा करते हैं। यहां सभी खिलते—खिलते परमात्म—रूप हो जाते हैं। परमात्मा कोई स्थिति नहीं है, सभी का भविष्य है।

इस बात को थोड़ा गहराई में समझ लो।
दुनिया में दूसरे धर्म हैं, जो भारत के बाहर पैदा हुए—ईसाइयत, यहूदी, इस्लाम, वे तीन बड़े धर्म भारत के बाहर रौदा हुए हैं। तीन बड़े धर्म भारत में पैदा हुए हैं—हिंदू, बौद्ध, जैन। इन दोनों के बीच एक बुनियादी फर्क है। और वह बुनियादी फर्क है कि यहूदी, ईसाई और इस्लाम परमात्मा को पीछे देखते हैं—आदि कारण की तरह—जिसने जगत को बनाया। हम परमात्मा को आगे देखते हैं—अंतिम फल की तरह। इससे बड़ा फर्क पड़ता है। परमात्मा भविष्य है, अतीत नहीं। परमात्मा बीज नहीं है, फूल है। इसलिए हमने बुद्धों को फूल पर बिठाया है—कमल का फूल, सहस्रदल जिसके खिल गये हैं।

अगर परमात्मा पीछे है, दुनिया को उसने बनाया, तो वह एक है। तब दुनिया एक तरह की तानाशाही होगी। और इस दुनिया में मोक्ष घटित नहीं हो सकता; क्योंकि स्वतंत्रता कैसी जब तुम बनाये गये हो। बनाये हुए की कोई स्वतंत्रता होती है? जिस दिन बनानेवाला मिटाना चाहेगा, मिटा देगा। जब वह बना सका तो मिटाने में क्या बाधा पड़ेगी? तब तुम खेल—खिलौने हो, कठपुतलियां हो। तब तुम्हारी आत्‍मा और स्वतन्‍त्रता का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए हम परमात्मा को स्रष्टा की तरह नहीं देखते, हम परमात्मा को अंतिम निष्पत्ति की तरह देखते हैं। वह तुम्हारा अंतिम विकास है।

तो परमात्मा विकास का प्रथम चरण नहीं, अंतिम शिखर है। वह गौरीशंकर है। वह कैलाश है। वह आखिरी शिखर है जहां सभी चेतनाएं अंततः पहुंच जायेगी, जिस तरफ सभी की यात्रा चल रही है। देर—अबेर सभी को वहां पहुंच जाना है। तुम रोज—रोज हो रहे परमात्मा हो।

तो परमात्मा कोई एक घटना नहीं है जो घट गयी; परमात्मा एक प्रवाह है जो प्रतिपल घट रहा है। परमात्मा प्रति क्षण हो रहा है। वह तुम्हारे भीतर बढ़ रहा है। तुम परमात्मा के गर्भ हो।

इसलिए यह शिव—सूत्र पूरा होता है इस अंतिम बात पर। यहीं सारे शास्त्र पूरे होते हैं। तुमसे शुरू होते हैं, परमात्मा पर पूरे होते हैं। तुम जैसे अभी हो, वह पहला चरण है; तुम जैसे अंततः हो जाओगे, वह अंतिम चरण है। बीज की तरह तुम हो, वह तुम्हारा भटकाव है, वृक्ष की तरह तुम जब खिल जाओगे अपनी समग्रता में, वह तुम्हारी निष्पत्ति है, वह तुम्हारा फुलफिलमेंट है; तुम्हारा आप्तकाम—होना है, सब पूरा हो गया।

फूल जब खिलता है तो वृक्ष के प्राण पूरे हो गये। उसके खिलने में वृक्ष ने अपनी पूरी सुगंध पा ली। वृक्ष जिस चीज के लिए पैदा हुआ था, वह घटित हो गया। फूल के खिलने के साथ वृक्ष एक नृत्य से भर जाता है। उसका रोआं—रोआं पुलकित है। वह व्यर्थ नहीं गया, सार्थक हुआ, फलीभूत हुआ; सुगंध, सौंदर्य उसमें खिल गये!

और जब एक वृक्ष एक फूल के खिलने पर इतना आनंदित होता है, जो कि क्षणभर टिकेगा और गिर जायेगा; जो फूल अभी खिला और सांझ के पहले मुरझा जायेगा! कितना आनंद है कि जब कोई वर्धमान ‘महावीर’ होता है—जब फूल खिलता है, जब कोई गौतम सिद्धार्थ ‘बुद्ध’ होता है—जब फूल खिलता है! और ऐसा फूल जो कभी नहीं मुरझायेगा, उस फूल को ही हम शिवत्व कहते हैं। वही परमात्मा है।

 

मंत्र का उपयोग करना, ताकि तुममें जो व्यर्थ है, वह कट जाये और तुममें जो सार्थक है, वह निखर आये। मंत्र का उपयोग करना, जिससे कि जैसे तुम हो, वह टूट जाये, बिखर जाये भूमि में और तुम जो हो सकते हो, वह अंकुरित हो जाये।

तुम्हारे भीतर परमात्मा को छिपाये तुम चल रहे हो; सम्हाल कर चलना, सावधानी से चलना। जैसे गर्भणी सी संभल कर चलती है, वैसा साधक संभलकर चलता है। क्योंकि तुम्हारे ही जीवन का सवाल नहीं है, तुम्हारे भीतर सारे अस्तित्व ने दांव लगाया है। सारा अस्तित्व तुम्हारे भीतर खिलने को आतुर है। उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है, बहुत सावधानी से, संभलकर, होशपूर्वक एक—एक कदम रखना, क्योंकि तुमसे परमात्मा का जन्म होना है।

आज इतना ही।
शिव सूत्र—समाप्‍त
ओशो

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शिव सूत्र – 09. साधो, सहज समाधि भली!

साधो, सहज समाधि भली!—(प्रवचन—नौवां)

दिनांक 19 सितंबर, 1974; प्रात: काल, श्री रजनीश आश्रम, पूना।


सूत्र:
कथाजप:।
दानमात्मज्ञानमू।
योऽविपस्थोज्ञाहेतुक्ष्च।
स्वशक्तिप्रचयोऽस्थविश्वमू।
स्थितिलयौ।

वे जो भी बोलते हैं वह जप है। आत्मज्ञान ही उनका दान है। वह अंतदशक्तियों का स्वामी है और ज्ञान का कारण है। स्वशक्ति का प्रचय अर्थात् सतत विलास ही इसका विश्व है। और वह स्वेच्छा से स्थिति और लय करता है।


प्रार्थना, क्या तुम कहते हो, उस पर निर्भर नहीं है; वरन् क्या तुम हो, उस पर निर्भर है। पूजा, क्या तुम करते हो, उससे संबंधित नहीं है, बल्कि क्या तुम हो, उससे ही संबंधित है। धर्म का संबंध कृत्य से नहीं है; अस्तित्व से है। तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर प्रेम है, तो तुम्हारी परिधि पर प्रार्थना होगी। तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर अहर्निश शांति है, तो तुम्हारे बाहर के केंद्र पर ध्यान होगा। तुम्हारे भीतर के केंद्र पर अगर पल-पल होश है, तो तुम्हारा पूरा जीवन तपश्‍चर्या होगा। इससे उलटा नहीं है।

परिधि को बदलने से केंद्र नहीं बदलता। केंद्र की बदलाहट से परिधि अपने-आप बदल जाती है; क्योंकि परिधि तुम्हारी छाया है। छाया को बदलकर कोई स्वयं को नहीं बदल सकता; लेकिन स्वयं बदल जाए तो छाया अपने-आप बदल जाती है। यह जान लेना बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अधिक लोग परिधि को बदलने में ही जीवन नष्ट कर देते हैं। आचरण को बदलने में सब कुछ दांव पर लगा देते हैं; जब कि आचरण बदल भी जाये तो भी कुछ बदलता नहीं। तुम आचरण को कितना ही बदल लो, तुम ‘तुम’ ही रहोगे – चोरी करते थे, साधु हो जाओगे; धन इकट्ठा करते थे, बांटने लगोगे, लेकिन तुम ‘तुम’ ही रहोगे। और धन का मूल्य तुम्हारी आंखों में वही रहेगा; जो चोरी करते समय था, वही मूल्य दान करते समय रहेगा। चोरी करते समय तुम समझते थे कि धन बहुत कीमत का है, दान देते वक्त भी तुम समझोगे कि धन बहुत कीमत का है। धन मिट्टी नहीं हुआ, नहीं तो मिट्टी को कोई दान देता है!

अगर धन सच में ही मिट्टी हो गया, तो तुम अपने कूड़े-कर्कट को दूसरे को देने जाओगे? और अगर कोई ले लेगा तुम्हारा धन, तो क्या तुम समझोगे कि तुमने उसे अनुगृहीत किया? क्या तुम चाहोगे कि वह तुम्हें लौटकर धन्यवाद दे, अगर धन सच में ही व्यर्थ हो गया, तो जो तुम्हारा धन स्वीकार कर ले, तुम ही उसके अनुगृहीत होओगे। तुम सोचोगे कि धन्यभाग मेरे, इस आदमी ने कचरा लिया, इनकार न किया। लेकिन दानी ऐसा नहीं सोचता। एक पैसा भी दे देता है, तो उसका प्रतिकार चाहता है।

एक मारवाड़ी की मृत्यु हुई। उसने सीधा जाकर स्वर्ग के द्वार पर दस्तक दी। और उसे पक्का भरोसा था कि द्वार खुलेगा; क्योंकि उसने दान किया था। द्वार खुला भी। द्वारपाल ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा; क्योंकि स्वर्गों में कृत्यों की पहचान नहीं है, व्यक्ति सीधे देखे जाते हैं। और द्वारपाल ने पूछा कि शायद भूल से आपने यहां दस्तक दे दी। वह जो सामने का दरवाजा है नरक का, वहां दस्तक दें।

मारवाड़ी नाराज हुआ। उसने कहा. ‘क्या खबर नहीं पहुंची। कल ही मैंने एक बूढ़ी औरत को दो पैसे दान दिये हैं। और उसके भी एक दिन पहले एक अंधे अखबार बेचनेवाले लड़के को मैंने एक पैसा दिया है।’ जब दान का दावा किया गया, तो द्वारपाल को खाता—बही खोलना पड़ा। अपने सहयोगी को उसने कहा कि देखो। वहां तीन पैसे उस मारवाड़ी के नाम लिखे थे। द्वारपाल चिंता में पड़ा। पूछा : ‘कुछ और कभी किया है?’ मारवाड़ी ने कहा— ‘और तो अभी इस समय कुछ याद नहीं आता।’ किया होता और याद न आता! जिसको तीन पैसे याद रहे, उसने किया होता और, याद न आता! खाता—बही खोजा गया, बस वे तीन पैसे ही नाम लिखे थे। उन्हीं तीन पैसे के बल वह स्वर्ग के द्वार दस्तक दिया था, अक्ल के साथ।
द्वारपाल ने अपने साथी से पूछा : ‘क्या करें इसके साथ?’ उसके साथी ने खीसे से तीन पैसे निकाले और कहा कि इसको दे दो और कहो कि सामने के दरवाजे पर दस्तक दो।

पैसों से कहीं स्वर्ग का द्वार खुला है! तुम चाहे पकड़ो पैसा और चाहे छोड़ो, दोनों ही हालत में मूल्य रूपांतरित नहीं होता। तुम चाहे संसार में रहो, चाहे भाग जाओ, संसार का मूल्य वही का वही बना रहता है। तुम पीठ करो कि मुंह, यात्रा में बहुत भेद नहीं पड़ता—जब तक कि तुम केंद्र से बदल न जाओ।

आचरण नहीं, अंतस् की क्रांति चाहिए। और जैसे ही अंतस् बदलता है, सभी कुछ बदल जाता है। ये सूत्र अंतस् की क्रांति के सूत्र है। एक—एक सूत्र को अति ध्यानपूर्वक समझने की कोशिश करें। उनका कण भी तुम्हारे भीतर गिर गया, तो वह चिंगारी की तरह होगा। और अगर तुम्हारे भीतर थोड़ी भी सूखी बारूद है, तो जल उठेगी। और अगर तुमने सारी बारूद को गीली कर रखा है, तो चिंगारियां पड़ती है और बुझ जाती है।

तुम्हारी कठिनाई यह नहीं कि तुम्हें सत्य नहीं सुनने को मिलता। तुम सत्य को भी बुझाने में कुशल हो। तुम्हारे भीतर सब बारूद गीली है। अंगारा भी पड़ जाये, तो अंगारा ही बुझता है, बारूद नहीं सुलगती। और किस भांति तुमने बारूद को गीला किया है? जितना तुम्हारे पास ज्ञान है, उतनी ही तुम्हारी बारूद गीली है। जितना तुम सोचते हो कि मैं जानता हूं उतनी ही तुम्हारी बारूद गीली है। वह जानने के कारण ही ज्ञान की चिंगारी भी तुम बुझा देते हो। तुम्हारा ज्ञान, ज्ञान की चिंगारी को भी तुम्हारे भीतर नहीं पहुंचने देता; वही द्वार पर खड़ा है। वह बाहर से ही इनकार कर देता है।

तुम अपने ज्ञान में ही बेहोश हो। और ध्यान रहे, ज्ञान से ज्यादा बड़ी शराब खोजनी मुश्किल है; क्योंकि उससे ज्यादा सूक्ष्म अहंकार किसी और चीज से नहीं मिलता। धन भी इतना अहंकार नहीं दे सकता; क्योंकि धन चोरी जा सकता है, सरकार बदल सकती है, कम्‍युनिस्ट आ सकते है, कुछ भी हो सकता है। धन का कोई पक्का भरोसा नहीं है। लेकिन ज्ञान चोरी नहीं जा सकता, कोई छीन नहीं सकता। तुम्हें कारागृह में भी डाल दिया जाये, तो भी तुम्हारा ज्ञान तुम्हारे साथ जायेगा। इसलिए धनी में भी वैसी अकड़ नहीं होती, जैसी पंडित में होती है। और वह अकड़ ही तुम्हारे भीतर बारूद को गीला रखती है। उस अक्ल को छोड़ दो, तुम्हारी बारूद सूख जाएगी। तब एक चिंगारी भी तुम्हें बदलने में सफल हो जाती है; क्योंकि बहुत आग की जरूरत नहीं है। बारूद जलती हो, तो एक चिंगारी से ही जल जाएगी। जल सकती हो, एक चिंगारी काफी है। न जल सकती हो, तो आग भी लग जाये तो भी न जलेगी।

ये सूत्र चिंगारियों की तरह हैं। इन्हें अपने ज्ञान को हटाकर समझने की कोशिश करना; क्योंकि ज्ञान से समझा तो समझ ही न पाओगे।

पहला सूत्र है : कथा जप:।


वे जो शिवतुल्य हो गये हैं-कल जो हमारा आखिरी सूत्र था-वे जो शिवतुल्य हो गये हैं, वे जो भी बोलते हैं, वही जप है। वे क्या बोलते है, यह सवाल नहीं है। वे जो भी बोलते हैं, वही जप है। क्योंकि उनके हृदय में संसार न रहा, वासना न रही, अंधेरा न रहा, उनका ह्रदय एक प्रकाश है-उस हृदय से अब जो भी आता है, वह जप है। उससे जप के अन्यथा कुछ आ ही नहीं सकता। प्रकाश से अंधकार कैसे आयेगा! प्रेम से घृणा कैसे आयेगी! करुणा से क्रोध कैसे आयेगा! अब उनके भीतर से जो भी आता है, वही जप है।

जीसस का बहुत प्रसिद्ध वचन है कि तुम क्या अपने मुंह में डालते हो, उससे स्वर्ग का राज्य नहीं मिलेगा; क्या तुम्हारे मुंह से निकलता है, उससे स्वर्ग का राज्य मिलेगा। क्या तुम अपने भीतर डालते हो, उससे कुछ तय नहीं होता; क्या तुम्हारे भीतर से बाहर आता है, वही खबर देता है कि तुम कौन हो।

शिवतुल्य जो हो गया है, वह जप नहीं करेगा। जप की कोई जरूरत नहीं; क्योंकि वह जो भी करेगा, वही जप होगा।

कबीर ने कहा है : उठूं, बैठूं परिक्रमा।
कबीर से किसी ने पूछा कि ‘कभी जप करते दिखाई नहीं पड़ते; कब करते हो पूजा? कब करते हो प्रार्थना? लोग कहते है, महा- भक्त हो; लेकिन भक्ति कब करते हो? देखते हैं तुम्हें काम में लगा हुआ; कपड़ा बुनते हो, बाजार बेचने जाते हो; लेकिन कभी तुम्हें ध्यान, पूजा, मंदिर में तो कभी देखा नहीं! ‘तो कबीर ने कहा कि ‘जो भी करता हूं वही मेरी परिक्रमा है; जो भी बोलता हूं वही मेरा जप है। मेरा होना ही मेरा ध्यान है।’

जब भी तुम उत्सुक होते हो ध्यान में, तो तुम क्या करते हो? तुम अपने कृत्यों के जगत का एक छोटा-सा कोना ध्यान को दे देते हो, जबकि ध्यान कृत्य नहीं है। तुम दुकान करते हो, बाजार जाते हो-करना ही पड़ेगा। काम- धंधा, जीवन की चर्या, बाहर कि परिधि पर चलती ही रहेगी। उसी परिधि पर एक कोना तुम ध्यान के लिए भी देते हो। तुम सोचते हो कि चलो बाजार जाने के पहले दो क्षण मंदिर हो आयें।

इस फर्क को खयाल में ले लेना।
तुम जो करते हो उसी में तुम ध्यान को भी जोड़ लेते हो; और पच्चीस काम करते हो, उसी में एक काम ध्यान है। तुम्हारे संसार में हजार व्यस्ततायें हैं, उसी में ईश्वर भी एक और व्यस्तता है। तब तुम ईश्वर से वंचित रह जाओगे। ईश्वर परिधि पर हो ही नहीं सकता। जहां दुकान है, बाजार है, काम है-वहां से ईश्वर का कोई संबंध नहीं। ईश्वर तुम्हारा अंतस्तल है, जहां तुम हो। काम के जगत में नहीं है वह। तुम्हारा जहां सब काम विश्राम हो जाता है, सिर्फ तुम्हीं बचते हो; जहां कोई कर्ता नहीं बचता, जहां सिर्फ साक्षी बचता है-वही उसका घर है।

ईश्वर तुम्हारे एक अंग को नहीं घेरेगा वह महान है, विराट है, तुम पूरे ही उससे घिरोगे तो ही तुम्हें घेर पाएगा। तुमने अगर कहा कि कुछ थोड़ा-सा समय तुझे भी देंगे, तो तुम भटकोगे। जिस दिन तुम अपने को पूरा ही दे दोगे…। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम कोई काम न कर पाओगे। तुम काम और भी भली- भांति कर पाओगे; लेकिन तब तुम्हारे प्रत्येक काम में ईश्वर की धुन बजने लगेगी। तब वह तुम्हारे भीतर होगा-जैसे श्वांस चल रही है। तुम बाजार जाते हो तो तुम श्वांस लेना बंद तो नहीं कर देते। तुम दुकान पर बैठते हो, तब तुम श्वांस लेना बंद तो नहीं कर देते। तुम किसी से बात करते हो, तो तुम श्वांस लेना बंद तो नहीं कर देते। श्वांस कृत्य का हिस्सा नहीं है। तुम सब करते रहते हो, भीतर श्वांस चलती रहती है। ऐसे ही, जब परमात्मा तुम्हारे भीतर का हिस्सा होगा, तुम सब करते रहोगे और उसकी धारा तुम्हारे भीतर अहर्निश बहती रहेगी।

तुम्हारे करने से उसकी कोई प्रतियोगिता नहीं है। वह संसार का हिस्सा नहीं है। करने से संसार बनता है। कृत्य से संसार बनता है। इसलिए हम कहते हैं कि जब तक कोई कर्म में जुड़ा है, तब तक संसार में बना रहेगा; जब अकर्म को उपलब्ध होता है, तब परमात्मा को उपलब्ध होता है।

अकर्म का अर्थ है—तुम्हारा अस्तित्व, जहां करने का कोई सवाल नहीं; जहा तुम सिर्फ हो, तुम्हारा होना मात्र; वहां से तुम जुडो।
शिवतुल्य जो हो गया है, वह जो भी बोलता है, वही जप है। तुम उसे प्रार्थना करते न पाओगे; क्योंकि अब प्रार्थना को अलग से करने की कोई जरूरत न रही। तुम उसे पूजा करते हुए न पाओगे, क्योंकि अब पूजा ‘करने’ का हिस्सा न रही। अब वह स्वयं पूजा है। इसलिए वह जो भी करता है, उसमें अगर तुम गौर से देखोगे, तो सब जगह पूजा पाओगे। वह अगर श्वांस भी लेता है, तो भी जप है। वह अगर हाथ भी हिलाता है, तो पूजा है। वह उठता है, बैठता है, तो पस्किमा है।

शिवतुल्य जो हो गया, उसका सारा आचरण साधना हो जाता है। उसे साधना भी नहीं पड़ता, क्योंकि जिसे साधना पड़ता हो, वह कभी सहज नहीं होगा। और जिसे साधना पड़ता हो, उससे हम कभी न कभी थक जोयेंगे। थकेंगे तो विश्राम करेंगे। विश्राम का अर्थ होगा—विपरीत में चले जाएंगे।

इसलिए अगर तुमने अपनी साधुता को साधा है, तो छह दिन साधोगे, सातवें दिन विश्राम करना पड़ेगा। उस दिन तुम असाधु हो जाओगे। इसलिए तुम्हारे जो साधु हैं, उनके जीवन में असाधुता का क्षण होगा ही; क्योंकि साधुता से भी तुम थक जाओगे। एक दिन तो तुम्हें छुट्टी लेनी ही पड़ेगी। कृत्य को कोई सतन नहीं कर सकता; उससे थकान आएगी। इसलिए साधु भी छुट्टी पर होता है। और अगर वह छुट्टी पर न हो तो तनाव बहुत बढ़ जाएगा।

इसलिए साधु के जीवन में भी असाधुता के क्षण होते हैं; और असाधु के जीवन में भी साधुता के क्षण होते हैं। तुम ऐसा पापी न पा सकोगे, जिसके जीवन में पुण्य का क्षण न हो; क्योंकि वह पाप से थक जाता है, तो विपरीत में विश्राम लेना पड़ता है। और तुम ऐसा पुण्यात्मा न पा सकोगे, जिसके जीवन में पाप का क्षण न हो; क्योंकि वह पुण्य से थक जाता है, तो पाप में विश्राम लेना पड़ता है। हमेशा विपरीत में जाकर डूबना पड़ता है, ताकि मन हलका हो जाए।

संत हम उसे कहते हैं, जिसकी साधुता साधी हुई नहीं है; जिसकी साधुता सहज स्वभाव है। फिर कोई विश्राम नहीं। तुम सांस लेने से तो कभी विश्राम नहीं लेते। तुम होने से तो कभी विश्राम नहीं लेते। जब तक तुम्हारे अंतस् में प्रवेश न कर जाए शिवत्व, तब तक सब ऊपर—ऊपर होगा। जैसे तुमने वस्त्र अच्छे पहन रखे हों और भीतर गंदगी हो; अच्छे वस्त्र कितनी देर छिपायेंगे? और जैसे तुमने सुगंध किक ली हो और भीतर से बदबू उठती हो—उस दुर्गंध को तुम कैसे छिपाओगे? हो सकता है, दूसरों से छिपा भी लो, लेकिन खुद से कैसे छिपाओगे?

इसलिए तुम्हारे साधु प्रसन्न नहीं दिखते, आनंदित नहीं दिखते। दूसरों को साधु दिखते है, खुद को तो वे असाधु दिखते ही रहते है। नृत्य नहीं आता उनके जीवन में। उनके क्रोध में कोई अंतर नहीं पड़ता। भीतर तो वे जलते ही रहते है। तुमसे छिप जाएगा, क्योंकि तुम वस्त्रों को ही देख सकोगे। लेकिन जो आदमी खुद छिपा रहा है, वह कैसे बच सकेगा! उसे तो दिखाई पड़ रहा है। वही दिखाई पड़ना कांटे की तरह चुभता रहता है। और जब तक साधु नाच न सके, तब तक समझना कि उसकी साधुता सम्हाली हुई है। सम्हाला हुआ झूठा होता है; जो सहज हो जाए, वही सत्य है।

इसलिए कबीर बार—बार कहते हैं : ‘साधो, सहज समाधि भली!
सहज समाधि का अर्थ है—जिसे सम्हालना न पड़े। सम्हालोगे तो थकोगे। आज नहीं कल बोझ हो जाएगा। मगर कब ऐसी घटना घटेगी, जब सहज समाधि होगी; जब शिवत्व भीतर अंतस् से आएगा; जब तुम शिवतुल्य हो जाओगे।

और ध्यान रहे यह कोई भविष्य का आदर्श नहीं है। समझ सकी तो इसी क्षण घट सकता है। कृत्य में तो समय लगता है। करना हो तो समय लगेगा। यह तो छलांग है। यह कोई कृत्य नहीं है। यह तो बोध है। इसे करने की जरूरत नहीं, सिर्फ देखने की जरूरत है। यह ऐसे ही है, जैसे किसी आदमी के खीसे में हीरा पड़ा हो और उसे पता न हो और वह सडक पर भीख मांग रहा हो, और तब अचानक कोई उसे याद दिला दे कि तू क्यों भीख मांग रहा है पागल, तेरे खीसे से तो किरणें निकलती मालूम पड रही है, लगता है खीसे में हीरा है। और वह खीसे में हाथ डाले और हीरा बाहर आ जाए। बस, ऐसा है।

तुम्हारे भीतर शिवत्व तो बैठा ही हुआ है। वह तुम्हारा सदा का खजाना है। उसे पाने के लिए देर नहीं करने की जरूरत है, सिर्फ आंख मोड़कर देखने की जरूरत है। अगर वह कहीं भविष्य में होता, तो फिर कठिनाई थी, फिर समय लगता, जन्म—जन्म लगते, पहुंचते। वह तुम्हारे भीतर है। इसलिए शिवत्व को पाना नहीं है, केवल आविष्कृत करना है; सिर्फ उघाड़ना है—जैसे कोई प्याज के छिलकों को उघाड़ता चला जाए। फिर क्या घटता है?—एक—एक छिलका निकलता है, दूसरा छिलका सामने आ जाता है। उघाड़ते ही चले जाओ, उघाडते ही चले जाओ, एक घड़ी आएगी, जब सब छिलके निकल जाएंगे, सिर्फ शून्य हाथ लगेगा। ऐसे ही आदमी के ऊपर छिलके हैं। और शिवत्व तो शून्य जैसा है। इन छिलकों को हम थोड़ा समझ लें, तो उघाड़ने की आसानी हो जाए तो तुम्हारा जीवन भी शिव जैसा हो जाए और तुम्हारा बोलना भी जप हो जाए।

पहली पर्त क्या है? पहली पर्त शरीर की है। और अधिक लोग इस पहली पर्त से ही अपने को एक मानकर जी लेते हैं। वे ऐसे ही है जैसे किसी महल की सीढ़ियों पर बैठकर जी रहे हों, उन सीढ़ियों को ही घर बना लेते है। उन्हें पता ही नहीं कि सीढ़ियां घर नहीं है, सिर्फ घर तक पहुंचने का उपाय है। वे वहीं खाते हैं, पीते हैं, भोजन बनाते हैं, शादी—विवाह करते है, बच्चे पैदा करते है। और उनके बच्चों को तो महल का पता ही न चलेगा, क्योंकि वे सीढ़ियों पर ही पैदा होंगे; वही उनका घर होगा, वे वहीं रहेंगे। वे कभी लौटकर पीछे की तरफ देखते भी नहीं कि ये सीढ़ियां हैं और हम पोर्च में ही जीवन बिता रहे है, महल पीछे है। वे कभी द्वार पर दस्तक भी नहीं देते। और जन्मों—जन्मों से दस्तक नहीं दी है। द्वार करीब—करीब जाम हो गया है। शायद द्वार दीवाल जैसा ही लगने लगा है। अब कुछ पता नहीं चलता, कहां द्वार है।

पहली पर्त है शरीर की और शरीर में ही तुम जी लेते हो। वह एक तादात्‍म्‍य है, जिससे लगता है कि मैं शरीर हूं। शरीर मेरा है, मैं नहीं; और ‘मेरा’ कभी भी ‘मैं’ नहीं हो सकता। जो भी मेरा है, वह मेरे हाथ में हो सकता है लेकिन ‘मैं’ नहीं हूं। तुम्हारा पैर कोई काट दे, तो भी तुम न कटोगे, पैर ही कटेगा। तुम्हारा शरीर अगर होते तुम, तो पैर कट जाने पर तुम्हें लगता कि अब मैं कुछ कम हो गया; एक पैर कट गया, इतना मै कम हो गया। लेकिन पैर कट जाए, आंखें चली जायें, कान खो जायें, हाथ टूट जायें, तुम्हारे पूरेपन में जरा भी अंतर नहीं पड़ता। शरीर अपंग हो जाता है, लेकिन तुम पूरे ही होते हो।

इसलिए शायद कुरूप से कुरूप आदमी भी भीतर अपने को कुरूप नहीं मान पाता; क्योंकि भीतर तो तुम सुंदर ही होते हो। शायद इसीलिए कुरूप से कुरूप आदमी भी राजी नहीं हो पाता कि मैं कुरूप हूं। और पापी से पापी आदमी भी राजी नहीं हो पाता कि मैं पापी हूं। बुरे से बुरा आदमी भी एक भीतरी झलक से भरा रहता है कि मैं शुभ हूं। बुरे से बुरे आदमी को भी तुम गौर से देखो तो वह यही कहता है कि हो गयी भूल, लेकिन मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं हो गयी गलती, लेकिन मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं। वह कृत्य को गलत मान सकता है, लेकिन खुद को गलत नहीं मान सकता है। वह ठीक है। उसे पता नहीं है कि क्यों ऐसा लगता है।

आसपास तुम्हारे परिवार में, पड़ोस में, गांव में, लोग मरते हैं; लेकिन तुम्हें कभी ऐसा नहीं लगता है कि मैं मरूंगा। जरूर कोई गहरी बात होनी चाहिए क्योंकि घटना इतनी घटती है कि यह प्रतीति न आये कि मैं मरूंगा बड़ी हैरानी की है। जब सभी मर रहे हैं, तब भी तुम्हें यह चोट गहरी नहीं बैठती मन में कि मैं भी मरूंगा। अगर कोई समझाये भी तो भी तुम सोचते हो कि हो सकता है, लेकिन भीतर कोई अहर्निश ध्वनि गूंजती रहती है कि और दूसरे ही मरेंगे, मैं नहीं मरूंगा। अन्यथा जीना मुश्किल हो जाए। जहां मृत्यु इतने जोर से घटती हो; जहां हर आदमी क्यू में खड़ा हो मरने के; जहां तुम भी क्यू में खड़े हो, वहां भी तुम इस मौज से जीते हो, जैसे शाश्वत जीवन है। कुछ भीतरी कारण है। और कारण यह है कि भीतर जो है, वह कभी मरनेवाला नहीं है। तुम कितने ही शरीर के साथ जुड़ गये हो, तो भी तुम शरीर नहीं हो गये हो। वह भीतर की सच्चाई, तुम कितनी ही झुठलाओ, झूठ नहीं हो सकती। कितना ही नशा हो, तो भी भीतर का स्वर—सत्य का स्वर—गूंजता ही रहता है।

मैंने एक दिन सुबह मुल्ला नसरुद्दीन को घर के बाहर बैठे देखा। खिलखिला कर हंस रहा था। बड़ा ही आनंदित, आह्लादित है। मैने पूछा कि क्या हुआ नसरुद्दीन, ऐसे खुश तुम कभी दिखाई न पड़े? उसने कहा ‘गजब हो गया। पर तुम समझ न सकोगे, जब तक मैं पूरी कथा न कहूं।’ मैने कहा कि तुम पूरी कथा ही कहो। उसने कहा: ‘हम दो भाई थे। जुड़वां पैदा हुए। एक—सी शक्लें थीं। कोई भी फर्क न कर पाता था कि कौन कौन है। और जिंदगी भर मैं नुकसान में रहा। स्कूल में मेरा भाई किसी को पत्थर मार देता, तो सजा मुझे मिलती। वह चोरी कर लेता, पकडा मैं जाता। घर में भी यह हालत थी। उपद्रव वह करके आता, मोहल्ले के लोग मुझे पकड़कर ले आते। और आखिरी उपद्रव तो तब हुआ कि एक लड़की से मेरा प्रेम था, वह उसको लेकर भाग गया।’ तो मैंने कहा कि इसमें तुम प्रसन्न क्यों हो रहे हो। नसरुद्दीन ने कहा कि ‘लेकिन, सात दिन पहले सब हिसाब—किताब चुकता हो गया। मैं मर गया और लोगों ने उसको दफना दिया।’

इतनी बेहोशी किसी को भी नहीं है। तुम कितने ही जुड़वां हो तो भी ऐसी भूल न हो सकेगी।नसरुद्दीन भयंकर शराब पीये बैठा था।
तुमने भी बड़ी शराब पी रखी है, बहुत जन्मों से; लेकिन फिर भी इतनी शराब कभी नहीं हो पाती कि तुम्हारे होश को पूरा डुबा दे। तुम्हारा होश उभर—उभरकर बाहर आ जाता है। कहीं तुम जानते ही हो भीतर कि तुम न मरोगे। सब तथ्य कहते हैं कि मृत्यु घटेगी। फिर भी तुम भरोसा किये जाते हो कि मैं न मरूंगा।

तुम ऐसे ही जीते हो जैसे सदा यहां जीना है। इसलिए बहुत—सी भूलें होती हैं। मजबूत मकान बनाते हो जैसे सदा यहां रहना है। तुम्हारी भूलों में भी कहीं न कहीं कोई सच्चाई की झलक होगी ही,नहीं तो ये भूलें बंद हो जातीं। तुम मकान ऐसे ही बनाते हो जैसे सदा रहना है। मजबूत दीवालें उठाते हो, पत्थर की नींव भरते हो, और तुम्हें पता नहीं कि कल मर जाना है। और सब मरते है, तुम भी मरोगे, यह सीधा—साफ गणित है; लेकिन फिर भी भीतर कोई शाश्वत है, इसलिए तुम्हारी हर स्थिति में उस शाश्वत की झलक पड़ती है।

शरीर तुम्हारा है, तुम नहीं। शरीर में तुम हो, लेकिन शरीर ही तुम नहीं हो। शरीर पहली पर्त है, जिससे तादात्‍म्‍य हो गया है। उसके साथ तुम बहुत दिन तक रहे हो, जोड़ हो गया है; जुड़वां हो, साथ—साथ पैदा हुए हो। इसलिए तुम्हें भी भूल हो जाती है कि कौन कौन है; शक्ल पहचान नहीं पाते। और इस भूल को साथ मिलता है, क्योंकि बाहर से देखने वाले केवल तुम्हारे शरीर को देखते हैं, तुम्हें नहीं देखते। वे तुम्हारे शरीर के चेहरे को तुम्हारा चेहरा मानते है। वे तुम्हारे शरीर की आकृति को तुम्हारी आकृति मानते हैं। और वे बहुत हैं, तुम अकेले हो। वे सभी तुम्हारे शरीर को ही तुम्हें मानते हैं। उन सब की प्रतीति भी तुम्हें प्रभावित करती है। अगर तुम्हारा शरीर कुरूप है, तो वे कहते है कि तुम कुरूप हो। अगर शरीर सुंदर है, तो वे कहते हैं कि तुम सुंदर हो। अगर शरीर बूढ़ा है, तो वे कहते हैं कि तुम बूढ़े हो। अगर शरीर जवान है, तो वे कहते हैं कि तुम जवान हो। और इन सबकी संख्या बड़ी है। तुम अकेले हो। वे बहुत हैं; उन सबकी प्रतीति भी तुम्हें इस भाव को गहराती है कि तुम शरीर हो। उनमें से कोई भी तुम्हारी आत्मा को नहीं देखता।

बड़ी पुरानी उपनिषदों में कथा है कि सम्राट जनक ने पंडितों की एक बड़ी सभा बुलायी; सभी आत्मज्ञानियों को निमंत्रण भेजे। और वह चाहता था कि परम सत्य के संबंध में कुछ उद्घाटन हो सके। और जो भी परम सत्य को उद्घाटित करेगा, उसको उसने बहुत धनधान्य भेंट करने के लिए आयोजन किया था। लेकिन ये निमंत्रण भी उन्हीं को पहुंचे, जो ख्यातिनाम थे—स्वभावत: जिनके हजारों शिष्य थे; जिनको लोग जानते थे; जिन्होंने शाख लिखे थे; जिनके पांडित्य की चर्चा थी; जो वाद—विवाद में कुशल थे—उनको ही निमंत्रण पहुंचे। एक आदमी था, उसे निमंत्रण नहीं मिला। शायद जानकर ही निमंत्रण नहीं दिया गया। उस आदमी का नाम था—अष्टावक्र। उसका शरीर आठ जगह से टेढ़ा था। उसे देखकर ही अप्रीतिकर अनुभव होता था, विकर्षण होता था। और ऐसे शरीर में कहीं आत्मज्ञानी हो सकता है! अष्टावक्र के पिता को निमंत्रण मिला था। कुछ काम आ गया, तो अष्टावक्र अपने पिता को बुलाने जनक के दरबार में चला गया। वह जब अंदर घुसा, तो पंडितों की बडी संख्या इकट्ठी थी, वे सब उसे देखकर हंसने लगे। वह हंसने—योग्य था। उसका शरीर निश्‍चित ही कुरूप था—आठ जगह से टेढा। चले तो ऐसा लगे कि मजाक कर रहा है। बोले तो ऐसा लगे कि वह कुछ व्यंग कर रहा है। वह कार्टून था, आदमी नहीं था। वह सर्कस में जोकर हो सकता था। लेकिन जब सारे लोग उसे देखकर—उसकी चाल और ढंग को, ऊंट जैसा आदमी—हंसने लगे, तो वह भी खिलखिलाकर हंसा। उसकी खिलखिलाहट की हंसी ने सभी को चुप कर दिया।

सभी हैरान हुए कि वह क्यों हंस रहा है। और जनक ने पूछा कि ‘ये लोग क्यों हंस रहे हैं, वह तो मैं समझा, अष्टावक्र! लेकिन तुम क्यों हंसे?’
अष्टावक्र ने कहा: ‘मैं इसलिए हंसा कि इन चमारों की सभा को तुमने पंडितों की सभा समझा है। ये सब चमार हैं। इनको शरीर ही दिखाई पड़ता है, चमड़ी ही दिखाई पड़ती है। मैं जो कि यहां सबसे सीधा हूं वह इन्हें अष्टावक्र दिखाई पड़ रहा है। और ये सब तिरछे हैं! और तुम इनसे अगर ज्ञान की आशा रख रहे हो जनक, तो तुम रेत से तेल निचोड़ने की कोशिश कर रहे हो। ज्ञान चाहिए हो तो मेरे पास आ जाना!’

और अष्टावक्र ने ठीक कहा। लेकिन यह होता है; क्योंकि बाहर की आंख बाहर को ही देख सकती है।
तुम भी बाहर की आंख से परेशान हो, क्योंकि सभी तरफ आंखें ही आंखें हैं, और वे सब तुम्हारे शरीर को देखती है। शरीर सुंदर हो तो तुम सुंदर, शरीर कुरूप हो तो तुम कुरूप। और उन सबका इतना शोरगुल है चारों तरफ, और उनकी धारणा मजबूत है; क्योंकि बहुमत उनका है। तुम हमेशा अल्पमत हो, इकाई हो और वे बहुत है। उनसे अगर तुम हार जाते हो तो आश्‍चर्य नहीं है। तुम भी अपने को मान लेते हो कि मैं शरीर हूं तो आश्‍चर्य नहीं है। आश्‍चर्य तो तब होता है जब तुम इन लोगों की आंखों से बच पाते हो और पहचान पाते हो कि मैं शरीर नहीं हूं।

समाज से मुक्त होने का यही अर्थ है। समाज से मुक्त होने का अर्थ हिमालय चले जाना नहीं है। समाज से मुक्त होने का अर्थ है—चारों तरफ से भीड़ की आंखें जो तुमसे कहती हैं, उनसे मुक्त हो जाना। यह बहुत कठिन है। क्योंकि जब सभी लोग एक ही बात दोहराते हैं, तो निरंतर दोहराने से असत्य भी सत्य जैसे भासने लगते हैं। तुम कितने ही स्वस्थ होओ, अगर पूरा गांव तय कर ले कि वह दोहरायेगा कि तुम बीमार हो और जहां से तुम निकलोगे, लोग कहेंगे कि तुम बीमार हो, तुम जल्दी ही बीमार हो जाओगे। क्योंकि यह महा मंत्र हो जायेगा, यह सजेशन हो जायेगा। इतने लोग कह रहे है तो बचना बहुत मुश्किल होगा।

सारी दुनियां नया कहती है कि तुम शरीर हो। आदमी ही नहीं, कंकड़, पत्थर, जमीन, आकाश—सब कहते है कि तुम शरीर हो। एक कांटा भी चुभेगा तो आत्मा में तो चुभेगा नहीं, शरीर में चुभेगा। एक पत्थर कोई फेंककर मारेगा तो खून आत्मा से तो नहीं बहेगा, शरीर से बहेगा। कंकड़, पत्थर, कांटे, जमीन, आसमान—स्ब कह रहे है कि तुम शरीर हो। इतनी बड़ी पुनरुक्ति को खंडित करना बड़ा कठिन है!

और तुम अकेले हो; सबके खिलाफ तुम अकेले हो। क्योंकि तुम्हीं केवल भीतर हो, बाकी सभी तुमसे बाहर है। और उनके कहने में कुछ भूल नहीं है; क्योंकि उन्हें तुम्हारा शरीर दिखाई पड़ता है, पर्त दिखाई पड़ती है—तुम्हारे पड़ोसियों को तुम्हारे घर की फेंसिंग दिखाई पड़ती है; तुम्हारे घर का अंतःकक्ष नहीं दिखाई पड़ता। वे समझते हैं कि यह फेंसिंग ही तुम्हारा घर है। उनका समझना ठीक है। लेकिन तुम भी इसे मान लेते हो, वहां भांति हो जाती है। समाज से मुक्त होने का अर्थ है कि बाहर की आंखों का जो प्रभाव तुम पर पड़ रहा है, उससे मुक्त होना। समाज की आंखों से जो मुक्त हो गया, उसे साफ दिखाई पड़ने लगेगा कि शरीर के भीतर मैं हूं लेकिन मैं शरीर नहीं हूं।

पहली पर्त को तोड़ना शुरू करो। धीरे— धीरे इस स्मरण को प्रगाढ़ करो कि मैं शरीर नहीं हूं। इसे अनुभव में उतारो। सिर्फ दोहराने से न होगा। जब कांटा चुभे, तब स्मरण रखना कि कांटा पैर में चुभा, पीड़ा पैर में होती है, मै देखनेवाला हूं। कांटा मुझमें चुभ भी नहीं सकता। पीडा मेरे भीतर हो भी नहीं सकती। मैं सिर्फ जाननेवाला प्रकाश हूं। इसलिए जब तुम अचेतन हो जाते हो तो कांटे की चुभन पता नहीं चलती। और डाक्टर को आपरेशन करना हो तो अनस्थीसिया देता है, बेहोश कर देता है—फिर पैर काटे, हाथ काटे, पूरा शरीर काट डाले, टुकड़े—टुकड़े कर दे, तो भी तुम्हें पता नहीं चलता।

अगर तुम शरीर होते तो तुम्हें पता चलता? लेकिन तुम शरीर नहीं हो, तुम होश हो और डाक्टर ने होश और शरीर का संबंध तोड़ दिया उसने तुम्हें बेहोश कर दिया। अब तुम्हारे शरीर के साथ कुछ भी किया जाये, तो तुम्हें कुछ भी पता न चलेगा।

जिन लोगों ने जीवन और मृत्यु पर गहरे प्रयोग किये हैं, उनका अनुभव है और मैं भी उनके अनुभव को गवाही देता हूं कि जब तुम मर जाते हो, तो तुम्हें दो—चार दिन तक पका पता नहीं चलता कि तुम मर गये हो। आमतौर से तीन दिन लग जाते हैं तुम्हें पता चलने में कि तुम मर गये हो। क्योंकि मृत्यु घटती है बेहोशी में, शरीर छूट जाता है बाहर का। लेकिन ठीक शरीर की आकृति का एक भीतरी शरीर है तुम्हारा—मनोशरीर, वह तुम्हारे साथ रहता है।

तीन दिन लग जाते हैं कम—से—कम, ज्यादा भी लग जाते हैं, तब धीरे— धीरे तुम्हें समझ में आना शुरू होता है कि तुम मर गये हो। अन्यथा तुम भटकते हो अपने घर के आसपास, अपने मित्रों के पास, पत्नी—बच्चों के पास। तीन दिन तक आत्मा आसपास भ्रमण करती है। हैरान होती है कि मामला क्या हो गया! कोई मुझे देखता नहीं, कोई पहचानता नहीं। तुम द्वार पर खडे हो और तुम्हारी पत्नी रोती निकल जाती है और तुम्हें पता नहीं चलता कि हो क्या गया; मामला क्या हो गया? क्योंकि तुम पूरे—के—पूरे हो, कुछ कमी नहीं हो गयी। शरीर के हटने से कुछ भी कमी नहीं होती—जैसे कपड़े किसी ने उतार कर रख दिये। अगर कपड़े तुम उतार दो तो नग्र तुम खड़े हो जाओगे, क्या बदल गया? तुम तो वही रहोगे। और फिर इससे भी सूक्ष्म शरीर तुम्हारे साथ रहता है—यही आकार, यही प्रतीति—समय लग जाता है। मरकर एकदम से तुम्हें पता नहीं चलेगा कि तुम मर गये हो।

तिब्बत में बारदो नाम की प्रक्रियाएं है। मरते हुए आदमी को बौद्ध भिक्षु बारदो की प्रक्रिया करवाते हैं। जब वह मर रहा होता है, तब वे उसे सब सुझाव देते हैं कि— ‘देख, अब तेरा शरीर छूट रहा है। अब तू स्मरण से भर कि तेरा शरीर छूट रहा है। अभी यह देह हट जायेगी। तू स्मरण कर। तू होशपूर्वक मर कि अब तेरे साथ जो देह है, वह देह भौतिक देह नहीं है, सूक्ष्म देह है। अब तूने शरीर छोड़ दिया। अब तेरे सामने विकल्प हैं कि तू किस तरह के गर्भ को ग्रहण करे। ऐसे सब सुझाव बारदो की प्रक्रिया में मरते हुए आदमी को दिये जाते हैं।

और तिब्बत ने जितनी गहरी खोज मृत्यु के संबंध में की है, किसी दूसरी जाति ने नहीं की। आदमी मर रहा है और भिक्षु यह सुझाव दे रहा है। आखिरी क्षण तक जब शरीर छूट रहा है तब तक वह सुन रहा है भिक्षु को। यहां आदमी मर जायेगा और भिक्षु बोले चला जायेगा। तुम कहोगे कि अब तुम किससे बोल रहे हो; अब बंद करो, आदमी तो मर गया। लेकिन भिक्षु अभी बोले चला जायेगा; क्योंकि अब तुम्हें मर गया है आदमी, भिक्षु को अभी भी नहीं मर गया। और यह आदमी अभी भी सुन रहा है, क्योंकि इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता कि शरीर छूट गया; यह अभी भी सुन रहा है।

और इसके अगले जन्म को प्रभावित किया जा सकता है कि कैसा गर्भ ग्रहण करे। और इसे इस जन्म के मोह और आसक्ति से मुक्त किया जा सकता है। और इन क्षणों में इस आदमी को पूरी याद दिलाई जा सकती है कि तू शरीर नहीं है, जो कि और किसी क्षण में याद दिलाना बहुत कठिन है—क्योंकि अब यह पायेगा कि मैं हूं और शरीर अलग पड़ा है। अब भिक्षु कहेगा कि ‘देख अब तू ऊपर है और शरीर नीचे पड़ा है; गौर से देख! इसी शरीर के साथ तूने अपने को एक समझ रखा था। और अब तेरे मित्र, प्रियजन इस शरीर को मरघट ले जायेंगे और तू पीछा कर। वहां तू इसे जलते देख। वहां यह राख हो जायेगा, फिर भी तेरे होने में रत्तीभर कमी नहीं पड़ती। स्मरण रखना इसको आगे की यात्रा में। दुबारा शरीर के साथ ग्रस्त मत होना। अगले जन्म में पहले ही क्षण से स्मरण रखना कि तू शरीर नहीं है। सब कहेंगे कि तू शरीर है, लेकिन तू अपनी स्मृति को मत खोना। तू अपनी स्मृति को उनके सुझाव से ढकने मत देना।
काश! तुम लोगों के सुझाव फेंक सको तो आत्‍मज्ञान बहुत दूर नहीं है।

पिकासो बहुत बड़ा चित्रकार हुआ। इस सदी में उसका कोई मुकाबला नहीं। लेकिन सलाह देनेवाले तो उसके पास भी पहुंच जाते थे। सलाह देने वालों की कोई कमी नहीं। क्योंकि सच तो यह है कि बिना मांगी सलाह सिर्फ छू देता है। ज्ञानी की सलाह लेनी हो तो बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, मांगनी पड़ती है, अर्जित करनी पड़ती है। सिर्फ छू बिना मांगे सलाह देता है। और अच्छा ही है कि लोग एक दूसरे की सलाहें नहीं मानते, नहीं तो बड़ी मुसीबत में पडे। तो दुनिया में सबसे ज्यादा चीज जो दी जाती है, वह सलाह है। और जो सबसे कम चीज ली जाती है, वह भी सलाह है।

पिकासो के घर लोग आते। जिनको अ, ब, स भी नहीं आता चित्रकला का, वे भी उसको कहते कि जरा इसमें रंग ऐसा लगाया होता। यह चित्र अगर जरा ऐसा बनाया होता! इसकी पृष्ठभूमि अगर दूसरे रंग की होती! पिकासो थक गया इन छो के साथ बातचीत करते—करते। तो उसने क्या किया? —वही तुम करो। उसने एक खूबसूरत पेटी बनायी और उस पर लिखा ‘सजेशन—बॉक्स’, ‘सुझाव की पेटी, ”सुझाव—पेटिका’ और उसके ऊपर लिखा कि कृपा करके आपके जो भी हों, सुझाव लिखकर इसमें डाल दें। यहां तक तो ठीक था, लेकिन उसके नीचे कोई तलहटी नहीं थी और उसके नीचे उसने कचरे की टोकरी रखी हुई थी। लोग बड़ी खुशी से, कि उनके सुझाव का बड़ा मूल्य है, पिकासो की पेटी में डाल जाते सुझाव, और सुझाव कचरे की टोकरी में सीधे पहुंच जाते। वह उनको कभी पढ़ता भी नहीं था। यही तुम करना।

अगर तुम समाज से मुक्त होना चाहो—और वही संन्यास का अर्थ है—तो लोगों के सुझावों से मुक्त होना; क्योंकि वे बाहर हैं, उनके सभी सुझाव बाहर के होंगे और भीतर के ज्ञान में बाधा बनेगी। तुम उनकी सुनना ही मत। अगर तुम भीतर के परमात्मा की सुनना चाहो तो तुम समाज से बचना। अगर भीतर की आवाज सुननी हो तो बाहर की आवाजों के लिए बिलकुल द्वार बंद कर देना। अन्यथा बाहर की आवाजें इतनी विकराल हैं और इतनी तेज है कि भीतर की धीमी—मंद आवाज खो जायेगी; वह तुम्हें सुनायी न पड़ेगी। वह प्रतिपल निनादित हो रही है, लेकिन तुम बाजार में खड़े हो। वहां बड़ा शोरगुल है।

पहली पर्त है शरीर, और एक ही चाबी है। इसको कहना चाहिए मास्टर की; इससे सभी ताले खुल जाते हैं क्योंकि ताले एक ही जैसे हैं। चाबी है कि शरीर के प्रति तुम होश से भरना। चलो तो देखना कि शरीर चल रहा है, मैं नहीं। भूखे हो जाओ तो देखना कि शरीर को भूख लगी है, मुझे नहीं। प्यासे हो जाओ तो देखना कि प्यास शरीर में है, मुझमें नहीं। यह होश कायम रखना। तुम धीरे—धीरे पाओगे कि यह होश तुम्हारे और तुम्हारे शरीर के बीच में खाई पैदा करने लगा। जैसे—जैसे यह होश सघन होगा, फासला बड़ा होगा—और अनंत फासला है तुममें और शरीर में, अनंत दूरी है। जैसे—जैसे तुम्हारा होश गहरा होगा, बीच का सेतु टूटेगा, संबंध विच्छिन्न होगा और एक दिन तुम प्रगाढ़ रूप से देख पाओगे कि शरीर सिर्फ खोल है; तुम जीवन हो, शरीर मृत्यु है; शरीर पदार्थ है, तुम चैतन्य हो। शरीर अणुओं का खेल है, अणुओं का जोड़ है; आज है कल नहीं होगा; परिवर्तनशील है। तुम किसी के जोड़ नहीं हो; तुम चैतन्य हो— अखंड; सदा थे, सदा रहोगे।

जैसे ही शरीर का पहला प्याज का छिलका अलग किया कि दूसरा छिलका ऊपर आ जायेगा। वह दूसरा छिलका है—तुम्हारा मन। वह बीमारी और गहरी है; क्योंकि शरीर काफी दूर है, मन काफी निकट है। शरीर अगर अणुओं का जोड़ है तो मन विचारों का। शरीर अगर पदार्थ है, तो मन सूक्ष्म पदार्थ है। विचार भी सूक्ष्म ध्वनियां है। ध्वनि पदार्थ है। लेकिन विचार और भी करीब हैं। तुम उनसे ऐसे मसे हो—कपड़े जैसे नहीं; शरीर अगर कपड़े जैसा है, तो विचार चमड़ी जैसे हैं। तुम्हारी चमड़ी जैसे करीब है—कपड़े से ज्यादा करीब है—ऐसे विचार हैं। और उनसे छुटकारा और भी मुश्किल है; क्योंकि तुम्हें सदा यह भ्रांति रही है कि ये विचार तुम्हारे है। तुम अक्सर लड़ते हो कि यह मेरा विचार है। और तुम अपने विचार को, सही हो चाहे गलत, सही करने की कोशिश करते हो, सिद्ध करने की कोशिश करते हो; क्योंकि तुम्हें डर लगता है कि अगर तुम्हारा विचार गलत हुआ तो तुम गलत हो गये।

शरीर के साथ तुम्हारा तादात्म्य इतना नहीं है, जितना विचार के साथ है। अगर किसी आदमी से कहो कि तुम्हारा शरीर रुग्ण है, चिकित्सक के पास चले जाओ, तो वह बुरा नहीं मानेगा; लेकिन किसी से कहो कि तुम्हारा मन बीमार है, किसी मनोचिकित्सक के पास चले जाओ, तो वह फौरन नाराज हो जायेगा। किसी को बीमार कहो तो हर्जा नहीं, लेकिन किसी को पागल कहो तो झगड़ा हो जायेगा। क्योंकि शरीर से तो एक फासला है, लेकिन मन से हमारा तादात्म्य बहुत गहरा है। जब कोई कहता है—पागल हो, तो हमें लगता है, ‘मैं पागल हूं, क्या कह रहे हो? कोई पागल मानने को यह राजी नहीं हो सकता कि मैं पागल हूं। तुम ही पागल होओगे, क्योंकि मन के विचार धुएं की तरह तुम्हें चारों तरफ से घेरे हुए हैं। और जब तक ये विचार तुम्हें घेरे हैं, तुम्हारी आंखें अंधी रहेंगी।

तो दूसरा कठिन प्रयोग—कठिन तपश्रर्या है—विचार के प्रति जागना कि कोई भी विचार—कोई भी विचार—वह सुखद हो, दुखद हो; सच हो, झूठ हो; शास्त्र में हो, न हो; परम्परागत हो, गैरपरम्परागत हो—मै नहीं हूं। विचार भी उधार हैं। सभी विचार उधार हैं। वे भी समाज ने तुम्हें दिये हैं। वे भी दूसरे से तुम्हें मिले हैं। सीखा है उन्हें तुमने। तुम तो वह हो, जो अनसीखा तुम्हारे भीतर आया है। तुम चैतन्य मात्र हो, विचार नहीं। विचार तो तुम्हारे ऊपर तरंगों की भांति हैं; जैसे कूड़ा—कर्कट नदी के ऊपर तैर रहा हो, ऐसे विचार है। तुम तो नदी हो। तुम तो चैतन्य की धारा हो।

तो फिर धीरे— धीरे विचारों की पर्त को भी उघाड़ना है। और जब कोई विचार तुम्हें पकड़े तो स्मरण रखना कि यह मैं नहीं हूं यह भी बाहर की धूल है। जैसे दर्पण पर धूल जम जाये, ऐसे विचार तुम पर जम गये हैं। और किसी विचार को इतना अपना मत मानना कि उसके लिए लड़ने को खडे हो जाओ। अगर लोग विचार से अपना संबंध तोड़ लें तो दुनिया में सारे युद्ध बंद हो जायें। सारा युद्ध और उपद्रव, सारी हिंसा, विचार के साथ तादात्म के कारण है। कोई कश्वइनस्ट है, कोई समाजवादी है, कोई जनसंघी है, कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है—सब विचार के साथ तादात्म कर लिये हैं। तुम सिर्फ परमात्मा हो; न तुम हिंदू हो, न तुम जैन हो, न तुम बौद्ध हो, न मुसलमान हो। तुम्हारा शुद्ध होना शिवत्व है।

लेकिन तुम सस्ते में उलझ जाते हो। तुम्हें लगता है, हिंदू होना ज्यादा कीमती है बजाय परमात्मा होने के; मुसलमान होना ज्यादा कीमती है। और तुम्हारे मुसलमान और हिंदू होने से सिर्फ मंदिर और मस्जिद लड़ते हैं और यह जमीन धर्म से खाली होती है, भरती नहीं। सब धर्म लड़वाते हैं; क्योंकि सभी धर्म विचार हो जाते हैं। धर्म तो सिर्फ एक है और वह है—तुम्हारा शिवत्व। तुम स्वयं परमात्मा हो। बस उतना ही धर्म है। वह कभी नहीं लड़ायेगा। क्योंकि जहां विचार न होंगे, वहां कैसी लड़ाई? वहां कैसा पक्षपात? वहां कैसा विरोध?

शरीर ने तुम्हें दूसरों से अलग किया है; विचार ने तुम्हें और भी ज्यादा अलग किया है। एक बात समझ लेना—जो बड़ी विरोधाभासी है—

जिसने तुम्हें स्वयं से तोड़ा है, उसने ही तुम्हें दूसरों से भी तोड़ा है। शरीर ने तुम्हें स्वयं से तोड़ा है। शरीर ने ही तुम्हें दूसरों से तोड़ा है। विचार ने तुम्हें स्वयं से और भी बुरी तरह तोड़ा है। उसने तुम्हें दूसरों से और भी बुरी तरह तोड़ा है। और जिस दिन तुम अपने स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाओगे और न शरीर न विचार, दोनों पर्तें उघाड़ कर फेंक दीं, तुम बिना पर्त हो गये, कोई खोल न रही, शुद्ध जीवन रह गया—उस दिन तुम पाओगे कि तुम सबके साथ एक हो गये; क्योंकि परमात्मा दो नहीं है। उस दिन तुम्हारे भीतर का परमात्मा और तुम्हारे बाहर का परमात्मा एक हो गया। उस दिन घटाकाश और आकाश एक हो गया—उस दिन घड़े के भीतर छिपा आकाश और घड़े के बाहर फैला आकाश एक हो गया; बड़ा गिर गया। तादात्म्य घड़ा है।

जैसे—जैसे तुम पर्त उघाडते जाओगे.। पर्त का अर्थ है—तादात्म्य (आइडेन्टिटी) जो तुम नहीं हो, उसके साथ अपने को एक मान लेना तादात्म्य है। और उस सबसे तादात्म्य तोड़ देना, जो तुम नहीं हो— ध्यान है। और ध्यान कुंजी है। धीरे— धीरे वही बच रहता है जो तुम हो। सब प्याज की पर्तें उघड जाती हैं, शून्य हाथ में आता है। यही शून्य तुम्हारी प्रभुता है, तुम्हारा शिवत्व है।

तुमने देखा? शिव की पिंडी हमने बनायी है, वह शून्याकार है। वह जानकर हमने बनायी है। शिव का कोई चेहरा नहीं है। उन जैसी सुंदर मूर्ति और किसी की नहीं है; क्योंकि उसका कोई चेहरा ही नहीं है। वह सिर्फ शून्य की आकृति है। और जिस दिन तुम भीतर, भीतर, भीतर उतरते जाओगे, वैसे—वैसे तुम पाओगे कि वह शून्य की आकृति तुम्हारे भीतर भी आनी शुरू हो गयी; तुम शिव के करीब होते जा रहे हो। जिस दिन तुम सिर्फ प्रकाश के शून्य मात्र रह जाओगे—स्व ज्योति, निराकार, जिसका कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं,उस दिन तुम जौ भी बोलोगे वही जप होगा। अभी तुम जो भी बोलोगे, वह धोखा है। अभी तुम जो भी बोलोगे, वह धोखा है। अभी तुम धर्म भी करोगे तो अधर्म है। अभी तुम कुछ और कर ही नहीं सकते। तुम अभी एक भूल से बचने जाओगे तो हजार भूल इकट्ठी कर लोगे। अभी सबसे बेहतर तो यही होगा कि तुम कुछ मत करना, सिर्फ तादात्म्य तोड़ना, बस; जागना, कुछ करना मत। अन्यथा तुम एक भूल से बचने जाते हो, दूसरी पकड़ लेते हो।

मुल्ला नसरुद्दीन समुद्र के किनारे बैठा था। पास में ही एक आदमी बड़ा परेशान है। आखिर उससे न रहा गया और उस आदमी ने कहा : ‘भाई!’ नसरुद्दीन से कहा : ‘क्या यह तुम्हारा लडका है, जो मेरे कपडों पर रेत फेंक रहा है? ‘बड़ा क्रोधित था वह आदमी। नसरुद्दीन ने कहा : ‘नहीं भाई’ बड़े प्यार से, ‘वह तो मेरा भांजा है। मेरा लड़का तो तुम्हारा छाता तोड़कर तुम्हारे जूते में पानी भरने गया है।’
तुम इधर सम्हालोगे, उधर बिगड़ जायेगा। तुम अपनी भूलों से बचने के लिए जो कारण देते हो, वे और बड़ी भूलें हो जाती हैं।

पुराने सम्राट अपने—अपने दरबारों में एक—एक महामूर्ख रखते थे ताकि वह याद दिलाता रहे कि आदमी की बुद्धिमानी बहुत बुद्धिमानी नहीं है।

एक सम्राट ने एक महामूर्ख को रखा हुआ था। एक दिन अचानक सम्राट दर्पण के सामने खड़ा था, महामूर्ख आया और उसने जोर से उचक कर लात सम्राट की पीठ पर मारी। वह दर्पण पर गिर पड़ा। सामान टूट गया। दर्पण भी टूट गया। लहूलुहान हो गया। उस सम्राट ने कहा ‘हद हो गयी। मूर्ख मैंने पहले भी देखे, लेकिन तेरे जैसा मूर्ख नहीं देखा। यह तूने क्या किया? अगर तू, जो तूने किया है, इसको समझाने के लिए, इससे भी बड़ी मूर्खता का कोई कारण न बता सका, तो फांसी लगवा दूंगा।’ उसने कहा. ‘हुजूर, मैं तो समझा, महारानी खड़ी हैं।’ यह उन्होंने कारण बताया! ‘मैं यह नहीं समझा कि आप खड़े हैं, मैं समझा कि महारानी खड़ी हैं।’ सम्राट को उसे छोड़ना पड़ा, क्योंकि कारण उसने और भी खतरनाक बताया।

तुम जहां हो, अंधेरे में खडे हो। तुम एक भूल करते हो, उसे सम्हालने के लिए, तुम जो भी कारण खोजते हो, दूसरी भूल हो जाती है। और ऐसा भूल का एक वर्तुल बन गया है। दुकान से बचने के लिए तुम मंदिर जाते हो; लेकिन मंदिर पहुंच नहीं पाते, मंदिर दुकान हो जाता है— और भी बड़ी दुकान! इधर तुम बचते हो, उधर फंस जाते हो; क्योंकि कारण बाहर नहीं है, कारण भीतर है। तुम अंधेरे में हो; तुम जहां भी जाओगे, वहीं उपद्रव खडा होगा।

मुल्ला नसरुद्दीन एक बार पकड़ा गया। जेलखाने में पड़ा था, तो मैं मिलने गया। पुराना संबंध। उसको देख आना जरूरी है। मैंने पूछा : ‘नसरुद्दीन, इतने समझदार होकर फंस कैसे गये?’ उसने कहा. ‘क्या बताऊं, चोरी में फंस गया, लेकिन अपनी ही भूल के कारण।’ मैंने पूछा. ‘वह क्या भूल है?’ उसने कहा. ‘जिस सेठ के घर में घुसे, तीन महीने उसके कुत्ते से दोस्ती बनाने में लगाए और जब भीतर गया तो बिल्ली पर पैर पड़ गया।’ तुम जिंदगीभर ऐसे ही कुत्ते से दोस्ती करने में बिताते हो और बिल्ली पर पैर पड़ जाता है। तुम्हारे पास आंख नहीं है। तुम अंधेरे में यहां से वहां टटोलते घूम रहे हो। असली सवाल यह नहीं है कि तुम खोजो, असली सवाल यह है कि प्रकाश हो। अंधेरे में टटोलने से तुम कभी भी न पहुंचोगे। तुम, प्रकाश हो जाये, तो दरवाजा अभी देख लोगे, और निकल जाओगे।

आचरण को बदलने में जो लगा है, वह अंधेरे में टटोल रहा है। कभी ज्यादा खाना खाता था, अब उपवास कर रहा है। मगर वह टटोल रहा है—वही। खाने में ही अटका है। उपवास भी खाने का ही एक ढंग है। वह भी खाने में ही जुड़ा है। लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ रहा है। कल तक जो कर रहा था, उससे उलटा करने लगेगा, ज्यादा से ज्यादा। इस दिशा में खोज लिया, यहां नहीं पाया तो उलटी दिशा में खोजने लगेगा। लेकिन आंख तो यहां भी बंद थी, आंख वहां भी बंद रहेगी। तुम इसलिए नहीं भटक रहे हो कि तुम्हारी दिशा गलत है; तुम इसलिए भटक रहे हो कि तुम्हारी आंख बंद हैं। आंख खुलनी चाहिए। और जब आंख कहता हूं तो मेरा मतलब है—होश बेहोशी टूटनी चाहिए। होश बढ़ना चाहिए। सोये—सोये मत चलो, जागो। जैसे ही तुम जागोगे, शिवतुल्य हो जाओगे।

‘और वे जो भी बोलते हैं, वही जप है। और आत्‍मज्ञान ही उनका दान है।’ वे धन नहीं देते। धन कचरा है। देने का कोई अर्थ भी नहीं है। जिसको खुद ही छोड़ा, उसे देने का क्या प्रयोजन! जिसे खुद व्यर्थ पाया, उसे दूसरे को बांटने में क्या सार! वे तुम्हारे शरीर की सेवा नहीं करते। वे तुम्हें सिर्फ एक ही चीज दे सकते हैं, जो देने योग्य है, वह आत्‍मज्ञान है। वही उनका दान है।

लेकिन तुम देखो! तुम हिसाब उसका नहीं रखते। जैनियों से पूछो तो वे महावीर का हिसाब रखे हुए हैं कि कितने घोड़े, कितने हाथी, कितने रथ, कितने हीरे—जवाहरात उन्होंने दान किये। और खूब बढ़ा—चढ़ाकर संख्या लिखी है; उतने उनके पास थे भी नहीं। क्योंकि वे एक छोटे—से राज्य के मालिक थे, कोई बहुत बड़ा साम्राज्य न था—एक तहसील से बड़ा नहीं। उसमें इतने हाथी—घोड़े हो भी नहीं सकते, जितनी जैनियों ने संख्या लिखी है ‘ संख्या से ऐसा लगता है कि वे कोई चक्रवर्ती सम्राट थे, बिलकुल भूल है। सिक्किम के छोग्याल जैसी हालत में, बस उतने ही हैसियत के आदमी थे, उससे ज्यादा के नहीं। उस समय हिंदुस्तान में दो हजार राज्य थे। तो तुम सोच सकते हो डिटी—कलेक्टर की हैसियत रही होगी।

पर इतनी संख्या बढ़ाकर लिखने का क्या कारण है? —क्योंकि जैनियों को लगता है कि अगर दान छोटा किया तो इतने बड़े तीर्थंकर कैसे होंगे। संख्या बड़ी करो, गणित को फैलाओ, बढ़ाते जाओ— लाखों हाथी—घोड़े, अरबों—खरबों के हीरे—जवाहरात—वह इसलिए ताकि त्याग मालूम पड़े। लेकिन उन अंधों को कोई भी पता नहीं है कि उस त्याग से कोई संबंध ही नहीं है। जो असली हीरा महावीर ने दिया, वह आत्मज्ञान है। वह उसमें जोड़ा ही नहीं गया।

तुम वही देख सकते हो, जहां तुम्हारी वासना है। तुम्हारा रस कहां है, वहीं तुम्हें दिखाई पड़ता है। आत्मज्ञान! वह शब्द कुछ कीमती नहीं दिखाई पड़ता। अगर एक हाथ में रखूं आत्मज्ञान और एक में कोहिनूर हीरा तो तुम पूछो अपने मन से कि क्या लोगे। तुम कहोगे कि आत्मज्ञान फिर भी हो जाएगा, इतनी जल्दी क्या है। और इतनी जल्दी भी क्या है! जन्म—जन्म पड़े हैं। कोहिनूर फिर मिला न मिला! तुम कोहिनूर ही चुनोगे। क्योंकि तुम्हें रस ही उसमें दिखाई पड़ेगा, जो व्यर्थ है। तुम अंधे हो!

शिवतुल्य जो हो गया है, उसका एक ही दान है, वह आत्मज्ञान है। जो उसने पाया है, वह बांटता है। जो उसने चखा है, वह उसका स्वाद भी तुम्हें देता है। वह अपने को ही बांटता है। वह संपदा नहीं बांटता, वह स्वयं को बांटता है। वह तुम्हें भागीदार बनाता है अपनी भीतरी संपदा में। बाहरी संपदा दो कौड़ी की हो गयी है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है। तुम गरीब मरो कि अमीर मरो, कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। तुम खा—पीकर ठीक—से अच्छे बिस्तर पर मरो कि बिना खाये—पीये सड़क पर मरो, कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क सिर्फ एक बात से पड़ता है कि तुम जागते हुए जीओ और जागते हुए मरो। वहीं सब चीजें टिकी हैं। उस पर ही तुम्हारे सारे जीवन का गंतव्य निर्भर होगा। वही निष्कर्ष तय करेगा। बाकी किसी बात का कोई भी मूल्य नहीं है।

‘आत्मज्ञान ही उसका दान है—जो अंतस्—शक्तियों का स्वामी है और ज्ञान का कारण है, क्योंकि आत्मज्ञान ही तुम्हें अंतस्—शक्तियों का स्वामी बना देगा। और आत्मज्ञान ही तुम्हारे जीवन को प्रकाश, ज्ञान, आलोक से भर देगा। और जिस दिन तुम जान सकोगे, जाग सकोगे, उस दिन तुम पाओगे कि तुम सदा के सम्राट हो। तुमने अपने को भिखारी कैसे समझा, तुम हसोगे। तुम हैरान. होओगे कि तुम कैसे दुख—स्‍वप्‍न में दब गये थे। तुमने कई बार दुख—स्‍वप्‍न देखे हैं—नाइटमेयर। बस, वैसा ही पूरा जीवन है।

कभी—कभी ऐसा होता है, रात तुम सोये और छाती पर हाथ पड़ गया। सीधे सो जाओ और छाती पर हाथ पड़ जाए तो सपना आएगा कि कोई छाती पर चढ़ा है। कुछ नहीं है, तुम्हारे ही हाथ पड़े है। लेकिन वह तो जागने पर पता चलेगा। अभी नींद में तो लगेगा कि कोई छाती पर चढ़ा हुआ है। चट्टान रख दी छाती पर किसी ने; कि कोई पटक रहा है तुम्हें पहाड़ से और तुम पसीने—पसीने हो रहे हो, भयभीत हो रहे हो। उसी घबडाहट में नींद खुल जाएगी। तब तुम चकित होकर हैरान होओगे कि अपने ही हाथ छाती पर पड़े हैं, न कोई चट्टान है। लेकिन सपने में कितनी बढ़ जाती है बात। सपना कैसी अतिशयोक्ति है! अपने ही हाथ पहाड और चट्टान बन जाते हैं और अपना ही एक हाथ बिस्तर के नीचे लटक गया है तो लगता है कि खाई में गिर रहे हैं।

तुम जरा प्रयोग करके देखो। दूसरे में सपने जाइये जा सकते हैं। कोई आदमी सोया हो, उसके पैर के पास जरा—सी आंच ले जाओ। जल्दी ही वह सपना देखेगा कि रेगिस्तान में चल रहा है; मरा जा रहा है, पसीने—पसीने हुआ जा रहा है। या जरा—सी बर्फ उसके पैर में छुलाओ। और वह समझेगा कि पहुंच गये एवरेस्ट पर; पैर गले जा रहे हैं, ठंड से मरे जा रहे है। तकिया ही रख दो उनकी छाती पर—शैतान बैठा है। उनका ही हाथ उनकी गर्दन में उलझा दो—फांसी लगी है। मगर यह तो जागने पर पता चलेगा। सपना बड़ी अतिशयोक्ति है! जब वह जागेगा, तो हंसेगा कि मैं भी कैसे परेशान हो रहा था। व्यर्थ ही परेशान हो रहा था। वहां कुछ भी न था। एक जरा—सा इशारा, और मन भाग खड़ा होता है और न मालूम कितनी कल्पनाएं कर लेता है।

तुम जिंदगी में इतने दुख कभी नहीं पाते, जितनी तुम कल्पना करते हो। वे बीमारियां कभी नहीं आतीं, जिनको तुम सोचे बैठे रहते हो। वे दुख भी तुम पर कभी नहीं गिरते, जिनसे तुम भयभीत रहते हो। तुम्हारे जीवन का नब्बे प्रतिशत दुख तो तुम्हारे मन की कल्पना है, दस प्रतिशत सही है। लेकिन नब्बे प्रतिशत बिलकुल कल्पना है। और नब्बे प्रतिशत के कारण तुम इस दस प्रतिशत का हल नहीं कर पाते। अगर वह नब्बे प्रतिशत समाप्त हो जाए, झूठ हट जाए, तो जीवन का जो भी दुख वास्तविक है, उसका निपटारा है। उससे छुटकारा है। उसके बाहर होने का उपाय है। तुम उससे सदा बड़े हो। उस पर पैर रखकर सीढ़ी बना ले सकते हो। लेकिन तुम इतना बढ़ा लेते हो कि दुख इतना बड़ा हो जाता है कि तुम छोटे हो जाते हो। तब तुम कंपते हो, तब तुम कुछ भी नहीं कर सकते। जैसे ही भीतर के जान की किरण जगती है, भीतर का दीया जलता है, तुम अपनी शक्तियों के स्वामी हो जाते हो। और वही तुम्हारे ज्ञान का कारण है।

ज्ञान अंतिम घटना है। ज्ञान का अर्थ है— भीतर की आंख, देखने की क्षमता, आरपार देखने की क्षमता। तब जीवन में कोई दुख नहीं है। तब जीवन में सिर्फ आनंद है। तुम्हारे अंधेपन के कारण दुख है। तुम्हारी नींद के कारण तुम्हारा सपना दुखद हो गया है। होश किसी दुख को नहीं जानता। होश सिर्फ आनंद को जानता है।

‘स्वशक्ति का प्रचय अर्थात सतत विलास ही उसका विश्व है।’


जो व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है वह सतत अंतरविलास में है, वह सतत महा सुख में है। स्वशक्ति का प्रचय, उसके भीतर की स्वयं की शक्ति न मालूम कितने सुख को जन्म देती रहती है। प्रतिपल वहां सुख घटता रहता है। जैसे झरना बहता रहता है सतत, ऐसे वहां सुख की धारा बहती रहती है। तुम्हारे भीतर प्रतिपल अनंत स्रोत सुख के बह रहे हैं, लेकिन उस तरफ तुम्हारी पीठ है। और ध्यान रखना धर्म कोई त्याग नहीं है, धर्म परम विलास है। परमात्मा कोई बैठकर रो नहीं रहा है, नाच रहा है। तुम रोते परमात्मा को मत खोजना, वह तुम्हें कहीं न मिलेगा। और जो भी मिलेंगे, वे तुम्हारे बीच में से ही कोई होंगे, जो परमात्मा का अभिनय कर रहे हैं। परमात्मा नाच रहा है। यह पूरा जीवन आनंद का महोत्सव है। इस जीवन ने दुख कहीं जाना नहीं है। दुख तुम्हारी कल्पना है। दुख तुमने पैदा किया है। दुख तुम्हारा सोचा हुआ है। दुख तुम्हारी उत्‍पत्ति है। और अंधा आदमी और कुछ कर भी नहीं सकता; वह जहां जाएगा, वहीं टकरायेगा। पर सोचता है वह यह कि सारी दुनिया मुझसे टकराने को तैयार खड़ी है। कोई तुमसे टकराने को क्यों उत्सुक होगा? दीवाल को कोई मतलब है कि दरवाजे को कोई मतलब है? अंधा आदमी जहां भी जाता है तो कहीं दीवाल टकरा जाती, कहीं दरवाजा टकरा जाता और अंधा आदमी सोचता है कि सारी दुनिया मुझसे टकराने को बैठी है। आंखवाले से कोई नहीं टकराता। निश्‍चित ही, कोई तुमसे टकराने को नहीं बैठा है। तुम ही अंधे हो, तुम ही टकरा जाते हो। दोष तुम दूसरों को देते हो। दोषी तुम स्वयं हो। उत्तरदायित्व तुम दूसरे पर फेंकते हो और तुम्हारे अतिरिक्त किसी का उत्तरदायित्व नहीं है।

यह वचन समझने जैसा है— ‘स्वशक्ति का प्रचय अर्थात सतत विलास ही उसका विश्व है।’ ऐसी स्थिति जब आ जाती है ज्ञान की, तो प्रतिपल आनंद ही फलित होता रहता है। वहां सिर्फ फूल ही लगते हैं, कांटे नहीं। और वहां अमृत ही बरसता है, वहां कोई मृत्यु नहीं। वहां दुख की एक किरण भी नहीं प्रवेश पाती।

तुम्हारे भीतर महा सुख का राज्य है। उसकी ही तुम तलाश में भी हो। लेकिन खोज तुम बाहर रहे हो। खोज तो ठीक है, दिशा गलत है।

आत्मज्ञानी तुम्हें दिशा देता है, वही उसका दान है। वह तुम्हें उस दिशा में ले जाता है। जहां उसने पाया, वहीं तुम्हें ले जाता है। आत्मज्ञानी तुम्हें समझाता नहीं, क्योंकि उसे समझाने का कोई उपाय नहीं है; तुम्हारे हाथ को पकड़कर उस तरफ ले जाता है। लेकिन तुम इतने डरे हुए हो कि तुम किसी का हाथ पकड़ने से डरते हो। तुम समर्पण नहीं कर सकते, श्रद्धा नहीं कर सकते, किसी पर भरोसा नहीं कर सकते। तुम्हारे भय ने तुम्हें इतना असुरक्षित कर दिया है कि जो तुम्हें दुख के बाहर ले जाए, तुम सोचते हो शायद यह भी किसी झंझट में ले जाएगा। तुम इतनी झंझटों में पड़ते रहे हो, तब तुम्हें झंझटें ही दिखाई पड़ती हैं।

आत्मज्ञानी के पास, अगर तुम उसका हाथ पकड़ने को राजी नहीं हो, तो कोई उपाय नहीं कि वह तुम्हें दान भी कैसे दे। तुम्हें हाथ तो फैलाने ही होंगे। तुम्हें दान स्वीकार तो करना ही होगा। तुम अगर अपनी मुट्ठियां बांधकर खड़े हो और तुम दान स्वीकार करने को राजी नहीं, तो आत्मज्ञानी भी तुम्हारे द्वार से, तुम्हें बिना दिए लौट जाएगा।’स्वशक्ति का प्रचय अर्थात सतत विलास ही उसका विश्व है’। और वहां सतत विलास चल रहा है और तुम सतत दुख में हो।

‘और वह स्वेच्छा से स्थिति और लय करता है।’ यह बड़ा कठिन है। समझना कठिन है; क्योंकि अनुभव से ही समझ में आ सकता है, अनुभव नहीं है तो समझ में नहीं आएगा। लेकिन फिर भी थोड़ा—सा प्रत्यय बन जाए तो कभी सहयोगी होगा।

जैसे ही कोई व्यक्ति स्वयं को जानने में समर्थ हो जाता है, वैसे ही एक अनूठी शक्ति, इस जगत में सबसे महान शक्ति—उससे बड़ा कोई चमत्कार नहीं—उसे उपलब्ध होती है। और वह चमत्कार यह है कि वह जब चाहे तब हो जाए और जब चाहे न हो जाए जब चाहे तब अस्तित्व में आ जाए और जब चाहे तब शून्य में खो जाए। जैसे तुम गते हो और सोते हो, लेकिन वह भी स्वेच्छा से नहीं। सुबह नींद खुल गयी तो फिर तुम क्या करोगे? फिर सो नहीं सकते। रात नींद आती है तो तुम जग नहीं सकते। जैसे तुम सोते और गाते हो, वैसे ही आत्‍मज्ञानी स्वेच्छा से शून्य में जाता और पूर्ण में आता है। वह उसकी स्वेच्छा है। वह उसमें परतंत्र नहीं है। अगर वह तय करे कि उसे शून्य में खो जाना है तो वह शून्य में खो जाता है। अगर वह तय करे कि उसे पूर्ण में रहना है तो वह पूर्ण में रहता है।

बुद्ध के जीवन में उल्लेख है कि वे गये स्वर्ग के द्वार पर, द्वारपाल ने द्वार खोले, लेकिन वे पीठ करके खड़े हो गये। उन्होंने कहा कि जब तक अंतिम व्यक्ति मुक्त न हो जाए, तब तक मैं द्वार पर रुकुंगा। जिस दिन आखिरी व्यक्ति प्रवेश कर जाएगा स्वर्ग के महा सुख में, उस दिन उसके पीछे मैं प्रवेश करूंगा।

यह कहानी बड़ी प्रीतिकर है। इसका मतलब यह है कि जगत में दो तरह के आत्मज्ञानी हैं। सभी धर्मों ने उस दो तरह के आत्मज्ञानियों को समझा है। एक आत्मज्ञानी तो वह है जो अपने आत्‍मज्ञान हो जाने के बाद शून्य में लीन हो जाता है; और एक आत्मज्ञानी वह है, जो अपने आत्मज्ञान के बाद भी अस्तित्व में बना रहता है, ताकि दूसरों की सहायता कर सके। जैनों ने पहले आत्‍मज्ञानी को कैवल्य ज्ञानी कहा है। अनंत कैवल्य ज्ञानी होते हैं। वे शून्य में खो जाते हैं, उन्होंने अपनी मंजिल पा ली। वे प्रवेश कर जाते हैं, द्वार पर नहीं खड़े रहते हैं। चौबीस को जैनियों ने तीर्थंकर कहा है। तीर्थंकर वे कैवल्य ज्ञानी है जो द्वार पर खड़े रहते हैं; जो दूसरे के लिए रास्ता बनाते हैं। बौद्धों ने भी दो तरह के आत्मज्ञानी माने हैं। एक को वे बोधिसत्व कहते हैं और एक को अर्हत। बोधिसत्व वह आत्मज्ञानी है जो दूसरे के लिए रुकता है और अर्हत वह आत्मज्ञानी है जो अपन’ पाकर लीन हो जाता है।

सारे धर्मों ने दो तरह के आत्मज्ञानी माने हैं, क्योंकि दो तरह के व्यक्ति होते हैं। तुम जब पहुंचोगे उस परम दशा में, तो या तो तुम्हारे मन में, तुम्हारे प्राणों में, एक वासना शेष रह जाएगी। इसको भी वासना ही कहना पड़ेगा कि मैं दूसरों की सहायता करूं और अगर यह वासना भी शेष न रहेगी तो तुम खो जाओगे। इसलिए सदगुरु, अपने शिष्यों में, उन शिष्यों को बोधिसत्व या तीर्थंकर बनाने की कोशिश करते हैं जिनमें करुणा का तत्व ज्यादा है। दो तत्व हैं जो आखिर में रहते हैं—करुणा और पता। पता का अर्थ है—ज्ञान और करुणा का अर्थ है—दया। और तुम्हारे भीतर दो ही तरह के व्यक्ति हैं—एक जिनके भीतर करुणा ज्यादा है और एक जिनके भीतर प्रज्ञा ज्यादा है। जिनके भीतर प्रज्ञा ज्यादा है, वे तो सीधे शून्य में खो जाएंगे। उनको गुरु नहीं बनाया जा सकता। वे शिष्य ही रहेंगे और जिस दिन वे ज्ञान को उपलब्ध होंगे, वे खो जाएंगे। वे गुरु कभी नहीं बनेंगे। जिनके जीवन—तत्व में करुणा का भाव ज्यादा है, वे गुरु बन सकते हैं, तीर्थंकर बन सकते हैं, बोधिसत्व बन सकते हैं।

तो यह गुरु पर निर्भर करेगा कि वह अपने शिष्यों को तैयार करे। जिनके भीतर उसे करुणा का तत्व ज्यादा दिखाई पड़ता है, प्रेम का, सेवा का, उनको वह इस भांति तैयार करेगा कि उनमें करुणा की वासना आखिर तक रह जाए। जब उनका ज्ञान फलित हो, तो एक वासना उनके भीतर शेष रह जाए करुणा की। जब उनकी नाव छूटने के लिए तैयार हो जाए, तब एक खूंटी से रस्सी बंधी रह जाए। वह खूंटी होगी करुणा की। या उनके भीतर करुणा का तत्व नहीं है, शुष्क पता है, तो उनकी कोई खूंटी बचाने की जरूरत नहीं। उनकी नाव जैसे ही तैयार हुई, वे यात्रा पर निकल जाएंगे, महा शून्य में खो जाएंगे।

शिवत्व को उपलब्ध व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से स्थिति और लय करता है। या तो वह ठहर सकता है अस्तित्व में सेवा के लिए या खो सकता है शून्य में—यह उसकी स्वेच्छा है। और ध्यान रहे, उसी के पास स्वेच्छा है, तुम्हारे पास कोई स्वेच्छा नहीं। तुम्हारे पास स्वयं का होना नहीं तो स्वेच्छा कैसे होगी! तुम भला कहते हो कि मैं अपनी स्वेच्छा से ऐसा कर रहा हूं लेकिन वह झूठ है; तुम किसी वासना के दबाव में वैसा करते हो।

स्वेच्छा क्या है तुम्हारे पास?
स्वेच्छा तो तब है कि कोई गाली दे और तुम क्रोध न करो। यह हो सकता है कि क्रोध प्रगट न करो; लेकिन गाली देते ही भीतर क्रोध हो जाएगा। स्वेच्छा तो तब है जब कोई गाली दे और तुम वैसे खड़े रहो जैसे गाली नहीं दी गयी। स्वेच्छा तो तब है जब कोई प्रशंसा करे और तुम ऐसे खड़े रहो जैसे कोई प्रशंसा नहीं की गयी; जैसे कुछ भी नहीं हुआ, तुम वही हो जैसे पहले थे। कोई रत्तीभर भी अंतर न पडे, तब तुम मालिक हो अपने, तब तुम स्वामी हो। और ऐसा जो स्वामित्व है, उसके लिए अंतिम निर्णय आखिरी क्षण में होता है।

तो बौद्धों के दो धर्म हो गए इसी आधार पर। एक धर्म है—हीनयान, और एक धर्म है—महायान दो पंथ हो गये। हीनयान का अर्थ है—छोटी नाव। उसमें एक ही सवार हो सकता है, ज्यादा लोग नहीं। वह अर्हत की नाव है। वह बैठता है और अपनी यात्रा पर निकल जाता है। महायान का अर्थ है—बडी नाव। वह बोधिसत्व की नाव है। वह बैठ भी जाए नाव में तो रुकता है ताकि और लोग भी सवार हो जाएं फिर उसकी नाव जाए। कहना मुश्किल है कि दोनों में कौन ठीक है, कौन गलत। उस स्थिति में ठीक और गलत का निर्णय भी मुश्किल है; जो जिस के स्वभाव के अनुकूल है…..!

जिनके हृदय में स्‍त्रैणता है, वे बोधिसत्व हो जाएंगे और जिनके हृदय में पुरुषत्व है, वे अर्हत हो जाएंगे। और दो तरह के हृदय हैं। इसलिए आखिरी क्षण में भी दो तरह के हृदय निर्णायक होंगे। या तो तुम्हारे पास पुरुष का हृदय है—शुष्क प्रज्ञा, या सी का हृदय है—आर्द्र करुणा। या तो तुम प्रेमपूर्ण हो या तो तुम ज्ञानपूर्ण हो। या तो तुम ज्ञानी हो या भक्त हो। ये दो विपरीत मिलकर संसार बना है।

संसार में सभी चीजें विपरीत से बनी हैं— अंधेरा और प्रकाश, सी और पुरुष, जन्म और मृत्‍यु ऐसे ही करुणा और प्रज्ञा। आखिरी क्षण में भी ये दो तत्व किनारे पर रहेंगे। इनमें से जो भी प्रबल होगा, वह निर्णायक होगा। लेकिन तब स्वेच्छा का उपयोग करना होगा। तब स्वेच्छा है तुम्हारी। क्योंकि मुक्त—पुरुष अब किसी बंधन में नहीं है। यह उसकी अपनी ही मर्जी है। पहली दफा मर्जी पैदा हुई है। पहली दफा संकल्प का जन्म हुआ है। आत्मज्ञानी ही संकल्प करता है। तुम तो वासनाओं में प्रवाहित होते हो। वह तय करेगा। और एक ही निर्णय की अवस्था है, बस, इसके पहले कोई अवस्था निर्णय की नहीं है। तब तो तुम बहते हो, निर्णायक नहीं हो।

गुरजियेफ से किसी ने पूछा कि मैं क्या करूं, मुझे बतायें। गुरजियेफ ने कहा ‘काश! तुम कुछ कर सकते, तो मैं तुम्हें बताता।’
अभी तुम कुछ कर ही नहीं सकते। अभी तो तुम अंधे प्रवाह में हो। अभी तो तुम ऐसे हो जैसे घास का तिनका लहरों पर डोलता रहता है; कहीं भी लहरें ले जायें, वहीं चला जाता है। अभी तुम कहां हो?

बुद्ध से किसी ने पूछा कि मैं सेवा करना चाहता हूं लोगों की। बुद्ध ने बहुत गौर से देखा और उससे दया से कहा. ‘अभी तुम हो ही नहीं, सेवा कैसे करोगे?’

निर्णय आता है आखिरी क्षण हाथ में। आत्मज्ञान के बाद निर्णायक शक्ति तुम्हारे पास होती है, क्योंकि तब तुम शिवतुल्य हो गए तब तुम सृष्टि न रहे, सृष्टा हो गए। तब तुम इस जगत के हिस्से नहीं हो, तुम स्वयं परमात्मा हो। अब सारा खेल तुम्हारे हाथ में है। अब तुम नियंता हो। तब आखिरी निर्णय हाथ में आता है और वह यह कि या तो. तुम रुकना चाहोगे, अपनी नाव में और लोगों को सवार कर लो, तो तुम तीर्थंकर हो जाओगे। या तुम चिंता न करोगे। वह बात ही तुम्हें पकड़ेगी नहीं। और तुम सोचोगे कि हर आदमी अपना रास्ता खोजता है; अपने रास्ते से पहुंचता है; कौन किसकी नाव में सवार होता है! तुम अपनी नाव को छोड़ दोगे।

‘और वह स्वेच्छा से स्थिति और लय करता है।’ इसे खयाल में रखना उचित है, क्योंकि इसको सुनते भी तुम्हारे भीतर खयाल जगने लगेगा कि तुम्हें अगर निर्णय का मौका मिले तो तुम क्या करोगे। तत्क्षण जगने लगेगा। और वह गाना उपयोगी है; क्योंकि आखिरी क्षण वही बीज बड़ा हो जाएगा, वृक्ष बन जाएगा।

आज इतना ही।

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शिव सूत्र – 08. जिन जागा तिन मानिक पाइया

जिन जागा तिन मानिक पाइया—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 18 सितंबर,1974; प्रात:काल, श्री ओशो आश्रम,पूना।


सूत्र:
त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेव्यम्

मग्‍न: स्वचित्ते प्रविशेत्।
प्राणसमाचारे समदर्शनम्।
शिवतुल्यो जायते।

तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था का तेल की तरह सिंचन करना चाहिए ऐसा मग्‍न हुआ स्व—चित्त में प्रवेश करे। प्राणसमाचार (अर्थात सर्वत्र परमात्म—ऊर्जा का प्रस्‍फुरण है—ऐसा अनुभव कर) से समदर्शन को उपलब्ध होता है। और वह शिवतुल्य हो जाता है!


जाग्रत, स्‍वप्‍न, सुषुप्‍ति—इन तीनों अवस्थाओं में भी चौथी तुरीय ऐसी ही पिरोई हुई है जैसे माला के मनकों में धागा। सोये हुए भी तुम्हारे भीतर कोई जागा हुआ है। स्‍वप्‍न देखते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई देखनेवाला स्‍वप्‍न के बाहर है। जागते, दिन के काम करते समय भी, दैनंदिन जागरण में भी, तुम्हारे भीतर कोई साक्षी मौजूद है।

ऐसा होगा भी; क्योंकि जो तुम्हारा स्वभाव है, उसे तुम, कितने ही गहरे सो जाओ, तो भी खो न सकोगे। जो तुम हो, वह तो मौजूद ही रहेगा; दब जाए, छिप जाए, विस्मरण हो जाए, नष्ट नहीं हो सकता।

तो चाहे नींद हो, चाहे स्‍वप्‍न, चाहे तथाकथित दैनंदिन जागरण, पीछे गहरे में तुरीय सदा मौजूद है; गहरे में तुम सदा ही बुद्ध हो; ऊपर तुम कितने ही भटक जाओ, वह सब भटकाव परिधि का और लहरों का है। गहरे में तुम कभी भी भटके नहीं हो; क्योंकि गहरे में भटकने का कोई उपाय नहीं।

इसलिए तुरीय को पाना नहीं है, केवल आविष्कृत करना है। तुरीय को उपलब्ध नहीं करना है, केवल अनावृत्त करना है। वह छिपी पड़ी है; जैसे कोई खजाना दबा हो, सिर्फ मिट्टी की थोडी—सी परतें हटा दें और तुम सम्राट हो जाओ। कहीं खोजने नहीं जाना है; तुम्हारा खजाना तुम्हारे भीतर है। और इसकी झलक भी तुम्हें निरंतर मिलती रहती है, लेकिन तुम उस झलक पर ध्यान नहीं देते।

सुबह उठकर तुम कहते हो कि रात बड़ी गहरी नींद आयी, बड़ा आनंद हुआ, नींद बड़ी सुखद थी। जब तुम यह कहते हो, क्या तुमने कभी खयाल किया कि कौन है जो जानता है कि नींद बड़ी सुखद थी? अगर तुम पूरे ही सो गये थे, तो सुबह कौन याद करेगा? अगर तुम बिलकुल ही सो गये थे, तो स्मृति किसको होगी? यह कौन कहता है कि रात नींद बहुत गहरी आयी, बड़ी आनदपूर्ण थी? कोई जरूर नींद की गहराई में भी देखता रहा। नींद की गहराई में भी कोई टिमटिमाता प्रकाश जलता रहा है। अंधकार पूरा नहीं था; अंधकार देखा गया है।

रात तुम सपने देखते हो; सुबह उनकी याद, उनकी झलक कायम रह जाती है। सुबह उठकर तुम कहते हो, रात बड़ा दुखद स्‍वप्‍न देखा। तो देखनेवाला अलग था; सपने में तुम खो नहीं गये थे। तुम सपना ही नहीं हो गये थे। तुम दर्शक थे। सपना चला होगा अंतरात्मा के रंगमंच पर; लेकिन तुम नाटक के बाहर थे, अन्यथा याद न बनती।

दिन में भी क्रोध पकडता है, तो ऐसा नहीं कि तुम बिलकुल ही सोये हुए हो; भीतर झलकें आती हैं। जब क्रोध पकड़ता है, तब भी तुम जानते हो कि क्रोध पकड़ रहा है। पकड़ने के पहले भी जब धुआं अभी आने के करीब हुआ है, तब भी तुम जानते हो कि अब क्रोध आने को है। जैसे वर्षा आने के पहले आकाश बादल से घिर जाता है, वैसे तुम्हें भी लगने लगता है, अब क्रोध आने के करीब है।

जब तुम मोह से भरते हो, तब भी; जब तुम शांत होते हो, तब भी; जब अशांत होते हो तब भी, तुम्हारे भीतर कोई देख रहा है। लेकिन इस देखनेवाले पर तुमने ध्यान नहीं दिया। तुम्हारा ध्यान दृश्य की तरफ बह रहा है। जो दिखाई पड़ता है, तुम उसमें ही लीन हो। जो देखता है, उस तरफ मुड़कर तुमने नहीं देखा। बस, इतना ही करने का है और तुम्हारी बेहोशी टूट जायेगी, तुरीय उपलब्ध हो जायेगा; और जिसे मिल गया तुरीय, उसे सब मिल गया। जिसे नहीं मिला तुरीय—वह चौथी ध्यान की जागृत अवस्था न मिली—वह जीवन में सब कुछ कमा ले, सब कुछ इकट्ठा कर ले, मृत्यु के क्षण में पायेगा कि वह सब कमाना, सब इकट्ठा करना, दो कौड़ी का सिद्ध हुआ है।

मैने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन भागा हुआ नदी के तट पर पहुंचा। यात्रा पर जाना था। जल्दी में था। और डर था कि कहीं नाव छूट न जाए। खुश हो गया। कुछ ही कदम दूर था कि देखा कि नाव बस छूटी ही है। छलांग लगाकर नाव पर सवार हो गया। पैर फिसला; गिर पड़ा—चारों खाने चित्त। कपड़े फट गये। कुहनियां खून से रक्तरंजित हो गईं। फिर भी खुशी से उठकर खड़ा हो गया और आनंद—भाव से चकित यात्रियों से कहा, ‘ आखिर पहुंच ही गया। थोड़ी देर हो गयी थी, लेकिन नाव पकड़ ली।’ यात्री कहने लगे, ‘ हम समझ नहीं पाते, नसरुद्दीन! इतनी जल्दी क्या है? यह नाव जा नहीं रही है, आ रही है।’

मृत्यु के क्षण में तुम पाओगे कि जिंदगी भर जो दौड़ तुमने की, भागे, पहुंच गये—वह नाव जाने वाली नहीं है; वह किनार पर ही आ रही है। लेकिन तब बहुत देर हो जायेगी। तब कुछ करते न बनेगा। अभी समय है। अभी कुछ किया जा सकता है।

और मौत के पहले जो जाग गया, उसकी फिर कोई मौत नहीं। और जो मौत तक सोया रहा उसका कोई जीवन नहीं; उसका जीवन एक लंबा स्‍वप्‍न है, जो मृत्यु तोड़ देगी। जो जाग गया जीते जी, उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं; क्योंकि जो जाग गया, उसने अपने भीतर के स्वभाव को देखा और अनुभव किया कि वह अमृत है।

लेकिन जिंदगी बेहोश—बेहोश चलती है। तुम नशे—नशे में चलते हो। तुम कहां जा रहे हो, यह बहुत साफ नहीं; क्यों जा रहे हो, यह भी बहुत साफ नहीं।

दो भिखमंगे राह के किनारे बैठे बात करते थे। मैंने उनकी बात अचानक सुन ली। उनमें से एक पूछ रहा था कि जिंदगी का प्रयोजन क्या है, किसलिए है जिंदगी? दूसरे ने कहा, जीने के सिवाय और कुछ कर भी क्या सकते हो।

तुम भी उस दूसरे से राजी हो कि जिंदगी में जीने के सिवाय और कर भी क्या सकते हो। और जीना भी तुम्हारे हाथ में नहीं है; अनंत—अनंत स्थितियों पर निर्भर है। वह सब अचेतन है। क्यों तुम्हारे भीतर कामवासना उठी; क्यों तुमने परिवार बनाया; क्यों लोभ जगा; क्यों तुमने धन इकट्ठा किया; क्यों क्रोध उठा; क्यों तुमने शत्रु निर्मित किये; क्यों तुमसे अपराध हुआ; क्यों तुमने बेईमानी की—कुछ भी साफ नहीं है। तुम जैसे एक कठपुतली हो, धागे किसी और के हाथ में हैं; जैसे कोई और तुम्हें नचाता है और तुम नाचते हो। तुम्हें वहम भर है कि मैं नाच रहा हूं।
अपनी जिंदगी को गौर से देखो तो तुम पाओगे, तुम कठपुतली से ज्यादा नहीं हो। और ऐसी कठपुतली की जिंदगी में क्या सत्य की कोई घटना घट सकती है जो अपना मालिक भी न हो?

एक संध्या ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन और उसके दो मित्र भागे ट्रेन पकड़ने को। नसरुद्दीन चूक गया; पैर फिसला, गिर गया। दो चढ़ गये। स्टेशन मास्टर ने आकर उसे उठाया और कहा, ‘नसरुद्दीन, दुख की बात है कि तुम चूक गये! ‘नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरे लिए दुखी मत हो। वे दो जो चढ़ गये हैं, मुझे पहुंचाने आये थे। मैं तो दूसरी ट्रेन भी पकड़ लूंगा; उनका क्या होगा?’
तीनों नशे में धुत्त थे।
यहां बड़ी हैरानी की बात है, जो चढ़ गया है, जो सफल हो गया है, पका मत समझना कि वह कहीं पहुंच जायेगा। जो असफल हो गया, नहीं चढ़ पाया, पका मत समझना कि उसका कुछ खो गया है। यहां चढ़नेवाला, न चढ़नेवाला, सफल असफल, जीत गया, हारा हुआ—सब एक—से बेहोश हैं। जिंदगी के आखिर में हिसाब बराबर हो जाता है। सफल—असफल सब बराबर हो जाते है। धनी—गरीब सब बराबर हो जाते हैं। मौत तुम्हें बिलकुल साफ कोरी स्लेट की भांति कर देती है।

सिर्फ एक व्यक्ति को मौत नहीं बराबर कर पाती—वह वह है, जिसने तीन के भीतर छिपे हुए चौथे को पहचान लिया; क्योंकि उसकी कोई मृत्यु नहीं। वही, बस सफल हुआ, शेष सभी असफल हैं—चाहे नेपोलियन, चाहे सिकंदर—वे सभी असफल हैं। सिर्फ कोई बुद्ध—पुरुष कभी सफल होता है।

यहां सफलता बस एक है कि तुमने उसे जान लिया जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। जो मृत्यु से नष्ट हो जाये, उसे तुम असफलता समझना; इसे असफलता की व्याख्या बना लेना। तुम्हारे पास कुछ है, जो मृत्यु तुमसे न छीन पायेगी? इस पर निरंतर विचार करना—मेरे पास कुछ है, जो मृत्यु मुझसे न छीन पायेगी? और अगर तुम पाओ, कुछ भी नहीं है, तो जल्दी करना। अगर तुम पाओ कि सभी कुछ ऐसा है जो मृत्यु छीन लेगी, तो समय खोना अब उचित नहीं; जागने की घड़ी आ गयी!

दिन—जिसको तुम जागरण कहते हो, तुम्हारा दिन; स्‍वप्‍न, तुम्हारी रात और तुम्हारी निद्रा जहां स्‍वप्‍न भी खो जाते है—ये तीनों ही मृत्यु में बुझ जायेंगी। इन तीनों का तुमसे कोई संबंध नहीं। जैसे सूरज के चारों तरफ बादल घिर गये हों, ऐसे ही इन तीनों ने तुम्हारे सूरज को घेरा है। और अगर इन तीनों में ही तुमने अपने जीवन को नियोजित कर दिया तो मृत्यु के क्षण में तुम पाओगे कि तुम दीन—दरिद्र मर रहे हो। लेकिन अगर तुमने सूरज की किरण पकड़ लीं—स्थ किरण भी पकड़ ली—तो सूरज ज्यादा दूर नहीं है। तब बादलों की तरफ तुम्हारी पीठ हो जायेगी और सूरज की तरफ तुम्हारा मुंह हो जायेगा।

पहला सूत्र है : तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था का तेल की तरह सिंचन करना चाहिए।


तीनों अवस्थाओं में—चाहे जागो, चाहे सोओ, चाहे सपना देखो—चौथे की स्मृति को जगाते रहना चाहिए, ध्यान चौथे पर रहे। परिधि पर कुछ भी घटता रहे, नजर केंद्र पर लगी रहे। होश उठते—बैठते संभाले रखना। भोजन करते, घर जाते, दुकान जाते—होश संभाले रखना। एक बात खयाल रखना कि मैं द्रष्टा हूं कर्ता नहीं हूं। जीवन को एक अभिनय से ज्यादा मत समझना। अभिनय के साथ बहुत एकात्म मत हो जाना।

तुम पति हो या पली हो, दुकानदार हो कि गाहक हो—इसमें बहुत मत खो जाना। तुम्हारा पति होना या पत्नी होना, दुकानदार या ग्राहक होना एक अभिनय का हिस्सा है। लेकिन भीतर तुम बाहर बने रहना। जाना दुकान; जरूरी है, खेल प्यारा है, कुछ तोड्ने की जरूरत भी नहीं; मगर खेल की तरह प्यारा है, जीवन की तरह घातक है। ठीक है, जो खेल मिला है, उसे पूरा कर देना; भगोड़े मत बनना; बीच में भागने की कोई जरूरत नहीं। 

भगोडे हमेशा कमजोर हैं। और जिन्हें तुम साधु—संन्यासी कहते हो, वे अक्सर भगोड़े हैं। वे कमजोर हैं, जो जिंदगी में टिक न पाये और जो जिंदगी में द्रष्टा को न संभाल पाये, इसलिए भाग गये हैं। भागने से कोई संन्यासी नहीं होता। भागने से केवल इतना ही बताता है कि संसार ज्यादा ताकतवार था और वह कमजोर था। दुकान पर न जाग सका, काम— धंधा करते हुए न जाग सका, इसलिए भाग गया है।
लेकिन, अगर तुम दुकान पर न जाग सकोगे, तो पहाड़ में कैसे जाग जाओगे? जागने की क्रिया तो एक ही है। तुम कहां हो इससे कोई भी संबंध नहीं है। तुम क्या कर रहे हो, इससे भी कोई संबंध नहीं है। यह असंगत है। जागने की क्रिया तो एक है—चाहे तुम दुकान पर बैठकर जागो; चाहे तुम मंदिर मैं बैठकर जागो; चाहे तुम मखमल की गद्दियों पर बैठकर जागो; चाहे वृक्ष के नीचे बैठकर जागो—जागने की क्रिया तो एक है। जागने की क्रिया यह है कि जो भी कृत्य हो रहा है, मैं उस कृत्य से पृथक हूं—वह कृत्य दुकान का है, काम का है, प्रार्थना का है, पूजा का है, कोई फर्क नहीं पडता। कृत्य मुझसे अलग है, वह संसार का हिस्सा है और मैं देखनेवाला हूं। कृत्य में इतने लीन न हो जाना कि कृत्य ही बचे और साक्षी खो जाये। अभी ऐसा ही हुआ है।

यह सूत्र कहता है : तीनों अवस्था में चौथी को सिंचन करते रहना। धीरे— धीरे सींचते—सींचते चौथी का वृक्ष खड़ा हो जायेगा। पहले शुरू करना जाग्रत से; क्योंकि वही चौथी के निकटतम है। उसमें थोड़ी—सी किरण जागने की है। थोड़ा—सा होश है। उस किरण का उपयोग करना। नींद में तो तुम कैसे जाग सकोगे एकदम से? सपने में कैसे जागोगे?

तो पहले जागने से शुरू करना। जागने में एक प्रतिशत होश है, निन्यानबे प्रतिशत बेहोशी है। इस एक प्रतिशत का उपयोग करना; इसको सींचना। जब भी दिन में मौका आ जाये, तो अपने को झकझोरकर जगा लेना। बार—बार खो जायेगी स्थिति। फिर तुम भूल जाओगे। फिर एक झटका देना और अपने को जगा लेना। जैसे कोई आदमी बाजार जाता है सामान खरीदने, भूल न जाये, कपडे पर गांठ लगा लेता है, ऐसे तुम भूल न जाओ, तो हर जगह अपनी चेतना पर एक गांठ लगा लेना। हर जगह—कुछ भी कर रहे हो—एक दफा खयाल कर लेना, कि मैं करनेवाला नहीं हूं सिर्फ देखनेवाला हूं।

ऐसा खयाल आते ही तुम पाओगे, सब तनाव खो गया। सब तनाव कर्तृत्व का है, अहंकार का है। जैसे ही तुम्हें लगेगा, मैं देखनेवाला हूं तनाव खो जायेगा। एक क्षण को भी खोयेगा, तो भी झलक आयेगी। भीतर सागर लहरें लेने लगेगा। बार—बार खोयेगा क्योंकि जन्मों—जन्मों से तुमने बेहोशी साधी है, तोड्ने में समय लगेगा। मगर अगर तुमने सतत सिंचन किया और दिन में दस—बीस मौके पर भी तुम जरा—सी भी देर को जाग गये, रास्ते पर चलते हुए खड़े हो गये और तुमने साक्षी—भाव से देखा; भोजन करते हुए अपने को हिला लिया, जगा लिया; और साक्षी भाव से देखा, दुकान पर बैठे हुए, गाहक से बात करते हुए, भूले ही जा रहे थे कि तुमने अपने को संभाल लिया—तो तुम धीरे— धीरे पाओगे कि आसान होती जाती है बात; रोज—रोज आसान होती जाती है। और दिन में कभी—कभी झलकें आने लगेंगी तुरीय की।

जब दिन में तुरीय सरल हो जायेगा, तब तुम सपने में भी उसका उपयोग कर सकोगे। तब रात सोते वक्त, एक ही खयाल रखकर सोना कि मैं देखनेवाला हूं मैं द्रष्टा हूं। नींद आने लगे, आने लगे, तुम्हारे भीतर एक ही स्वर गूंजता रहे कि मैं साक्षी हूं मैं साक्षी हूं मैं साक्षी हूं। इस भाव को पुनरुक्त करते हुए तुम सो जाना। तुम्हें पता भी न चले कि कब नींद लग गयी और कब यह भाव— धारा टूटी। अगर तुम इस भाव— धारा को संभालते चले गये, संभालते चले गये, नींद आ जायेगी, भाव— धारा जारी रहेगी। क्योंकि भाव— धारा तुम्हारे भीतर चल रही है, नींद तो शरीर को आती है। अगर भाव— धारा भीतर जारी रही तो एक दिन तुम अचानक स्‍वप्‍न में भी अनुभव करोगे कि मैं देखनेवाला हूं।
और जैसे ही तुम अनुभव करोगे, अनूठी प्रतीति होगी; स्‍वप्‍न तत्‍क्षण टूट जायेगा। जैसे ही तुम्हें यह खयाल आयेगा स्‍वप्‍न में कि मैं देखनेवाला हूं वैसे ही स्‍वप्‍न बंद हो जायेगा। स्‍वप्‍न चलता ही तुम्हारी बेहोशी से है। और जब ऐसा रूप में होने लगे, तब तीसरी घटना संभव होती है कि तब तुम रूप को देखते रहना, और भीतर स्मरण करते रहना कि मैं साक्षी हूं स्‍वप्‍न खो जायेगा। तुम भीतर स्मरण जारी रखना कि मैं साक्षी हूं मैं साक्षी हूं नींद पुन: आ जायेगी और अब नींद में भी यह धारा प्रविष्ट हो जायेगी। और जिस दिन नींद में यह धारा प्रविष्ट हो जाती है कि मैं साक्षी हूं तुम्हारे हाथ परम खजाने की कुंजी लग गयी। अब तुम्हें कोई भी बेहोश न कर पायेगा। जो नींद में एक क्षण को भी जाग गया, अब उसकी बेहोशी बिलकुल टूट जायेगी।

जिस दिन तुम नींद में जागोगे, उस दिन तुम योगी हो गये। योगी कोई आसन करने से नहीं होता। वह सब व्यायाम है; अच्छा है; शरीर के लिए स्वास्थ्यप्रद है; करें तो बुरा नहीं। लेकिन शरीर के व्यायाम को ही अगर कोई योग समझ लेता हो तो वह बड़ी भांति में पड़ गया है। योग का अर्थ है. निद्रा में जो जाग्रत हो जाये, वही योगी है। उसके पहले कोई योगी नहीं है।

यह सूत्र कहता है : तीनों अवस्थाओं में चौथे का तेल की भांति सिंचन करते रहना। एक न एक दिन वह अनूठी घटना घट जायेगी! जब तुम्हें नींद में भी जागरण होगा तो चौथे में स्थिर हो जाओगे। जब कोई चौथे में स्थिर हो जाता है, तो ऐसी अवस्था हो जाती है, जैसे दीया जल रहा हो और कोई हवा का झोंका न हो और दीये की ली अकंप हो जाये, जरा भी न कंपती हो—ऐसी तुम्हारी प्रज्ञा होगी; ऐसा तुम्हारा ज्ञान होगा; ऐसी तुम्हारी आत्मा होगी— अकंप, प्रकाश से भरी। फिर तुम उठोगे, जागोगे, सोओगे, कई बातों में रूपांतरण हो जायेगा।

पहली बात—जो नींद में जाग जायेगा उसके स्‍वप्‍न सदा के लिए समाप्त हो जायेंगे। बुद्ध पुरुष स्‍वप्‍न नहीं देखते। तो पहली घटना यह घटेगी—नींद में जागने पर, स्‍वप्‍न में जागने पर, जिस स्‍वप्‍न में जागने, वह टूट जायेगा, लेकिन दूसरे सपने जारी रहेंगे। निद्रा में जागने पर, जब कोई स्‍वप्‍न भी न था, सिर्फ सुषुप्ति थी, तब जागने पर फिर सभी सपने खो जायेंगे। फिर तुम रात सपने न देखोगे।
यह घटना घटेगी। स्‍वप्‍न सब गिर जायेंगे, क्योंकि स्‍वप्‍न वासना से घिरा हुआ चित्त देखता है।

स्‍वप्‍न है क्या?—जिसे तुम दिन में पूरा नहीं कर पाते, उसे तुम रात सपने में पूरा कर लेते हो। सभी सम्राट नहीं हो सकते; बड़ा संघर्ष है, बड़ी प्रतियोगिता है; तो भिखारी रात सपना देख लेते हैं सम्राट होने का। और कुल जोड़ बराबर हो जाता है। क्योंकि कोई आदमी दिन भर सम्राट रहा, आठ घंटे रात सोयेगा तो, सपना तो देखेगा। तब उसका सब साम्राज्य खो जायेगा। भिखमंगा रात आठ घंटे सोता है, वह सपना देखता है कि मैं सम्राट हूं। आखिरी हिसाब बराबर है।

ऐसा हुआ कि औरंगजेब एक फकीर पर बहुत नाराज था। और एक दिन उसने फकीर को पकड़वा कर महल बुलवा लिया। और लोगों ने कहा था, इस फकीर को नाराज करना तक मुश्किल है। औरंगजेब ने कहा, देखेंगे। सर्द रात थी—दिल्ली की सर्द रात। महल में राग—रंग चलता रहा और फकीर को नग्न करवाकर यमुना में खड़ा करवा दिया। और औरंगजेब ने कहा कि सुबह पूछेंगे।

रातभर फकीर नग्न बर्फीली नदी में खड़ा रहा। सुबह औरंगजेब ने पूछा, ‘कहो, कैसी बात?’ फकीर ने कहा, ‘कुछ तुम जैसी, कुछ तुमसे अच्छी! ‘औरंगजेब ने पूछा, ‘मैं समझा नहीं’, फकीर ने कहा, ‘सपने आते रहे। उनमें मै सम्राट था। महलों में था, राग—रंग चल रहा था। उन सपनों में और तुम्हारे राग—रंग में जो महल में चल रहा था, जरा भी भेद नहीं है। मैंने उतना ही मजा लिया, जितना तुम लिये। तो कुछ तुम जैसी, कुछ तुमसे अच्छी; क्योंकि बीच—बीच में होश आ गया और सपना टूट गया। तुम्हें अभी होश जरा भी नहीं आया।’

रात तुम वही तो पूरा करते हो, जो दिन में चूक जाता है। दिन के अधूरे कृत्य रात में पूरे किये जाते हैं। दिन में जो वासनाएं तुम पूरी न कर पाये, क्योंकि कठिनाइयां हैं। और वासनाएं पूरी करना आसान नहीं है, क्योंकि वासनाएं दुष्‍पूर हैं। और ऐसी हैं कि उनके पूरे होने का कोई उपाय ही नहीं, उनका स्वभाव ही पूरा होना नहीं है। तुम्हें सारी दुनिया की संपत्ति मिल जाये, तो भी पूरी न होगी।

कहते हैं, सिकंदर को डायोजनीज ने कहा, ‘सिकंदर, जिस दिन तू सारी दुनिया जीत लेगा, बड़ी मुश्किल में पड़ेगा। यह काम छोड़ ही दे। जब तक जीता नहीं, तब तक मुश्‍किल में हो, जब जीत लेगा तो और भी मुश्किल में पड़ेगा।’ सिकंदर—कहते हैं—उदास हो गया। और उसने डायोजनीज से कहा, ‘ऐसी बातें मत करो। क्योंकि यह खयाल ही कि सारी दुनिया मैंने जीत ली, मुझे उदास करता है; क्योंकि फिर कोई और दूसरी दुनिया तो जीतने को है नहीं। सारी दुनिया जीतकर भी मन भरेगा नहीं। मन कहेगा—अब क्या? अब क्या जीते? और मन उदास होगा।’
सपने सम्राट भी देखते हैं, भिखमंगे भी देखते हैं। क्योंकि अधूरा जो रह गया, वह सपने में पूरा कर लेना पड़ता है। सपने का एक गुण है। सपना बड़ा दयालु है। सपना तुम पर बड़ी कृपा करता है। अगर तुमने दिन में उपवास किया है, किन्हीं साधु—संन्यासियों के चक्कर में पड़कर और तुम भूखे मरे, तो रात तुम राज—भोज में सम्मिलित हो जाओगे। सपना तुम्हारे साधुओं से ज्यादा दयालु है। वह तुम्हें राज—भोज में बुला लेगा। बढ़िया से बढ़िया मिष्ठान्न जो तुम्हें कभी नहीं मिले, सुंदर से सुंदर भोजन, तुम कर पाओगे। और उनके स्वाद में और असली भोजन के स्वाद में जरा भी अंतर नहीं है। शायद थोड़ा उनका स्वाद ज्यादा ही है। तुम अगर स्रियों के पीछे दौड़ते रहे और तुम उन्हें नहीं पा सके तो सपने में तुम उन्हें पा लोगे। दुनिया की सुंदरतम स्रियां तुम्हारी हो जायेंगी या सुंदरतम पुरुष तुम्हारे हो जायेंगे।

सपना, तुम्हें द्वार खोल देता है—तुम्हारी सारी वासनाओं को पूरा कर लो। और आदमी अगर साठ साल जीता है, तो बीस साल सोता है। बीस साल जागता है। बीस साल दूसरे कामों में व्यतीत होते हैं। अगर बीस साल सपने में तुम सम्राट रहते हो और कोई आदमी जागकर सम्राट रहता है, तो फर्क क्या है? हिसाब बराबर है। शायद जागने में जो सम्राट रहता है, वह झंझटों में सम्राट रह भी नहीं पाता; तुम निश्‍चित भाव से सम्राट रहते हो सपनों में।

सपने उसी दिन खोते हैं, जिस दिन कोई नींद में जाग जाता है—तब सपने व्यर्थ हो जाते हैं। क्योंकि नींद में जो जाग गया, अब उसकी कोई वासना न रही। सब वासनाएं मूर्च्छा के हिस्से हैं, बेहोशी के हिस्से हैं।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन ट्रेन से उतरा। चक्कर खाता हुआ—सा मालूम होता था। किसी मित्र ने पूछा कि बीमार लग रहे हो, क्या बात है। नसरुद्दीन ने कहा कि जब भी मैं ट्रेन में सवार होता हूं और कभी उलटी यात्रा करनी पड़ती है—जिस तरफ ट्रेन जा रही है, उस तरफ मुझे पीठ रखनी पड़ती है—तो मुझे वमन, और चक्कर और सिरदर्द पैदा हो जाता है। तो उस मित्र ने कहा, ‘भले आदमी, सामने के आदमी से पूछा लिया होता कि भई मै जरा तकलीफ में हूं जगह बदल लें।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘वह मैंने भी सोचा था, लेकिन सामने की सीट खाली थी, वहां कोई आदमी नहीं था। पूछने का मैंने भी सोचा था।’

जिंदगी में तुम जो कर रहे हो, करीब—करीब ऐसा ही बेहोश है। धुत्त हो एक नशे में। इस नशे को कहीं न कहीं से तोड़ना जरूरी है।
कहां से तुम शुरू करोगे? जागृति से शुरू करो। सुबह उठो, एक ही भाव से उठो कि आज दिन साक्षी का प्रयोग करूंगा। और जब पहली दफा तुम्हें सुबह नींद खुलती है, तब चित्त बड़ा ताजा होता है, हलका होता है; न विचार होते हैं, न सपने होते हैं। रातभर के विश्राम के बाद, तुम्हारे भीतर भी एक सुबह होती है, बाहर भी एक सुबह होती है। तनाव नहीं होते। आकाश में बादल नहीं होते। तुम हलके होते हो। जल्दी ही काम की, दौड़ की दुनिया शुरू होगी, फिर मुश्किल होगा।

तो जैसे ही तुम्हें पता चले, सुबह की नींद टूट गयी, आंख मत खोलना। उस वक्त चित्त बहुत संवेदनशील है। जैसे ही पता चले कि नींद टूट गयी, पहला ध्यान करना कि मैं साक्षी हूं। रोज सुबह उठते समय पांच मिनट आंख बंद किये ही पड़े रहना। आंख मत खोलना। आंख खोलते ही संसार दिखाई पड़ा कि तुम खो जाओगे। आंख बंद ही रखना और भीतर एक भाव करना कि मैं साक्षी हूं कर्त्ता नहीं हूं। और यह साक्षी— भाव दिन भर सधे, बारबार इसका मैं स्मरण कर सकूं—ऐसे भाव में डूबे हुए तुम उठना और थोड़ी देर इसे संभालने की कोशिश करना; क्योंकि शुरू—शुरू में सबसे ज्यादा आसान होगा। उठो, बिस्तर के नीचे पैर रखो—होशपूर्वक रखना; खान करने जाओ—होशपूर्वक सान करना; सुबह का नाश्ता करो—होशपूर्वक नाश्ता करना।

होशपूर्वक का अर्थ है कि यह सब मेरे बाहर हो रहा है। शरीर की जरूरत हैं मेरी नहीं। मेरी कोई जरूरत ही नहीं है। है भी नहीं; क्योंकि तुम स्वयं परमात्मा हो, तुम्हारी क्या जरूरत हो सकती है? तुम पूर्ण हो। तुम ब्रह्मस्वरूप हो। सब कुछ तुम्हारा है। तुम्हारी कोई भी जरूरत नहीं। आत्मा किसी जरूरत से नहीं चलती। उसके लिए कोई ईंधन की जरूरत नहीं है—बिना बाती बिन तेल। मेरी कोई जरूरत नहीं है; शरीर की जरूरत है—स्नान, भोजन, उठना, काम।

इसे संभालने की कोशिश करना। इस धागे को जितनी देर तक खींच सको, खींचना। जल्दी यह खो जाएगा। काम— धाम की दुनिया है। पुरानी आदत है। मगर रोज—रोज इसको सींचना। यह पौधा धीरे— धीरे बड़ा होगा। दिखाई भी नहीं पड़ेगा कि कब बड़ा हो रहा है, क्योंकि इतने धीमे— धीमे बढ़ेगा। लेकिन अचानक एक दिन तुम पाओगे कि दिनभर एक धागे की तरह, तुम्हारे भीतर प्रकाश की एक किरण बनी रहती है। और वह प्रकाश की किरण तुम्हारे जीवन को रासायनिक रूप से बदल देगी। क्रोध कम आयेगा; क्योंकि साक्षी को कैसा क्रोध! मोह कम पकड़ेगा; क्योंकि साक्षी को कैसा मोह! चीजें घटेंगी—सफलता—असफलता होगी, सुख—दुख आयेंगे; लेकिन तुम कम डावांडोल होओगे क्योंकि साक्षी का कैसा कंपन। सुख आयेगा, उसे भी तुम देख लोगे; दुख आयेगा, उसे भी देख लोगे और तुम्हारे भीतर सतत धारा बनी रहेगी कि मैं देखनेवाला हूं भोक्ता नहीं हूं।

कोई भी नहीं कह सकता कि कितना समय लगेगा। तुम्हारी त्वरा, तीव्रता, तुम्हारी सघन आकांक्षा, अभीप्सा पर निर्भर करेगा। कैसे तुम चलते हो; दौड़ते हो कि चींटी की चाल चलते हो; क्योंकि अक्सर धर्म की दुनिया में लोग बाराती की चाल चलते हैं। बाराती की चाल से कहीं पहुंचोगे नहीं। बाराती की चाल ठीक है; क्योंकि बारात को कहीं पहुंचना ही नहीं है। वे ऐसे ही गांव का चक्कर लगाकर वहीं के वहीं आ जाते हैं।

ईसप हुआ—स्थ बोध कथाकार, उसने जैसी बोध—कथाएं लिखीं, दुनिया में किसी ने भी नहीं लिखीं। वह आदमी बड़ी प्रज्ञा का था। एक किनारे बैठा था रास्ते के एक दिन। एक आदमी निकला और उसने पूछा कि भाई मेरे, बता सकोगे कि गांव कितना दूर है और मैं कितनी देर में पहुंच जाऊंगा। ईसप कुछ भी न बोला; सिर्फ, उठकर उस आदमी के साथ चलने लगा। वह आदमी थोड़ा डरा भी। उसने कहा कि मैंने पूछा है कि गांव कितनी दूर है, मैं कितनी देर में पहुंच जाऊंगा। तुम कुछ उत्तर दो, तुम्हें चलने की कोई जरूरत नहीं है मेरे साथ।

लेकिन ईसप चुपचाप उसके साथ चलता रहा। कोई पंद्रह मिनट बाद ईसप ने कहा कि दो घंटे लगेंगे। उस आदमी ने कहा कि पागल आदमी हो। यह बात तुम वहीं कह सकते थे। मेरे साथ मील भर आने की जरूरत न थी। ईसप ने कहा कि जब तक तुम्हारी चाल न देख लूं तब तक कैसे बताऊं कि कितनी देर लगेगी। रास्ते की लंबाई से थोड़ी तय होता है; आदमी की चाल…! अब मैं निशित भाव से कहता हूं कि दो घंटे लगेंगे।

तुम्हारी चाल पर निर्भर करेगा। तुम दौड़ भी सकते हो—तुम जल्दी पहुंच जाओगे। तुम बाराती की चाल से भी चल सकते हो—तब तुम कब पहुंचोगे, कुछ कहना मुश्किल है। तुम्हारी तेजी इतनी भी हो सकती है कि एक क्षण में तुम छलांग लगा जाओ। और तुम इतने मंदे—मंदे भी, कुनकुने भी उबल सकते हो कि अनंत जन्म लग जाएं और तुम न पहुंचो। अगर तुम पूरी त्वरा से, समग्र भाव से, पूरे प्राणों से, कुछ भी न बचाओ भीतर और सभी दांव पर लगा दो, तो अभी पहुंच जाओगे—इसी क्षण; क्योंकि यह यात्रा कोई बाहर की यात्रा नहीं है। यह यात्रा तो भीतर की है—जहां तुम हो ही, सिर्फ नजर फेरने की बात है। फासला जरा भी नहीं है। मगर अगर नजर ही फेरने में तुम देर लगाओ; स्थगन करो, कहो कि कल करेंगे, परसों करेंगे, तो फिर ऐसे अनंत जन्म जा चुके हैं, अनंत और जा सकते हैं।

और ध्यान रहे, प्रकृति को तुम्हारी धार्मिक उपलब्धि में कोई उत्सुकता नहीं है। मनुष्य जहां तक आ गया है, वहां तक प्रकृति ले आती है; इसके पार तुम्हें जाना हो, तो तुम्हारा ही श्रम ले जायेगा। प्रकृति तुम्हें पशु बनाती है, उससे आगे नहीं। उतना काम प्रकृति कर देती है। मनुष्यत्व तो अर्जित करना होता है। और इसलिए आदमी बड़े संकट में है; बड़े संकट में जीता है!

सभी पशु शांत है, आदमी को छोड़कर; क्योंकि प्रकृति ने काम पूरा कर दिया और उन्हें कहीं जाना नहीं है। तुम किसी कुत्ते से यह नहीं कह सकते हो कि तुम दूसरे कुत्तों से कम कुत्ते हो। सभी कुत्ते बराबर कुत्ते हैं; दुबले हों, मोटे हों, ताकतवर हों, कमजोर हों, लेकिन कुत्तेपन में कोई फर्क नहीं है। लेकिन सभी आदमी बराबर आदमी नहीं है। आदमीयत में फर्क है। दुबला—पतला आदमी भी बहुत बड़ा आदमी हो सकता है। मोटा—तगड़ा आदमी भी बिलकुल छोटा आदमी हो सकता है।

एक नया गुणधर्म शुरू होता है आदमी के साथ। किस बात से तय होता है? जितना होश हज़ेग्र, उतनी ही ज्यादा मनुष्यता फलित होगी। और जिस दिन तुम परिपूर्ण होश से भर जाओगे, उस क्षण दिव्य हो जाओगे। खतरा भी बडा है; क्योंकि जो ऊपर उठ सकता है, वह नीचे भी गिर सकता है। सिर्फ वही नीचे गिर सकता है जो ऊपर उठ सकता है; जो ऊपर नहीं उठ सकता, वह नीचे भी नहीं गिर सकता है। इसलिए तुम जानवरों में बुद्ध, महावीर, कृष्ण को न पाओगे; लेकिन तुम्हें वहां हिटलर, स्टैलिन, नेपोलियन और चंगेज खां भी न, मिलेंगे। क्योंकि जब बुद्धत्व नहीं हो सकता, तो चंगेज खां होने का भी उपाय नहीं है। जहां पर्वत—शिखर होते हैं, वहीं खाइयां होती हैं।

टोकियो में एक अजायबघर है। सारी दुनिया के पशु वहां इकट्ठे हैं। बड़ा अजायबघर है, बड़े से बड़ा अजायबघर है। खतरनाक से खतरनाक पशु—सिंह, बर्बर सिंह, चीते, हाथी, गैंडे, जंगली जानवर, हिपोपोटैमस और सब तरह के जानवरों का बड़ा विस्तार है। पूरे अजायबघर को घूमने के बाद आखिरी जो कठघरा है, उस पर एक तख्ती लगी है—दि मोस्ट डेंजरस एगइनमल आफ आल, सब जानवरों से खतरनाक जानवर। तुम एकदम तेजी से कदम बढ़ाओगे कि कौन—सा जानवर वहां बंद है। और वहां तुम सिर्फ एक दर्पण पाओगे, जिसमें तुम्हारी तस्वीर दिखाई पड़ेगी। वह कठघरा खाली है।

आदमी निश्‍चित ही सबसे खतरनाक जानवर है। क्योंकि उसमें दिव्य होने की क्षमता है, इसलिए नीचे गिरने का उपाय है। अगर तुम ऊपर न चढे, तो तुम जहां हो वहीं न रह सकोगे; तुम नीचे गिरोगे। यहां ठहराव नहीं है जगत में। यहां कोई ठहर नहीं सकता। या तो बढ़ो ऊपर या नीचे गिरोगे। यहां मध्य में रुकने की कोई जगह नहीं है। और इसलिए अगर तुम चेतना की तरफ नहीं जा रहे हो, तो तुम धीरे— धीरे मूर्च्छा की तरफ जाओगे।

बड़ी आश्चर्य की और बड़ी दुख की घटना है कि छोटे बच्चे ज्यादा चेतन होते हैं बजाय को के। क्या घटना घट जाती है? होना तो चाहिए उलटा कि जीवनभर के अनुभव के बाद बूढ़ा आदमी ज्यादा सचेत हो जाये, सावधान हो जाये लेकिन होता उलटा है—ज्यादा चालाक हो जाता है। अनुभव से ज्यादा बेईमान हो जाता है; ज्यादा चोर, ज्यादा कुशल हो जाता है संसार में।

एक बूढ़ा कौआ अपने बेटे को शिक्षा दे रहा था और उससे कह रहा था कि ‘देख अनुभव की बात है—आदमी से सावधान रहना; आदमी भरोसे के नहीं है। और अगर किसी आदमी को तू झुकते देखे, फौरन उड़ जाना; वह पत्थर उठा रहा होगा।’ बेटे ने कहा, ‘ और अगर वह पत्थर पहले से ही बगल में दबाये आ रहा हो तो?’ यह सुनते ही बूढ़ा कौआ उड़ गया और उसने कहा कि यह लड़का भी खतरनाक है; इसके पास रुकना उचित नहीं

बूढ़े आदमी सिर्फ जीवन के अनुभव से ज्यादा जागरूक तो नहीं होते, ज्यादा बेईमान हो जाते हैं, चालाक हो जाते हैं। लेकिन चालाकी से क्या मिलेगा? यहां कुछ मिलने को ही नहीं है। न तो भोलेपन से यहां कुछ खोने को है, न चालाकी से यहां कुछ मिलने को है। यहां जो भी हम बना रहे हैं, वे रेत पर बनाये हुए भवन हैं; बन जायें तो भी मिटेंगे, न बनें तो भी कुछ हर्ज नहीं है।

बच्चे ज्यादा चेतन मालूम पड़ते हैं। बच्चों को देखें! उनकी आंखें ज्यादा होशपूर्ण मालूम पड़ती हैं। वे ज्यादा सजा मालूम पड़ते हैं। उन्हें सुलाने के लिए हमें उपाय करने पड़ते हैं। सब भांति हम उनकी इंद्रियों को काटते हैं, ताकि उनकी सचेतना कम हो जाये। जोर से हंसने नहीं देते; जोर से रोने नहीं देते; दौड़ने, उछलने, कूदने नहीं देते—उनकी जीवन—ऊर्जा को हम सब तरफ से कैद करते हैं। उन्हें हम जल्दी से जल्दी बेईमान बना लेना चाहते है।

मुल्ला नसरुद्दीन के बेटे से मैंने पूछा कि तेरी उम्र कितनी है। उसने कहा, ‘घर में सात साल और बस में पांच साल।’ इस बेटे को बाप ने रास्ते पर लगा दिया!

एक घर में मैं मेहमान था। और ऐसे मेरे कान में सुनायी पड़ गया। घर की गृहणी अपने बच्चे को सुला रही थी, बगल के कमरे में। वह सो नहीं रहा था; उसको थपका रही थी। और उससे बोली, कि ‘सो जा! रात कोई जरूरत हो— भूख लगे, प्यास लगे—कुछ भी जरूरत हो तो जोर से मां को आवाज देना और पिताजी फौरन आयेंगे! ‘मां को आवाज देना और पिताजी फौरन आयेंगे।

सभी माताएं यही कर रही है। लेकिन इस बच्चे को क्या सिखाया जा रहा है—एक झूठ, एक बेईमानी, एक चालाकी! दूध के साथ हम जहर पिलाना शुरू कर देते हैं। और हमारी पूरी कोशिश यह होती है कि बच्चा जल्दी से जल्दी बेईमान, चालाक—हमारी कोशिश यह नहीं होती कि ज्यादा होशपूर्ण हो जाये। दुनिया में जब कभी सचमुच संस्कृति पैदा होगी और शिक्षा का ढंग होगा, तो पहली बात जो सिखाने की है बच्चे को, वह यह है कि ज्यादा होशपूर्ण हो। तुरीय सिखाने की बात है; और सब तो सिखाने जैसा नहीं है। बाकी सब कामचलाऊ है। और बच्चा जैसा ताजा है—जैसे सुबह तुम ताजे होते हो थोड़े—से—ऐसा बच्चा बहुत ताजा है; उसके जीवन की सुबह है। अगर वहीं उसे तुरीय का सूत्र मिल जाये और जागने की कला सिखायी जाये, तो का होते—होते शिखर पर पहुंच जायेगा, बुद्धत्व को उपलब्ध हो जायेगा।

एक ही चीज साधने जैसी है, और वह है : तीनों अवस्थाओं में तेल की भांति सिंचन करना—तुरीय का, होश का, विवेक का, जागरण का, अमूर्च्छा का, अप्रमाद का।

मग्‍न: स्व—चित्ते प्रविशेत।


‘ऐसा मग्‍न हुआ, स्व—चित्त में प्रवेश करे।’ ऐसा मग्‍न हुआ स्व—चित्त में प्रवेश कर ही जाता है। मग्‍न: स्व—चित्ते प्रविशेत। और जो इस तुरीय में मग्न हो गया, और इससे बड़ी और कोई मग्नता नहीं है। तुम्हारी सब शराबें क्षणभर को रस देती होंगी, फिर रस सूख जाता है। तुरीय का रस कभी नहीं सूखता। वह रसधारा शाश्वत है। और जो उसमें मग्‍न हुआ; जो उसमें नाच गया; जो उससे भर गया; जिसके रोएं—रोएं में तुरीय समा गया; जिसके होने का ढंग जागना हो गया; जिसके उठने—बैठने में तुरीय उठा और बैठा; जिसके चलने—फिरने में तुरीय चला और फिरा; जिसके जीवन का कण—कण तुरीय में सान कर गया; जो ऐसा मग्‍न हो गया वही स्व—चित्त में प्रवेश करता है। अन्यथा तुम स्वयं से अपरिचित रह जाओगे। इस संसार में सबसे परिचित हो जाओगे, बस स्वयं से अपरिचित हो जाओगे। यह सारा संसार तुम्हारा परिवार हो जाएगा, लेकिन अपने प्रति तुम अजनबी रह जाओगे।

तुम बता सकते हो बहुत कुछ दूसरों के बाबत, उनके नाम— धाम, पते—ठिकाने, तुम्हें मालूम है; लेकिन अपने संबंध में तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। और जब तक कोई स्वयं को न जान ले, उसका सब जानना दो कौड़ी का है। उस जानने का कोई भी मूल्य नहीं, क्योंकि आधार में अज्ञान है।

ऐसा मग्‍न हुआ स्व—चित्त में प्रवेश करे। अगर तुम तीनों अवस्थाओं में सींचते रहोगे तुरीय को, तो जल्दी ही तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन के पौधे में तुरीय आ गया।

बुद्ध का चलना, उठना, बैठना भिन्न है। वे उठते भी हैं तो एक जागरण है; चलते है तो एक जागरण है। उनसे जो भी घटित होता है, वह मूर्च्छा में घटित नहीं हो रहा है। होश है। वे जो भी कर रहे हैं, सचेतन है।

तुमने अब तक जो भी किया है, अचेतन है। हालांकि तुम कहते हो कि मैंने जानकर किया, वह भी झूठ है। तुम्हारा बच्चा कपडे फाड़कर घर लौट आया है, कि स्लेट तोड़कर घर लौट आया है और तुमने उसे मारा है, डांटा है, डपटा है। तुमसे अगर कोई पूछे तो तुम कहोगे कि मैंने होशपूर्वक किया; बच्चे के सुधारने के लिए किया। लेकिन तुम थोड़ा विश्लेषण करना। सच में तुमने सोचकर किया है? सच में तुम होशपूर्वक थे कि तुम कुद्ध हो गये, तुम नाराज हो गये और तुमने बच्चे से बदला लिया है? बच्चे ने तुम्हारी आज्ञा तोड़ी, तुम उससे नाराज हो। अगर तुम नाराज हो तो तुम जो भी कर रहे हो, वह बेहोशी में है; क्योंकि क्रोध बेहोशी है। और तुम जो कह रहे हो, वह केवल समझाने की बातें हैं—तुम जो कह रहे हो, ‘इसके सुधार के लिए…।’

मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को मार रहा था। और कह रहा था— ‘तेरे सुधार के लिए।’ और कह रहा था कि देख, एक तू है कि रोज दिन में दो बार तुझे न पीटूं तो कोई रास्ता नहीं निकलता और एक मैं भी था अपने बचपन में कि मेरे बाप ने मुझे कभी नहीं मारा। उसके लड़के ने उसकी तरफ देखते हुए कहा, ‘इससे सिद्ध होता है कि तुम्हारे बाप भले आदमी रहे होंगे।’

तुम भला मार रहे हो बेटे को, तुम समझ रहे हो कि तुम भला कर रहे हो; बेटा कुछ और समझ रहा है क्योंकि बेटा तुम्हारे मारने को नहीं देख रहा है, तुम्हारे क्रोध को देख रहा है। तुम जो भी कर रहे हो, तुम रैशनलाइजेशन, तुम उसके आस—पास तर्क खड़ा करते हो। तुम समझाते हो अपने को कि मैं बिलकुल ठीक कर रहा हूं।

कल ही एक मित्र अपनी पत्‍नी को लेकर मेरे पास आये। पत्नी उन्हें ध्यान नहीं करने देती। सोचती पली यही है कि यह ध्यान ढंग का नहीं है; पुराण—पंथी विचार हैं। लेकिन यह तो ऊपर—ऊपर है; अचेतन कारण बिलकुल दूसरा है। कोई पत्नी नहीं चाहती कि पति ध्यान करे। कोई पति नहीं चाहता कि पली ध्यान करे। क्योंकि जैसे ही कोई ध्यान करता है कि पुराना संबंध खतरे में पड जाता है। जैसे ही कोई ध्यान में गया कि वैसे ही काम से उसका रस कम हो जायेगा। यह अचेतन कारण है। बाकी सब बहाने हैं। बाकी सब ऊपर—ऊपर हैं। पत्नी यह पसंद भी कर सकती है कि पति वेश्यालय चला जाये; इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन पति संन्यास की तरफ उत्सुक हो जाये, इससे फर्क पड़ता है। वेश्यालय जाकर भी पत्नी के बहुत विरोध में नहीं जा रहा है, क्योंकि स्‍त्री में अभी भी उत्सुक है। लेकिन ध्यान में उत्सुकता बढ़ने का अर्थ हुआ कि स्‍त्री में उत्सुकता खो जायेगी।

तो अगर पत्नी के सामने चुनाव ही हो कि पति वेश्याघर जाये कि संन्यास में उतरे तो पत्नी चुनेगी कि वेश्याघर चला जाये—अगर यही चुनाव हो। लेकिन पत्नी सोचेगी यह कि घर में बच्चे हैं, उनको पालना है और ध्यान में लग जाओगे तो कैसे पालोगे? ध्यान से बच्चों के पालने में कोई विरोध नहीं है; न ध्यान से दुकान में काम करने में कोई विरोध है। सच तो यह है कि ध्यानी जितनी कुशलता से कर पाता है, कोई भी नहीं कर पाता, क्योंकि ध्यान संसार से तोड़ता है भीतर गहरे में, बाहर से नहीं तोडता। बाहर तो सब खेल वैसा ही चलता रहता है, लेकिन खेल हो जाता है। भीतर एक नयी ज्योति जगने लगती है। बाहर का अभिनय तो जारी रहता है। लेकिन पति—पत्नी को कष्ट होते हैं। ऊपर से वे कुछ भी कहें और उनकी खुद की भी समझ यही होगी कि ठीक इसी कारण रुकावट डाल रहे हैं; लेकिन भीतर कारण दूसरा होता है—काम—वासना का संबंध है।

ध्यान में जाने का अर्थ हुआ कि काम—वासना का संबंध शिथिल होने लगेगा। पति की उत्सुकता धीरे— धीरे काम—वासना में कम हो जायेगी।

इधर मेरे पास रोज इस तरह के मित्र आते हैं, जो कहते हैं कि मेरी पत्नी की उत्सुकता ही नहीं थी काम में बिलकुल; लेकिन जबसे मैं ध्यान में उत्सुक हुआ तब से वह एकदम आक्रमक हो गयी है काम के लिए। आमतौर से स्रियों की उत्सुकता नहीं होती; क्योंकि निश्‍चित हैं, कोई भय नहीं, कोई खतरा नहीं है। वे इतनी भी उत्सुकता नहीं दिखाती काम में, बल्कि वे काम—वासना में ऐसी रहती हैं कि ठीक है तुम्हारे लिए। यह भी झूठ है। यह सरासर झूठ है। लेकिन जब पति खुद ही चारों तरफ चक्कर लगा रहा है, तो क्यों उत्सुकता दिखायें! तब वे अपने शील और चरित्र का भी भाव बनाये रखती है कि पति के लिए उनको इस गर्हित कृत्य में उतरना पड़ता है। लेकिन जैसे ही पति ध्यान में उत्सुक हो जाये, फिर बेचैनी खड़ी हो जाती है। अब खतरा है, और अब पति को खींच लेना शरीर में जरूरी है। और ऐसा ही पति को भी घटता है।

कुछ ही दिन पहले एक पली मेरे पास आयी। वह उत्सुक है, सच में उत्सुक है और परिणाम गहरे हो सकते हैं। उनके पति मेरी किताबें जला देते हैं घर के बाहर फेंक देते हैं। पति कहते हैं कि मेरे रहते हुए तुझे किसी और से पूछने जाने की जरूरत क्या है। पूछ, तुझे क्या पूछना है? जब मैं मौजूद हूं. .जब मैं न बता सकूं कुछ…! और पत्नी भलीभांति जानती है पति को कि वे क्या बता सकते हैं। लेकिन पति के अहंकार को चोट लगती है। पत्नी अगर किसी गुरु में उत्सुक हो जाये तो पति के अहंकार को भारी चोट लगती है कि कोई उनसे भी ऊपर कोई पत्नी के हृदय में बैठा जा रहा है। कष्ट है, लेकिन उस कष्ट को सीधा नहीं कहा जाएगा।

तुम जो भी कर रहे हो, जो भी कह रहे हो, वह कहना पक्का सच्चा नहीं है; भीतर कारण कुछ और होंगे। ध्यानी को सदा कारण खोजने चाहिए भीतर। उसे मूल कारण को पकड़ना चाहिए क्योंकि मूल कारण को बदला जा सकता है। अगर तुमने मूल कारण की जगह कुछ और कारण समझ रखा है, जो सच्चा नहीं है, तब तो कोई बदलाहट नहीं हो सकती। जैसे—जैसे तुम जागोगे, वैसे—वैसे तुम्हें जीवन में मूल कारण दिखायी पड़ेंगे। तब तुम पाओगे कि तुम बेटे पर इसलिए नाराज नहीं हो रहे कि उसने गलती की; तुम इसलिए नाराज हो रहे हो कि तुम्हें नाराज होने में रस है। गलती बहाना है। तुम नाराज दफ्तर से लौटे हो। तुम नाराज मालिक पर होना चाहते थे, लेकिन वहां तुम नाराज न हो सके। क्योंकि मालिक से नाराज होना महंगा धंधा है। नाराज अब तुम कहीं भी होना चाहते हो। पत्नी पर तुम नाराज हो नहीं सकते, क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर, नाराजगी में वह मात कर देती है पति को। महंगा धंधा वह भी है; क्योंकि अगर वह नाराज हो गयी तो वह दो—चार दिन तक सिलसिला जारी रखती है। तो तुम बेटे को पकड़ लेते हो; और अब बेटा बेटा है! वह किताबें फाड़कर लौटेगा ही; अभी कोई बूढ़ा नहीं हुआ है। वह गलत बच्चों के साथ खेलेगा ही; क्योंकि अपने बच्चे को छोड़कर सभी बच्चे गलत हैं।

मैंने एक छोटे—से बच्चे से पूछा की तू अच्छा बच्चा है; सब लोग तुझे अच्छा मानते हैं? उसने कहा कि अगर मैं सच बताऊं तो मैं उस तरह का बच्चा हूं जिस के साथ मेरी मां मुझे खेलने न देगी। उसने कहा कि मैं उस तरह का बच्चा हूं कि जिसके साथ मेरी मां मुझे खेलने न देगी—अगर मैं सच बताऊं।

तुम्हारे बच्चे को छोड़कर सब बच्चे गलत हैं! तो वह किसी के साथ खेला होगा; कपड़े फाड़े होंगे; किताब फट गयी होगी; पैर में चोट लग गयी होगी—तुम उसे पकड़ लोगे; वह कमजोर है! तुम रेचन अपने क्रोध का उस पर कर डालोगे। लेकिन तुम कहोगे, उसके सुधार के लिए कर रहे हैं।
जैसे—जैसे तुम जागोगे, तुम पाओगे, असली कारण दिखाई पड़ने शुरू हो गये। और जब असली कारण दिखाई पड़ते हैं, तो उन्हें छोड़ देना एकदम आसान है। फिर कोई कठिनाई नहीं है। तब तुम हंसोगे कि तुमने कैसा झूठा जीवन अपने चारों तरफ इकट्ठा कर रखा है! तुम एक झूठ हो गये हो! और इस झूठ को लेकर तुम सत्य तक पहुंचना चाहते हो; परमात्मा तक पहुंचना चाहते हो, तुम कभी न पहुंच पाओगे।

मेरे हृदय में संन्यास का अर्थ है—झूठ का जो जाल तुमने खड़ा किया है, उसे विसर्जित कर देना और जीवन को वास्तविक और प्रामाणिक—जैसे तुम हो, बुरे तो बुरे, क्रोधी तो क्रोधी; क्रोध को लीपा—पोती करके सुंदर मत बनाओ। घाव को फूलों से छिपाने से कुछ भी न होगा, घाव और बड़ा होगा। अपने को डांको मत, अपने को उघाड़ दो; कह दो ऐसा हूं मै—जो बुरा हूं तो बुरा, भला हूं तो भला। लेकिन इसके लिए कोई रैशनलाइजेशन, कोई तर्क, कोई विचार कि प्रक्रिया से छिपाने की कोशिश मत करो। और बुराइयों के लिए अच्छे कारण मत खोजो; क्योंकि तब बुराइयां कभी भी न मर सकेंगी, अगर तुमने अच्छे कारण खोज लिये।

तुम क्रोध भी करते हो तो अच्छे कारण खोजते हो। फिर क्रोध कैसे मरेगा? अच्छे कारण से तुम सहारा दे रहे हो; तुम क्रोध को भी अच्छा कर ले रहे हो; तुमने सजावट कर ली। तुमने कारागृह को भी घर जैसा बना लिया; चारों तरफ फूल—पत्ती सजाकर, अब तुम बड़े मजे में हो। तुम बीमारी को भी स्वास्थ्य जैसा समझकर बैठे हो! तब फिर छुटकारा नहीं हो सकता!

जागृत हुआ व्यक्ति जैसे—जैसे जागेगा, वैसे—वैसे पायेगा, उसका जागरण झूठ है; वैसे—वैसे पायेगा उसके सपने विकृत है; उसकी निद्रा अशांत है। उन तीनों तलों पर एक बेचैनी, एक परेशानी, एक उपद्रव चल रहा है। और जैसे—जैसे वह देखने लगेगा सचाई को और झूठे कारणों को हटा देगा, वैसे—वैसे वह पायेगा कि झूठे कारणों के हटते ही, सचाई के दिखाई पड़ते ही, उसका होश और सघन होने लगा।

तुम्हारी हालत वैसी है, कि मैने सुना है कि एक आदमी रात सोया। भूकंप आ गया आधी रात में; जोर के बादल गरजे, बिजलियां चमकी। पत्नी घबडा गयी। उसने पति को उठाकर कहा कि ‘उठो जी! लगता है, मकान गिरेगा।’ उस आदमी ने कहा कि ‘हम सिर्फ किराये से रहते है। शांति से सो जा। मकान अपना नहीं है।’

तुम जिस मकान में रह रहे हो, वह भला तुम्हारा न हो, लेकिन गिरेगा तो तुम मरोगे। तुमने जो झूठ खड़ी कर रखी हैं—वें भला तुम्हारी न हों, क्योंकि बहुत—सी झूठ भी उधार है; कुछ गुरुओं से सीखी हैं तुमने, कुछ शास्त्रों से सीखी है, कुछ संप्रदायों से सीखी है; वे तुम्हारी भी नहीं हैं—मगर गिरेंगी तो मरोगे तुम। और तुम झूठ से घिरे हो। लेकिन झूठ कारगर मालूम होती है अभी; क्योंकि उससे तुम्हें चेहरे को सुंदर बनाने में सुविधा मिलती है। झूठ से तुम सजे—सजे लगते हो। भीतर तो दुख है, पीड़ा है, ऊपर मुत्कुराहटें है। वे सब झूठी हैं। बेहतर है, तुम रोओ, आंसू गिरने दो। बह जाने दो रंग—रोगन, जो तुमने लगाया है ऊपर से। कोई हर्जा नहीं है। क्योंकि केवल सचाई से ही सत्य तक पहुंचा जा सकता है।

जैसे—जैसे तुम जागने को सींचोगे, वैसे—वैसे सब रंग—रोगन बहने लगेगा। इस रंग—रोगन के बह जाने का नाम ही संन्यास है। और जैसे—जैसे तुम भीतर सच्चे होते जाओगे, वैसे—वैसे तुम पाओगे कि बीमारी को मिटाना जरा भी कठिन नहीं है। लेकिन झूठी बीमारी को मिटाना बहुत कठिन है।

ऐसा समझो कि तुम कैंसर के मरीज हो। लेकिन डर के मारे तुम यह स्वीकार नहीं करते कि मैं कैंसर का मरीज हूं। क्योंकि फिर कैंसर घबड़ाता है; तो तुम समझते हो कि सर्दी—जुकाम है। फिर कुछ नहीं, सर्दी—जुकाम है! और तुम सर्दी—जुकाम का इलाज करते रहते हो। इससे क्या होगा? इससे कितनी देर तुम धोखा दोगे?

गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था कि पहली बात साधक के लिए जान लेनी जरूरी है कि उसकी असली बीमारी क्या है। और सभी साधक उसको छिपाते है। और जो असली बीमारी को छिपा लेता है, उसका निदान ही नहीं हो पाता, डायग्नोसिस ही नहीं हो पति।। और तब तुम झूठी बीमारी का इलाज करते रहते हो। उस इलाज से भी तुम मरते हो, बच नहीं सकते; क्योंकि वह बीमारी ही कभी तुम्हारी बीमारी न थी।
मेरे पास लोग आते है। कोई पूछता है, ईश्वर की खोज करनी है; कोई कहता है, आत्मा की खोज करनी है। उनके चेहरे पर ऐसी किसी खोज का कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ता। यह खोज झूठी है। वे किसी और चीज की खोज में है। लेकिन ईश्वर के नाम के नीचे उसको छिपा रहे है।

एक मित्र आये—बूढ़े हैं—और कहा कि बस ईश्वर की तलाश कर रहा हूं तीस साल से। मैंने कहा, ‘तीस साल काफी लंबा वक्त है! अगर ईश्वर तुमसे बच ही न रहा हो, तो अब तक मिल जाना चाहिए। ऐसा डर लगता है कि ईश्वर तुमसे बच रहा है। अगर वह बच रहा है, तो तीस जन्म भी…। और या फिर तुम कहीं और खोज रहे हो; उसके घर की तरफ तुम जाते नहीं। या तो तुम उससे बच रहे हो, या वह तुमसे बच रहा है। तुम मुझे ठीक—ठीक बताओ, मामला क्या है?’
‘नहीं’, उन्होंने कहा, ‘मैं बिलकुल खोज कर रहा हूं ईश्वर की; और ध्यान—साधना सब कर रहा हूं। लेकिन कुछ फल नहीं होता।’
‘क्या फल चाहते हो?’
‘कोई सिद्धि नहीं हाथ आती।’
अब यह आदमी ईश्वर को खोज ही नहीं रहा है। यह आदमी सिद्धि खोज रहा है। ईश्वर का नाम रखा हुआ है इसने। सिद्धि भीतर खोज रहा है, ऊपर से ईश्वर का नाम रखा हुआ है। तुम बाजार में ही न पाओगे कि डिब्बों पर कुछ और लिखा है, भीतर कुछ और; तुम मंदिरों में भी ऐसे आदमी पाओगे, डिब्बे पर कुछ लिखा है, भीतर कुछ और।

एक पति चौके में नमक खोज रहा था। बड़ी देर हो गयी, तो उसकी पली ने कहा, ‘इतनी देर लगाने की क्या जरूरत है? क्या तुम्हें नमक दिखाई नहीं पड़ता?’ उसने कहा कि मैं खोज रहा हूं मुझे दिखाई ही नहीं पड़ता। उस ने कहा कि ‘वह बिलकुल सामने रखा है—जिस डिब्बे पर हल्दी लिखी है। आंख के सामने रखा है। अंधे हो?’

सारी खोज ऐसी चल रही है! तुम्हें पक्का पता नहीं, तुम क्या खोज रहे हो; क्यों खोज रहे हो? जागने को जैसे—जैसे सींचोगे, तुम्हारे जीवन में एक दिशा आयेगी। व्यर्थ गिरेगा, सार्थक बचेगा। और जिस दिन बिलकुल सार्थक बच जाता है, उस दिन मंजिल दूर नहीं है।

ऐसा मग्‍न हुआ…. और जैसे—जैसे यह तुरीय की मग्रता भरेगी जैसे—जैसे यह मस्ती तुम्हारे जीवन में आयेगी… .यह मस्ती बड़ी अलग है! भाषा में तो हमें उन्हीं शब्दों का उपयोग करना पड़ता है, जिनका उपयोग होता है। शराब जब कोई आदमी पी लेता है, तो उसकी भी एक मस्ती है; लेकिन उस मस्ती में पैर डगमगाते है। यह मस्ती बिलकुल उलटी है। यहां डगमगाते पैर ठहर जाते है। शराब की एक मस्ती है; उसमें आदमी अपने को भूल जाता है। यह मस्ती बिलकुल उलटी है; यहां आदमी अपने को याद करता है। सेल्फ—रिमेम्बरिग, सुरति आ जाती है, स्मृति आ जाती है। एक मस्ती शराब की है कि उस नशे में आदमी भूल—चूक करता है। गलत भटक जाता है। और एक मस्ती तुरीय की है, जहां आदमी से भूल—चूक होनी असंभव हो जाती है।

अकबर निकलता था एक दिन, हाथी पर सवार और एक आदमी खड़े होकर उसे गाली देने लगा। छप्पर पर खड़ा था। निश्‍चित उसी वक्त पकड़वा लिया गया। दूसरे दिन दरबार में हाजिर किया गया। अकबर ने पूछा कि ‘नासमझ! यह तू क्या कर रहा था?’ उसने कहा कि मैं था ही नहीं। मैंने शराब पी ली थी। मैंने गाली दी ही नहीं; वह शराब ही गाली दे रही थी। अब तो मैं खुद ही पछता रहा हूं जब से होश आया। और आप मुझे सजा मत दें, क्योंकि मै था ही नहीं।

और अकबर ने स्थिति समझी, क्योंकि अकबर तुरीय में बहुत उत्सुक था। अकबर बड़ी खोज में था कि कहीं से सूत्र मिल जाये जागृति का। उसने बात समझी कि बेहोश आदमी को क्या सजा देनी! उससे गलती होगी, यह निश्‍चित है। उससे ठीक हो जाये, यह चमत्कार है।

तुमसे कभी कुछ ठीक हो जाता है तो यह चमत्कार है। तुमसे गलत होता है, यह स्वाभाविक है; क्योंकि तुम होश में नहीं हो। गुरजिएफ कहता था कि तुमने जो पाप किये हैं, इनके कारण परमात्मा तुम्हें नरक नहीं भेज सकता, क्योंकि ये सब तुमने बेहोशी में किये हैं। बेहोश आदमी को तो अदालत भी माफ कर देती है। परमात्मा तुम्हें नरक नहीं भेज सकता, तुमने ये जो पाप किये हैं, इनके लिए क्योंकि तुमने ये सब बेहोशी में किये है वह इतना समझदार तो होगा ही, जितनी अदालते है। अगर यह सिद्ध हो जाए कि आदमी ने शराब की हालत में किसी की हत्या भी कर दी, तो भी अदालत उसे माफ करेगी; क्योंकि वह होश में त्रहीं था। कम सजा देगी। सजा भला शराब पीने के लिए दे, लेकिन हत्या के लिए क्या सजा देनी! वह आदमी था ही नहीं।

तुमने पाप भी किये है, वे भी बेहोशी में; तुमने पुण्य भी किये है, वे भी बेहोशी में। इसलिए तुम्हारे पाप और पुण्यों में बहुत फर्क नहीं है। उनका गुणधर्म एक—सा ही है। तुम घर बसाओ कि तुम संन्यास लेकर मुनि हो जाओ, कोई फर्क नहीं है। तुम बेहोश हो! तुम दुकान में बेहोश हो, तुम मंदिर में भी। तुम दफ्तर में बेहोश हो, स्थानक में भी बेहोश ही रहोगे। कोई फर्क पड़नेवाला नहीं। कपड़े पहनकर बेहोश हो, नग्न होकर बेहोश रहोगे। असली सवाल बेहोशी के तोड्ने का है; असली सवाल कृत्यों को बदलने का नहीं है। कृत्यों को बदलना तो बिलकुल आसान है। लेकिन एक कृत्य में बेहोशी है, दूसरे कृत्य में बेहोशी आ जायेगी।

और जिसने, ऐसा मग्‍न हुआ, तुरीय को साधा, वह स्व—चित्त में प्रवेश कर जाता है।
जैसे ही कोई स्व—चित्त में प्रवेश करता है, उसके जीवन में पहली बार प्राण समाचार का उदय होता है। प्राण समाचार से अर्थात सर्वत्र परमात्म—ऊर्जा का ही स्फुरण है, ऐसे अनुभव से समदर्शन को उपलब्ध होता है। और जैसे ही कोई व्यक्ति स्वयं को जान लेता है, तत्क्षण वह जान लेता है यही दीया सबमें जल रहा है।

जब तक तुमने अपने को नहीं देखा, तभी तक दूसरा तुम्हें पराया मालूम पड़ रहा है। जब तक तुमने खुद को नहीं पहचाना, तभी तक तुम दूसरे को भी दुश्मन समझ रहे हो। जैसे ही तुमने स्वयं को देखा, वैसे ही तुम सभी के मिट्टी की दीवारों में घिरे हुए प्रकाश के दीये को देख लोगे; समदर्शन को उपलब्ध हो जाओगे। फिर न कोई मित्र है, न कोई शत्रु न कोई अपना, न कोई पराया। तब वस्तुत: तुम ही सबके भीतर छाये हुए हो। तब एक ही विराजमान है।

प्राणसमाचारे समदर्शनम्।


प्राण—समाचार—इसे शिव—सूत्र में कहा है कि अब तुम्हें वह समाचार मिल गया कि सब तरफ एक ही प्राण है। सभी दीयों में एक ज्योति है। सभी बूंदों में एक ही सागर का निवास है। किसी का दीया काला है, किसी का गोरा है; कोई लाल मिट्टी का बना, कोई पीली मिट्टी का बना; कोई इस शक्ल, कोई उस शक्ल; कोई यह नाम, कोई वह रूप; लेकिन भीतर की ज्योति का न कोई नाम है, न कोई रूप है। जिसने अपने को जाना, उसने अपने को सबमें जान लिया।

पहली घटना घटती है, तुरीय से, कि तुम स्वयं को जानते हो; तत्क्षण दूसरी घटना घटती है कि तुम परमात्मा को जान लेते हो। आत्मा को जाना इधर, उधर परमात्मा उघड गया।

परमात्मा को सीधा मत खोजो। सीधा तुम खोजोगे तो वह कल्पना ही होगी। तुम बैठे कल्पना कर सकते हो कि कृष्ण बाँसुरी बजा रहे है; इससे कोई परमात्मा न मिल जायेगा। यह सपना है। अच्छा सपना है। मगर इस सपने में और दूसरे सपनों में कोई भी भेद नहीं है; मन कल्पना कर रहा है। तुम कल्पना कर सकते हो कि महावीर के दर्शन हो रहे है; कि बुद्ध के दर्शन हो रहे हैं; कि राम के दर्शन हो रहे है। और कई लोग यही कल्पना करते रहते है; बैठे हुए सपने देखते रहते है। धार्मिक सपने है, मगर सपने ही हैं।

परमात्मा को सीधा खोजने का कोई उपाय ही नहीं है; क्योंकि तुम ही उसके द्वार हो। जब तक तुम अपने द्वार से न गुजरोगे, उसका द्वार बंद है। आत्मा परमात्मा का द्वार है। इधर खुला द्वार, इधर तुमने जाना अपने को कि परमात्मा प्रकट हो गया। तब तुम्हें सब तरफ वही दिखाई पड़ने लगेगा। वृक्ष में, पत्थर में, चट्टान में वही आबद्ध है। कहीं बहुत सोया है। कहीं बहुत जागा है। कहीं सपने में खोया है। कहीं नींद है, कही होश है; लेकिन वही है। उस एक की प्रतीति को शिव ने प्राण—समाचार कहा है। वह बडे—से—बडा समाचार है। लेकिन स्वयं को जाननेवाले को उपलब्ध होता है।

शिवतुल्यो जायते।


और जब कोई व्यक्ति समदर्शन में ठहर जाता है, वह शिवतुल्य हो जाता है—शिवतुल्यो जायते। फिर वह स्वयं परमात्मा हो गया। तुम तभी तक ‘मैं’ हो, जब तक तुम्हें अपना पता नहीं है। यह बात बड़ी विरोधाभासी लगती है। तुम तभी तक चिल्लाये चले जा रहे हो मैं—मैं—मैं, जब तक तुम्हें पता नहीं कि तुम कौन हो। जिस दिन तुम्हें पता लगेगा, उसी दिन ‘मैं’ भी गिर जायेगा, ‘तू, भी गिर जायेगा। उस दिन तुम शिवतुल्य हो जाओगे। उस दिन तुम स्वयं परमात्मा हो। उस दिन अहर्निश नाद उठेगा—अहम् ब्रह्मास्मि। उस दिन तुम यह दोहराओगे नहीं, यह तुम जानोगे। उस दिन यह तुम्हें समझना नहीं पड़ेगा; यह तुम्हारा अस्तित्व होगा, यह तुम्हारी अनुभूति होगी। उस दिन सब तरफ एक का ही नाद, एक का ही निनाद होगा। जैसे बूंद सागर में खो जाये, सीमा मिट जाये, असीम हो जाये! तब तुम शिवतुल्य हो जाओगे।

शिव की यही चेष्टा है। बुद्धों का यही प्रयास है कि तुम भी उन जैसे हो जाओ। उन्होंने जो जाना है—परमानंद, वह तुम्हारी भी संपदा है। तुम अभी बीज हो, वे वृक्ष हो गये हैं। वे वृक्ष तुम से यही कहे चले जा रहे है कि तुम बीज मत बने रही, तुम भी वृक्ष हो जाओ। और तब तक तुम्हें शांति न मिलेगी जब तक तुम शिवतुल्य न हो जाओ।

इससे कम में आदमी राजी होनेवाला नहीं। इससे कम में आत्मा तृप्त न होगी। प्यास बनी ही रहेगी, कितना ही पियो संसार का पानी, प्यास बुझेगी नहीं, जब तक कि परमात्मा के घट से न पी लो। तब प्यास सदा के लिए खो जाती है। सब वासनाएं सब दौड़, सब आपाधापी समाप्त हो जाती है; क्योंकि तुम वह हो गये, जो परम है। उसके ऊपर फिर कुछ और नहीं।

तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था को तेल की तरह सिंचन करो, ताकि ऐसे मग्‍न हो जाओ कि स्व—चित्त में प्रवेश हो; ताकि प्राण—समाचार मिले; ताकि तुम जान सको कि सबमें एक ही विराजमान है; समदर्शन हो; ताकि तुम शिवतुल्य हो जाओ।

आज इतना ही।

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शिव सूत्र – 07. ध्‍यान अर्थात चिदात्‍म सरोवर में स्‍नान

ध्‍यान अर्थात चिदात्‍म सरोवर में स्‍नान—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 17 सितंबर, 1974; प्रात: काल, श्री ओशो आश्रम, पूना।


सूत्र:
बीजावधानम्।

आसस्थ: सुखं हृदे निमजति।
स्वमात्रा निर्माणमापादयति।
विद्याऽविनाशे जन्मविनाश:।

ध्यान बीज है। आसनस्थ अर्थात स्व—स्थित व्यक्ति सहज ही चिदात्म सरोवर में निमज्जित हो जाता है और आत्म—निर्माण अर्थात द्विजत्व को प्राप्त करता है। विद्या का अविनाश जन्य का विनाश है।

जीसस से उनके शिष्यों ने पूछा, ‘प्रभु का राज्‍य कैसा है? क्‍या उसका रूप—नाम? तो जीसस ने कहा, ‘प्रभु का राज्‍य एक बीज की भांति है?’ जीसस उसी बीज की बात कर रहे हैं, जिसकी हम आज चर्चा करेंगे।

ध्यान है वह बीज। बीज अपने—आप में सार्थक नहीं होता। बीज तो एक साधन है। बीज तो वृक्ष होने की संभावना है। बीज कोई स्थिति नहीं; बीज तो यात्रा है। जैसे बीज वृक्ष तक पहुंचकर सफल हो जाता है; क्योंकि फिर फल लग आते हैं, फूल लग आते हैं—वही सफलता है; ऐसे ही ध्यान का बीज जब वृक्ष बन जाता है और फल—फूल लग जाते हैं—वही परमात्मा है।

बीज की स्थिति को ठीक से समझ लेना जरूरी है। तुम परमात्मा के संबंध में तो निरंतर पूछते हो। वह पूछ—ताछ बेकार है; क्योंकि वृक्ष की क्या पूछ—ताछ करना, जब बीज ही न संभाला हो! और बिना बीज को बोये तुम वृक्ष को देख भी कैसे सकोगे? परमात्मा कोई बाह्य घटना नहीं है कि तुम उसे देख लो; वह तुम्हारी परिष्कृत स्थिति है; वह तुम्हारा ही विकास है। तुम दूसरे के परमात्मा को न देख सकोगे? तुम्हारे भीतर छिपा हुआ जब बीज टूटेगा और वृक्ष बनेगा, तभी तुम उसे देख सकोगे।

बुद्ध, महावीर, कृष्ण, शिव—वे लाख उपाय करें, तो भी तुम्हें परमात्मा को दिखा नहीं सकते, क्योंकि तुम्हारा परमात्‍मा तुम्हारे भीतर छिपा है। और, अभी बीज है, वृक्ष नहीं बना; बीज में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। जब बीज फूटेगा, विकसित होगा, तुम प्रकट होओगे, खिलोगे, तुम्हारा दीया जलेगा—तभी तुम जानोगे कि परमात्मा है। इसलिए नास्तिक को हराना बहुत मुश्किल है। वस्तुत: नास्तिक को कोई कभी नहीं हरा पाया। इसका कारण यह नहीं कि नास्तिक सही है। इसका कारण यह है कि वह गलत ही प्रश्र पूछ रहा है। जो भी जवाब दिए जाएंगे, वे व्यर्थ होंगे। वह पूछता है, ‘ ईश्वर को दिखाओ; कहां है ईश्वर?’ ईश्वर तुम में छिपा है। ईश्वर पूछनेवाले में छिपा ‘है। और दूसरे का ईश्वर नहीं दिखाया जा सकता; वह आंतरिक घटना है। जब तुम्हारा बीज टूटेगा, तभी तुम जान पाओगे।

अभी तुम बीज की भांति हो। लेकिन तुम इसे समझे नहीं; तुम बाहर खोज रहे हो। और जब तक तुम बाहर खोजते रहोगे, तुम्हारा बीज भीतर ही पड़ा रहेगा, अंकुरित न होगा; क्योंकि बीज के लिए वैसे ही पानी चाहिए, भूमि चाहिए, प्रकाश चाहिए, प्रेम चाहिए, जैसे कि छोटे बच्चों को। जब तुम भीतर आंख मोड़ोगे, जब तुम्हारा ध्यान भीतर बरसेगा, और तुम्हारी जीवन—ऊर्जा भीतर की तरफ मुड़ेगी, तभी बीज को प्राण मिलेंगे; तभी बीज जीवंत होगा, अंकुरित होगा। ध्यान बीज है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे पूछते हैं, अशांति है; कैसे शांत हो जाएं?
एक दिन सुबह—सुबह मुल्ला नसरुद्दीन आया। उसे देखकर ही मैं कुछ कहने को था, लेकिन इसके पहले में कुछ कहूं उसके पहले ही उसने सवाल किया। उसने कहा कि अब मेरी सहायता आपको करनी ही पड़ेगी। मैंने पूछा, ‘क्या है समस्या?’ उसने कहा, ‘बड़ी जटिल समस्या है। दिन में कोई दस—बीस—पच्चीस बार, कभी और भी ज्यादा, खान करने की बड़ी तीव्र आकांक्षा पैदा होती है। मैं पागल हुआ जा रहा हूं। बस, यही धुन सवार रहती है। कुछ मेरी सहायता करो।’ तो मैंने पूछा, ‘स्नान तुमने किया कब से है?’ उसने कहा, ‘ जब तक मुझे याद आता है, मैं सान की झंझट में कभी पड़ा ही नहीं।’

स्‍नान न करोगे और स्नान करने की आकांक्षा पकड़ेगी, तो समस्या स्नान नहीं है, समस्या तुम हो। तुम अशांत हो; तुम्हें पता नहीं कि तुमने ध्यान कभी नहीं किया। तुम उस झंझट में कभी पड़े ही नहीं। और अशांति तुम मिटाना चाहते हो; और ध्यान के सान के बिना वह कभी नहीं मिटेगी; वह तलफ है।

ध्यान भीतर का सान है। जैसे शरीर ताजा हो जाता है सान के बाद, धूल, कूड़ा—करकट शरीर से बह जाता है, स्वच्छता आ जाती है—ऐसे ही ध्यान भीतर का, अंतरात्मा का सान है। और, भीतर जब सब ताजा हो जाता है, तब कैसी अशांति, तब कैसा दुख, कैसी चिंता! तब तुम पुलकित होते हो, प्रफुल्लित होते हो! तुम्हारे पैरों में अर बंध जाते हैं! तुम्हारा जीवन एक नृत्य हो जाता है! उसके पहले तुम उदास हो, थके हो, परेशान हो। और तुम सोचते हो कि तुम्हारी अशांति के कारण बाहर हैं तो तुम भांति में हो।
तुम्हारी अशांति का एक ही कारण है कि ध्यान के बीज को तुमने वृक्ष नहीं बनाया। तुम हजार उपाय करोगे— धन मिल जाए तो अशांति ठीक हो जाएगी; पुत्र हो जाए, यश मिल जाए, कीर्ति मिल जाए, अच्छा स्वास्थ्य हो, शरीर हो, लम्बी उम्र हो, तो सब कुछ हो जाएगा, लेकिन अशांति न मिटेगी। वस्तुत: तो जितनी ये चीजें तुम्हें मिल जाएंगी, उतना ही तुम पाओगे कि अशांति और भी सघन होकर दिखाई पड़ने लगी।
गरीब आदमी कम अशांत होता है। अमीर ज्यादा अशांत हो जाता है। अमीरी से अशांति क्यों बढ जाती है? —बढती नहीं। होता तो गरीब भी अशांत हैं; लेकिन शरीर की ही भूख, शरीर की क्षुधा को निपटाने में इतनी ऊर्जा चली जाती है कि अपने भीतर की अशांति को देखने योग्य शक्ति भी नहीं बचती। अमीर की बाहर की जरूरतें पूरी हो जाती हैं, तो सारी शक्ति बचती है। और भीतर की जरूरत खयाल में आ गई। गरीब भी उतना ही अशांत है, लेकिन अशांति को जानने की सुविधा नहीं है। अमीर को अशांति कांटे की तरह चुभने लगती है, वही वही दिखाई पड़ती है।
तुम जिस दिन सब जरूरतें पूरी कर लोगे, उस दिन तुम अचानक पाओगे कि असली जरूरत एक थी—वह ध्यान है; बाकी सब जरूरतें शरीर की थी, तुम्हारी नहीं।
यह सूत्र कहता है. ध्यान बीज है। तुम्हारी महत यात्रा में, जीवन की खोज में, सत्य के मंदिर तक पहुंचने में— ध्यान बीज है। ध्यान क्या है? —जिसका इतना मूल्य है; जो कि खिल जाएगा तो तुम परमात्मा हो जाओगे; जो सड़ जाएगा तो तुम नारकीय जीवन व्यतीत करोगे। ध्यान क्या है? ध्यान है निर्विचार चैतन्य की अवस्था, जहां होश तो पूरा हो और विचार बिलकुल न हों; तुम तो रहो, लेकिन मन न बचे। मन की मृत्यु ध्यान है।
अभी तुम तो हो ही नहीं, मन—ही—मन है। इससे उलटा हो जाए, तुम—ही—तुम बचो और मन बिलकुल न बचे। अभी सारी ऊर्जा मन पीये जा रहा है। अभी जितनी भी तुम्हारी जीवन की शक्ति है, वह मन चूस लेता है।
तुमने अमरबेल देखी है? —वृक्षों को पकड़ लेती है। वह वृक्ष सूखने लगता है और बेल जीने लगती है और बेल फैलने लगती है। और बेल बड़ी मजेदार है! वह ठीक मन जैसी है। उसमें कोई जड़ें भी नहीं हैं। उसकी कोई जड़ नहीं; क्योंकि उसे जड की जरूरत ही नहीं है; वह दूसरे के शोषण से जीती है। वृक्ष को सुखाने लगती है, खुद जीने लगती है। और ठीक, हिन्दुओं ने उसे अच्छा नाम दिया—अमरबेल! वह मरती नहीं है। जब तक भी उसे शोषण मिलता रहेगा, वह अनंत काल तक जी सकती है।
ऐसा ही तुम्हारा मन है— वह अमरबेल है। वह मरता नहीं; वह अनंत काल तक जी सकता है; जन्मों—जन्मों तक तुम्हारा पीछा करेगा। और मजा यह है कि उसकी कोई जड़ नहीं, कोई बीज नहीं। उसका अस्तित्व बे—जड़ है। मर जाना चाहिए उसे इसी वक्त, लेकिन वह मरता नहीं; वह शोषण से जीता है।
और, तुम्हारा मन तुम्हें चारों तरफ से घेरे हुए है। तुम तो बिलकुल दब ही गये हो अमरबेल में। सारी जीवन—ऊर्जा मन ले लेता है, कुछ बचता नहीं। तुम दीन—दरिद्र, तुम सूखे—सूखे जीते हो। मन तुम्हें उतना ही जीने देता है, जितना जरूरी है मन के लिए। बेल भी वृक्ष को पूरा नहीं मारती; क्योंकि पूरा मारेगी तो खुद मर जाएगी। उतना बचाकर चलती है, जितना जरूरी है। मालिक भी गुलाम को पूरा नहीं मार डालता; उतना भोजन देता है, जितना गुलाम के जिंदा रहने के लिए जरूरी हो।
तुम्हारा मन तुम्हें बस उतना ही देता है, जितना तुम बने रहो; अन्यथा निन्यानबे प्रतिशत पी लेता है। एक प्रतिशत तुम हो, निन्यानबे प्रतिशत मन है—यह गैर— ध्यान की अवस्था है। निन्यानबे प्रतिशत तुम हो जाओगे, एक प्रतिशत मन होगा—यह ध्यान की अवस्था है। और अगर सौ प्रतिशत तुम हो गये और मन शून्य हो गया—यह समाधि की अवस्था है; तुम मुक्त हो गये; बीज पूरा वृक्ष हो गया; अब कुछ पाने को न बचा; जो भी पाया जा सकता था, पा लिया; सब संभावनाएं सत्य हो गयीं, जो भी छिपा था, वह प्रगट हो गया। तब तुम्हारी सुगंध से अस्तित्व भर जाता है। तब तुम्हारा नर्तन दूर—दूर कोनों तक, चांद—तारों तक सुना जाता है। तब तुम ही पुलकित नहीं होते; तुम्हारे साथ पूरे विश्व की प्राण—धारा पुलकित होती है। तब अस्तित्व में एक उत्सव आ जाता है। जब भी कोई एक बुद्ध पैदा होता है, सारा अस्तित्व उत्सव से भर जाता है; क्योंकि सारा अस्तित्व तुम्हारे बीज को वृक्ष बनाने के लिए आतुर है।
ध्यान का अर्थ है : जहां मन न के बराबर रह जाए। समाधि का अर्थ है. जहां मन बिलकुल शून्य हो जाए, तुम—ही—तुम बचो।
और, शिव का यह सूत्र कहता है : ध्यान बीज है। इसलिए ध्यान से शुरू करना पड़ेगा।
अभी तो होश—बेहोश, जागते—सोते, मन ही तुम्हें पकड़े हुए है। रात सपने चलते हैं, दिन विचार चलते हैं। उठते—बैठते मन का ऊहापोह चलता रहता है। और बड़े आश्रर्य की बात तो यह है कि सार उसमें कुछ भी नहीं। कितना ही यह ऊहापोह चले, मन से कुछ मिलता नहीं। क्या तुमने पाया है? इतने दिन सोचकर कहां तुम पहुंचे हो? इसे भी तो सोचो। इस तरफ भी ध्यान दो कि इतनी यात्रा करने के बाद कौन—सी मंजिल मिली है। सोच—सोचकर क्या पाया?
एक दार्शनिक था—बडा दार्शनिक—इमानुएल कांट। सांझ घर की तरफ आ रहा था। एक छोटे—से लड़के ने उसे रास्ते पर रोका और कहा, ‘अंकल, मै आपके घर गया था। कल हम पिकनिक पर जा रहे हैं। और, आपके कैमरे को मांगने गया था। आप तो घूमने गये थे, नौकर मिला। उसने बिलकुल मना कर दिया। क्या यह उचित है कि नौकर मना कर दे?’
बच्चा क्रोध में था। कांट ने कहा, ‘बिलकुल अनुचित है। मेरे रहते नौकर मना करनेवाला कौन होता है! आओ मेरे साथ।’
बहुत प्रसन्न हुआ पहुंचे घर। ने बड़ी डाट—डपट की नौकर पर और वह बच्चा पुलकित होता रहा बच्चा। कांट। कहा कि मेरे रहते तू मना करनेवाला कौन होता है। उस बच्चे से भी कहा कि तू बोल, मेरे रहते नौकर मना करनेवाला कौन होता है। उस बच्चे ने कहा, ‘बिलकुल, नहीं, अंकल। और इस आदमी ने बड़ी बेहूदगी से इनकार किया।
और, तब इमानुएल कांट ने उस बच्चे से कहा कि अब तुझे मैं बताता हूं कि कैमरा मेरे पास नहीं है। यह सारी खुशी बच्चे की, यह सारी पुलक, यह मिलने की आशा, सब शोरगुल और आखिर में पता चलता है कि कैमरा उसके पास नहीं है!
यह तुम्हारे मन की दशा है! जीवन— भर दौड़ोगे, चिल्लाओगे, आशा बांधोगे, श्रम करोगे और आखिर में मन कहेगा कि जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, वह मेरे पास नहीं है। मन ने सदा यही कहा है। उसके पास है भी नहीं। इसलिए मन सदा आशा बंधाता है और मन सदा कहता है— ‘आज तो नहीं, कल; कल निश्रित।’ मन से ज्यादा आश्वासन देनेवाला और कोई भी नहीं। और तुम छू हो! क्योंकि मन के पास होता तो आज ही दे देता। वह कल की कह रह है और तुम मान लेते हो। और तुम कितनी बार मान चुके हो। और हर बार कल आता है और मन फिर कल पर टाल देता है। लेकिन यह तुम्हारी बेहोश आदत हो गयी है। तुम कल की बात सुनने के आदी हो गये हो। यह आदत इतनी गहरी हो गयी है कि इस पर पुन: विचार नहीं करते। बेहोशी में भी, रात के सपने में भी, मन तुम्हें कल पर टालता रहता है।
मुल्ला नसरुद्दीन बीमार था। पत्नी ने खबर की तो मैं उसके घर गया। भारी बेहोशी में था। बुखार तेज था। लगता था एक सौ पांच, एक सौ छह डिग्री बुखार होगा। बिलकुल बेहोश पड़ा है। आग से जल रहा है। मैंने पूछा कि कब से यह दशा है। पत्नी ने कहा कि अभी—अभी कोई घड़ी— भर…। मुल्ला नसरुद्दीन के मुंह में, मैने कहा, थरमामीटर लगाकर देखो। मुंह में थरमामीटर लगाया। उस बेहोश अवस्था में भी उसने क्या कहा! उसने कहा, ‘माचिस प्लीज! ‘ चेन स्मोकर है। एक सिगरेट से दूसरी जलाकर सदा पीता रहा। एक सौ पांच डिग्री बुखार में भी और सब तो याद नहीं, कोई सुध नहीं है, लेकिन मुंह में थरमामीटर डालते ही उसे याद सिगरेट की ही आती है—माचिस प्लीज!
तुम मर भी रहे होओगे, तो भी तुम्हारी दशा यह होगी—माचिस प्लीज! तुम्हारा मन पुरानी आदत के अनुसार अपनी बेहोशी में भी ताने—बाने बुनता रहता है। मरते क्षण भी तुम मन से ही भरे रहोगे। तुम पूजा करो, प्रार्थना करो, तुम मंदिर जाओ, तीर्थयात्रा करो—मन तुम्हारे साथ है। और, जहां भी मन तुम्हारे साथ है, वहा धर्म से तुम्हारा संबंध न जुड़ेगा
एक मुसलमान फकीर हुआ—हाजी मोहम्मद। साधु पुरुष था। एक रात उसने सपना देखा कि वह मर गया है और एक चौराहे पर खड़ा है, जहां से एक रास्ता स्वर्ग को जाता है, एक नरक को; एक रास्ता पृथ्वी को जाता है, एक मोक्ष को। चौराहे पर एक देवदूत खड़ा है—एक फरिश्ता, और वह हर आदमी को उसके कर्मों के अनुसार रास्ते पर भेज रहा है।
हाजी मोहम्मद तो जरा भी घबडाया नहीं; जीवनभर साधु था। हर दिन की नमाज पांच बार पूरी पढ़ी थी। साठ बार हज की, इसलिए हाजी मोहम्मद उसका नाम हो गया। अच्छूकर जाकर द्वार पर खड़ा हो गया देवदूत के सामने। देवदूत ने कहा, ‘हाजी मोहम्मद! ‘ देवदूत ने इशारा किया, ‘नरक की तरफ यह रास्ता है।’ हाजी मोहम्मद ने कहा, ‘ आप समझे नहीं शायद। कुछ भूल—चूक हो रही है। साठ बार हज किये हैं।’
देवदूत ने कहा, ‘वह व्यर्थ गयी; क्योंकि जब भी कोई तुमसे पूछता तो तुम कहते, हाजी मोहम्मद! तुमने उसका काफी फायदा जमीन पर ले लिया। तुम बड़े अकड़ गये उसके कारण। कुछ और किया है?’
हाजी मोहम्मद के पैर थोडे डगमगा गये। जब साठ बार की हज व्यर्थ हो गयी, तो अब आशा टूटने लगी। उसने कहा, ‘ही, रोज पांच बार की नमाज पूरी—पूरी पढ़ता था।’ उस देवदूत ने कहा, ‘वह भी व्यर्थ गयी; क्योंकि जब कोई देखने वाला होता था तो तुम जरा थोड़ी देर तक नमाज पढ़ते थे। जब कोई भी न होता तो तुम जल्दी खत्म कर देते थे। तुम्हारी नजर परमात्मा पर नहीं थी; देखने वालों पर थी। एक बार तुम्हारे घर कुछ लोग बाहर से आये हुए थे, तो तुम बड़ी देर तक नमाज पढ़ते रहे। वह नमाज झूठी थी। ध्यान में परमात्मा न था, वे लोग थे। लोग देख रहे है तो जरा ज्यादा नमाज, ताकि पता चल जाये कि मैं धार्मिक आदमी हूं—हाजी मोहम्मद; वह बेकार गयी; कुछ और किया है?’ अब तो हाजी मोहम्मद घबड़ा गया और घबड़ाहट में उसकी नींद टूट गयी। सपने के साथ जिंदगी बदल गयी। उस दिन से उसने अपने नाम के साथ हाजी बोलना बंद कर दिया। नमाज छिपकर पढ़ने लगा; किसी को पता भी न हो। गांव में खबर भी पहुंच गयी कि हाजी मोहम्मद अब धार्मिक नहीं रहा। कहते हैं कि नमाज तक बंद कर दी है! बुढ़ापे में सठिया गया है। लेकिन उसने इसका कोई खंडन न किया। वह चोरी छिपे नमाज पढ़ता। वह नमाज सार्थक होने लगी। कहते है, मरकर हाजी मोहम्मद स्वर्ग गया।
तुम्हारा मन प्रार्थना भी करेगा, तो भी प्रार्थना न होने देगा। तुम्हारा मन प्रार्थना से भी अहंकार को भरने लगेगा। अपने ध्यान की चर्चा मत करना, उसे छिपाना। उसे संभालना, जैसे कोई बहुमूल्य हीरा मिल गया हो और उसे तुम छिपाते हो, उछालते नहीं फिरते हो। संपदा को तुम गड़ा देते हो—ऐसे ही तुम ध्यान को गडा देना। उसकी तुम चर्चा मत करना। उससे तुम अहंकार मत भरने लगना। अन्यथा मन की बेल वहां भी पहुंच गयी और वह चूस लेगी। और जहां मन पहुंच जाता है, वहां धर्म नहीं है। और जहां मन नहीं पहुंचता, वहां धर्म है। मन बाहतृखा है। उसका ध्यान दूसरे पर होता है, अपने पर नहीं होता। ध्यान अंतर्मुखता है।
ध्यान का अर्थ है—अपने पर ध्यान है, दूसरे पर नहीं। मन का अर्थ है—दूसरे पर ध्यान। ध्यान करो, तुम अगर दो पैसे गरीब को देते भी हो, तो तुम देखते हो कि लोग देखते है या नहीं। तुम मंदिर बनाते हो, तो बड़ा पत्थर लगाते हो अपने नाम का; तुम दान करते हो तो अखबार में खबर छपवाते हो। सब व्यर्थ हो जाता है। हाजी मोहम्मद होकर तुम पहुंच न पाओगे। तुमने कितने उपवास किये, कितने व्रत किये, इस सब की फेहरिश्त संभाल कर मत रखना। परमात्मा की दुनिया दुकानदार की दुनिया नहीं है; वहाँ हिसाब काम नहीं आता। वहां तुम हिसाब लेकर गये कि वहां तुम हारोगे। हिसाब संसार में काम आता है।’
लेकिन तुम देखो। जैन मुनि हर वर्ष छपवाते हैं कि इस बार उन्होंने कितने उपवास किये; इस वर्षाकाल में कितने दिन भूखे रहे; कितने व्रत, नियम लिये। वे हिसाब रख रहे हैं। ये दुकानदार ही हैं। जो मंदिरों में बैठ गए हैं। इनकी बद्धि का गणित से छुटकारा नहीं हुआ। और, इनका ध्यान, इनका उपवास—सब व्यर्थ जा रहा है। ये हाजी मोहम्मद हुए जा रहे हैं।
नहीं तुम बाहर की चिंता मत करना कि दूसरे लोग तुम्हें धार्मिक समझते हैं या नहीं। दूसरे लोग क्या कहते हैं, यह बात विचारणीय ही नहीं है; क्योंकि दूसरे लोगों से तुम्हारे मन का संबंध है, तुम्हारा जरा भी नहीं। जिस दिन मन समाप्त हो जाएगा, उस दिन तुम असंग हो जाओगे। मन ही दूसरों से तुम्हें जोड़े हुए है। और जब तक मन तुम्हें संसार से जोड़े हुये है, तब तक तुम परमात्‍मा से टूटे रहोगे। जिस दिन तुम संसार से टूट जाओगे, मन खो जाएगा—उसी दिन तुम परमात्मा से जुड़ जाओगे। इधर हुए असंग, वहां हुआ संग। यहां टूटा नाता, वहां जुड़ा नाता। यहां से हुई आंख बंद, वहां खुली।

ध्यान बीज है और ध्यान का अर्थ है : निर्विचार चैतन्य।

दूसरा सूत्र : आसनस्थ व्यक्ति सहज ही चिदात्‍म सरोवर में निमज्जित हो जाता है।
यह सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है; सरल भी, कठिन भी। आसनस्थ हुआ व्यक्ति चिदात्म सरोवर में निमज्जित हो जाता है, डूब जाता है।


जापान में झेन फकीरों की परम्परा है। उनसे तुम पूछो कि ध्यान के लिए क्या करें तो वे कहते हैं कि कुछ न करो, बस बैठ जाओ। ध्यान रखना, जब वे कहते हैं कि कुछ न करो तो इसका मतलब है : कुछ भी न करना, बस बैठ जाना। बस इतना ही करना कि बैठ गये और कुछ भी मत करना; क्योंकि तुमने कुछ किया कि मन आया। बात सरल लगती है, पर बड़ी कठिन है। यही तो मुसीबत है कि बैठना मुश्‍किल है। आंख बंद की, काम शुरू हुआ, दौड़ शुरू हुई। शरीर बैठा हुआ दिखायी पड़ता है; मन जाग रहा है।

अगर तुम सिर्फ बैठ जाओ और कुछ भी न करो, तो ध्यान…। अगर तुम आसनस्थ हो जाओ, जस्ट सिटिंग, बस बैठे हैं, न राम—नाम का जप चल रहा है, न कृष्ण की सूइत चल रही है, कुछ भी नहीं कर रह हैं, न कोई विचार की तरंग है, क्योंकि वह भी कृत्य है। अगर तुम कुछ भी न करो, विचार को रोकने की कोशिश भी नहीं चल रही हो; क्योंकि वह भी कृत्य है, वह भी दूसरा विचार है। न तुम परमात्मा का स्मरण कर रहे हो, न संसार का; क्योंकि वे सब विचार हैं। न तुम भीतर दोहरा रहे हो कि ‘मैं आत्मा हूं, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘मैं ब्रह्म हूं, —यह सब बकवास है। इसके दोहराने से कुछ भी न होगा, ये सब विचार हैं—तुम कुछ भी न कर रहे होओ, बस तुम बैठ गये, जैसे तुम एक चट्टान हो, जिसके भीतर कुछ भी नहीं हो रहा, बाहर कुछ भी नहीं हो रहा—इस दशा का नाम आसनस्थ है। जापान में इस अवस्था को झाझेन कहते है—बस, सिर्फ बैठ जाना। और, झेन फकीर इस विधि का उपयोग करते हैं। कभी—कभी बीस साल लग जाते हैं, तीस साल लग जाते हैं, तब कहीं आदमी इस अवस्था में पहुंच पाता है कि सिर्फ बैठा हुआ है।

सरल दिखता है, सूत्र बड़ा कठिन है। इस दुनिया में सरलतम चीजें ही सर्वाधिक कठिन होती हैं। तुमसे कोई करने को कहे तो तुम हिमालय चढ जाओ। उसमें इतनी अड़चन नहीं है। पसीना आएगा, थकान होगी। मगर चढ़ जाओगे। तुमसे कोई कहे कि न करो, तो बस मुसीबत आ गयी; हालांकि वह सिर्फ तुमसे इतना ही कह रहा है कि तुम बैठो, कुछ मत करो।

अगर तुम चुपचाप बैठे रहो, क्या होगा? पहले तो जैसे ही तुम बैठोगे, तुम पाओगे, शरीर में अनेक स्थानों मे गति शुरु होती है। कहीं पैर में लगता है कि क्या चुभ रही है। कहीं शरीर के किसी कोने में लगता है कि खुजलाहट आ रही है। कहीं लगता है कि कमर में दर्द हो रहा है। कहीं लगता है कि गर्दन में पीड़ा हो रही है। और एक क्षण पहले तक यह कुछ भी न हो रहा था, तुम बिलकुल ठीक थे। अचानक सब तरफ से शरीर बगावत कर रहा है। वह कह रहा है कि कुछ करो; न कुछ बने तो खुजलाओ, लेकिन कुछ करो। कुछ नहीं तो शरीर की करवट बदल लो। पैर ऐसे रखे हैं, ऐसे रख लो। लेट जाओ। कुछ करो।

क्योंकि जीवन इस संसार में कृत्य के बल से टिका है। जैसे ही तुम कृत्य से शून्य हुए कि यह संसार खोया। जैसे ही तुम शांत बैठना चाहते हो, शरीर कहता है कि कुछ करो।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ‘वैसे हमें कभी पता नहीं चलता कि कहां दर्द है, कहां क्या है; लेकिन जब भी ध्यान करने बैठते है, बस तभी मुसीबत शुरू होती है। खांसी आयेगी, ऐसे बिलकुल तुम ठीक बैठे हो, कभी खांसी न आयी थी। बस बैठे तुम खाली कि शरीर कृत्य शुरू करता है। इस पर ध्यान रखना। शरीर की बात को मत सुनना। मालिक तुम हो और अगर तुमने न सुना, शरीर थोड़े दिनों में चुप हो जाएगा; क्योंकि यह कितनी देर तक चिल्लाका। तुम ध्यान देते हो, तुम पोषण देते हो; तुम कह देना कि कुछ भी हो, इस एक घंटे में मैं कुछ करनेवाला नहीं। खुजलाहट ही चलेगी न, क्या बिगड़ जाएगा?
कभी तुमने यह खयाल किया कि अगर तुम दो—चार मिनट हिम्मत जुटा लो तो खुजलाहट अपने—आप चली जाती है। और खुजलाने से कभी कोई खुजलाहट गयी है? बढ़ती है! अगर तुमने पका ही खयाल कर लिया कि शरीर गुलाम है और मेरी आज्ञा मानेगा, मैं नहीं मानता, तुम अचानक पाओगे कि गला ठीक हो गया, खांसी खो गयी। तुम्हें थोड़े दिन मालकियत घोषणा करनी पड़ेगी। क्योंकि इस गुलाम को तुमने बहुत दिन तक मालिक बनाया है, इसलिए उसकी मालकियत छिनती है तो वह बाधा डालता है। वह तुम्हें बुलाता है कि यह नहीं चलने देंगे; सिंहासन पर मैं हूं!
एक घंटे अगर तुमने खाली बैठने का तय किया है तो का हर्जा हो जाएगा? पैर खुजलाता है, खुजलाने दो। कोई प्राण नहीं निकले जाते हैं, खुजलाहट ही चल रही है और तुम थोड़ी देर में ही पाओगे कि जैसे ही तुमने संयम रखा, वैसे ही पैर जिद्द छोड़ देगा। वह जिद्द तो सिर्फ तरकीब थी, तुम्हें झुकाने के लिए थी। तुम सुनते तो दूसरी जगह खुजलाहट चलती; तुम नहीं सुनोगे, जहां खुजलाहट चलती थी, वहां शांत हो जाएगी। खाली घर हो तो भिखमंगा थोड़ी देर चिल्लाकर चला जाता है। लेकिन अगर तुमने इतना भी कहा कि दूसरे घर जा, यहां कोई नहीं है, तो फिर वह खड़ा रहता है। तुमने प्रतिक्रिया की, तुमने प्रत्युत्तर दिया, फिर वह कुछ—न—कुछ कहेगा।
एक भिखमंगा मण रहा था मारवाड़ी के द्वार पर—गलत जगह पहुंच गया। उसने कहा, ‘ दो रोटी मिल जाएं।’ मारवाड़ी ने कहा, ‘रोटी! यहां कोई रोटी—वोटी नहीं है। आगे जा!’ तो उसने कहा, ‘दो पैसे मिल जाएं।’ मारवाडी ने कहा, ‘यहां कोई पैसे वगैरह नहीं हैं। यहां हम कुछ लेते—देते नहीं।’ तो उसने कहा, ‘कुछ भी मिल जाए। कपडे का टुकड़ा ही मिल जाए।’ मारवाडी ने कहा, ‘कहा नहीं कि यहां कुछ भी नहीं है?’ तो उसने कहा, ‘फिर तुम हमारे साथ क्यों नहीं आ जाते? यहां बैठे—बैठे क्या कर रहे हो? न कपड़ा है, न रोटी है, न पैसे हैं तो हम साथ—ही—साथ मांगेंगे।’
तुमने उत्तर दिया कि तुम फंसे। तुमने उत्तर दिया, उसका मतलब है, तुम हो और तुम राजी हो। कम—से—कम प्रतिक्रिया ऊर रहे हो, यह पर्याप्त है। शरीर में खुजलाहट उठे, तुम देखते रहना, कोई उत्तर मत देना। तुम थोड़ी देर में हैरान होओगे कि खुजलाहट गयी। दर्द उठे, देखते रहना; दर्द भी चला जाएगा। कोई छह महीने लगते हैं शरीर को आसनस्थ करने में। कोई भी आसन चुन लेना, जो सुख—आसन हो, जिसमें तुम देर तक बैठ सकी। कोई उलटा—सीधा आसन मत चुन लेना, जिसकी वजह से अकारण अड़चन हो, इसलिए सुखासन। आराम से बैठ सको। कोई शरीर को कष्ट नहीं देना है जानकर; कि कंकड़—पत्थर रखकर उस पर बैठ जाना; कि कांटे बिछा लेगा। शरीर वैसे ही काफी तकलीफ देगा, और नयी तकलीफ जुटाने की कोई जरूरत नहीं है।
सुखासन से बैठ जाना। लेकिन बैठ गये और एक घंटा बैठने का तय किया तो फिर एक घंटा शरीर की मत सुनना। तुम चकित होओगे, थोड़े ही दिन में—तीन सप्ताह के भीतर, तुम चकित होओगे—आर तुमने हिम्मत रखी और तुम न झुके, शरीर आवाज देना बंद कर देगा। और जब शरीर आवाज देना बंद कर दे, तब तुम मन की तरफ ध्यान देना। मन की तरफ ध्यान ही मत देना। अभी मन के साथ उलझना ठीक नहीं है। पहले शरीर को साथ हो जाने देना। जिस दिन पाओ कि अब शरीर कोई उपद्रव खड़ा नहीं करता, वह बैठने को राजी हो गया है आधी यात्रा पूरी हो गयी; आधी से भी ज्यादा पूरी हो गयी। क्योंकि मन भी शरीर का ही हिस्सा है। अगर पूरा शरीर बैठने को राजी हो गया तो अब यह हिस्सा ज्यादा देर बगावत नहीं कर सकता। यह सबसे ज्यादा बगावती है; लेकिन फिर भी शरीर का ही हिस्सा है। और जब पूरा शरीर आसन में आ गया तो यह ज्यादा देर यहां वहां नहीं भटक पाएगा। यह भी बैठ जाएगा।
शरीर को आसनस्थ कर लेने का अर्थ है कि शरीर का सब उपद्रव शांत हो गया। अब तुम ऐसे बैठते हो जैसे अशरीरी हो; जैसे शरीर है ही नहीं, शरीर का पता ही नहीं चलता; बस तुम बैठे हो। अब तुम मन पर ध्यान देना। और, मन की भी प्रक्रिया वही है कि मन कुछ भी कहे, सुनना मत। कोई प्रतिक्रिया मत करना। मन में विचार चले तो वैसे देखना जैसे तुम तटस्थ हो; जैसे तुम्हारा कोई लेना—देना नहीं है; जैसे ये विचार किसी और के मन में चल रह हैं, बहुत दूर हैं तुमसे; जैसे रास्ते पर शोरगुल चल रहा है या जैसे आकाश में बादल चल रहे हैं, कुछ तुम्हारा लेना—देना नहीं। उपेक्षा से तुम देखते रहना।
पहले शरीर को शांत हो जाने देना, फिर धीरे— धीरे, शरीर कोई तीन सप्ताह लेगा; मन कोई अन्दाजन तीन महीने लेगा। कम—ज्यादा हो सकता है। कैसी प्रगाढ़ता है तुम्हारी, उस पर निर्भर होगा। लेकिन करीब छह महीने के भीतर तुम पाओगे कि आसनस्थ दशा आ गयी। अब न शरीर कोई क्रिया करता है, न मन कोई क्रिया करता है।
मन से लड़ना मत। दबाने की कोशिश मत करना कि नहीं, विचार मत करो; क्योंकि ध्यान रखना यह भी विचार है, इतना विचार भी तुमने अगर सहारा दिया तो मन जारी रहेगा। मन न मालूम कितने उपद्रव खड़े करेगा। तुम लड़ना भी मत; क्योंकि लड़ने का मतलब है कि तुम राजी हो गये प्रतिक्रिया करने को, तुम उपेक्षा न कर पाए। उपेक्षा सूत्र है। तुम देखते रहना। तुम कुछ कहना ही मत। मुश्किल होगी, क्योंकि पुरानी आदतें हैं। सदा की आदतें हैं—उसके साथ प्रतिक्रिया करने की, बातचीत करने की, उत्तर देने की। धीरे— धीरे, तुम सिर्फ देखते, देखते देखते उस बड़ी में आ जाओगे, जब तुम सिर्फ बैठे हो, कुछ भी नहीं हो रहा है। न शरीर में कोई गति है, न मन में कोई गति है। जिस दिन शरीर और मन दोनों की गति शांत हो जाए, उस अवस्था का नाम आसनस्थ है।
आसन का अर्थ कोई बड़े योगासन साधने का नहीं है। लेकिन अगर तुम योगासन करते हो तो तुम्हें सहायता मिलेगी; क्योंकि बैठने में, उतनी देर तक बैठने की क्षमता बढ़ेगी। लेकिन कोई जरूरत नहीं है, कोई अनिवार्यता नहीं है। तुम अगर सिर्फ बैठना ही शुरू कर दो और सिर्फ बैठना ही सीख जाओ तो परम आसन वही है। कोई जरूरत नहीं कि तुम जमीन पर ही बैठो; तुम कुर्सी पर बैठ सकते हो। एक ही बात ध्यान रखना कि जिस अवस्था में बैठो, बस फिर उसी अवस्था में ही बैठे रहना।
सुख से बैठ जाओ ताकि शरीर को यह भी कहने को न बचे कि तुम नाहक मुझे दुख दे रहे हो। सुख से बैठ जाओ। सब तरफ से व्यवस्था कर लो सुख की। ठंड है तो कंबल डाल लो। गरमी है तो पंखा लगा दो। सब सुख की व्यवस्था कर लो। शरीर को अकारण कष्ट देने में रस मत लेना; क्योंकि वह दुष्टता है। वह चाहे तुम अपने शरीर को सताओ या दूसरे के शरीर को सताओ, वह दोनों हिंसा है। और, हिंसा से कभी कोई परमात्मा तक नहीं पहुंचता। यह शरीर भी उसी का है। इसे भी कष्ट देने की कोई जरूरत नहीं है। सब तरह से सुख की व्यवस्था कर लेना। फिर लेकिन एक बार बैठ गये, फिर शरीर कुछ भी कहे तो मत सुनना; फिर बैठे रहना। और मन के साथ उपेक्षा करना। पहले मन बड़ा ऊहापोह मचाएगा, बड़ा शोरगुल मचाएगा, जैसा उसने कभी नहीं मचाया था।
लोग मेरे पास आते है। वे कहते है कि जब ध्यान नहीं करते थे तब ऐसी मन में अशांति कभी न थी, अब और बढ़ गयी; अब तो बड़ा तुमुल नाद चलता है। तुमुल नाद पहले भी चलता था, तुम्हें पता नहीं था, क्योंकि तुमने कभी ध्यान नहीं दिया था। तुम उलझे थे बाहर, भीतर अराजकता यही थी; क्योंकि तुम्हारे शांत बैठने से अराजकता के बढ़ने का कोई भी संबंध नहीं है। वह घट सकती है; बढ़ेगी कैसे? लेकिन तुम इतने उलझे थे बाहर, सारा ध्यान बहिर्मुखी था—बाजार, दुकान, धन वहां चल रहा था—तुम्हें मौका नहीं मिला भीतर देखने का कि वहा क्या उपद्रव चल रहा है। अब तुमने बाहर से आंख बंद की तो सारा ध्यान, सारा फोकस, सारा प्रकाश भीतर पड रहा है। इस भीतर प्रकाश पड़ने पर पहली दफा तुम्हें पता चलता है कि भीतर कैसी अराजकता मची है।
मगर उपेक्षा! एक ही ध्यान रखना कि मन से सब अपेक्षा छोड़ दो। अपेक्षा रखी तो उपेक्षा न कर सकोगे। अपेक्षा छोड़ दो, कोई आशा मत रखो और उपेक्षा में बैठ जाओ, तटस्थ हो जाओ। कितना ही कठिन हो, सरल हो जाएगा, अगर तुम बैठते ही रहे। आज न होगा, कल होगा, परसों होगा—तुम इसकी चिंता मत करना कि कब होगा; क्योंकि तुम जितनी जल्दी करोगे, उतनी देर हो जाएगी। जल्दी मन का स्वभाव है। अगर तुमने जल्दी की तो मन तुम्हें हरा देगा। अगर तुमने धैर्य रखा और प्रतीक्षा करने को राजी रहे कि कोई जल्दी नहीं—कभी होगा, इसकी हमें फिक्र नहीं, हम बैठते रहेंगे—तुम पाओगे कि छह महीने के करीब मन भी शांत हो गया।
आसनस्थ दशा का अर्थ है, शरीर में कोई क्रिया नहीं, मन में कोई विचार नहीं। और शिव का यह सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है। यह कहता है कि तुम आसनस्थ हुए कि सहज ही चिदात्म सरोवर में निमज्जित हो जाते हो। वह सरोवर भीतर है।
जब शरीर पर सब गति बंद होती है, जो ऊर्जा बाहर नहीं जा सकती। जब मन की सारी गति बंद होती है तो ऊर्जा के बाहर जाने के सारे छिद्र बंद हो गये; तुम्हारी बालटी पहली दफा अछिद्र हुई—सब छिद्र बंद हो गए; बाहर जानेवाला कोई भी न बचा। अब सारी जीवन—ऊर्जा भीतर जाती है। और भीतर महासरोवर है। इस भीतर गिरती ऊर्जा का उस महा सरोवर से मिलन हो जाता है। तुम, तुम्हारी बूंद, भीतर के सागर में डूबने लगती है। चिदात्म सरोवर में सहज ही निमज्जन हो जाता है—वही परमात्मा है।
बाहर जाते हुए, तुम भटके हो; भीतर जाते हुए मंजिल उपलब्ध हो जाएगी। तुम उसे बाहर खोज रहे हो, जो तुम्हारे भीतर छिपा है। तुम उसी को खोज रहे हो जो तुम हो; इसलिए खोज नहीं पा रहे हो। तुम जिसकी तलाश कर रहे हो, वह सदा से तुम्हारे भीतर मौजूद है। यही तो कठिनाई है। यही जटिलता है। और, वहां तुम देखते नहीं; और जहां तुम देखते हो, वहां वह है नहीं। इसलिए तुम भटकते जाते हो, भटकते जाते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने घर के बाहर, सांझ दीया जलाकर कुछ खोज रहा था। दूसरे लोग भी आ गये। उन्होंने कहा, ‘क्या खोजते है?’ उसने कहा कि मेरी सुई खो गयी है। वे भी साथ देने लगे। फिर थोड़ी देर बाद उनमें से एक ने पूछा कि ‘रास्ता बहुत बड़ा है; सुई खोयी कहां है? क्योंकि सुई छोटी—सी चीज है…।’नसरुद्दीन ने कहा, ‘वह पूछो ही मत। वह घाव छूओ ही मत।’ वे सब चौक गये। उन्होंने कहा, ‘तुम्हारा मतलब?’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘सुई तो घर के भीतर खोयी है; लेकिन वहां, प्रकाश नहीं है। अंधेरा है, भयंकर अंधेरा है और वहां जाने से मैं डरता भी हूं। रात तो मैं बाहर ही गुजारता हूं। दिन में कभी—कभी चला भी जाऊं, रात तो भीतर कभी नहीं जाता। अब रात हो गयी तो अब मैं बाहर खोज रहा हूं।’
लोगों ने कहा, ‘तू पागल है, नसरुद्दीन! जो चीज भीतर खोयी है, वह बाहर तू कैसे खोजेगा?’ नसरुद्दीन खिलखिलाकर हंसने लगा और उसने कहा कि सभी यही कर रहे हैं, जो मैं कर रहा हूं। जो चीज भीतर खोयी है, उसे लोग बाहर खोज रहे है। और उनमें से कोई भी पागल नहीं, बस मै ही पागल हूं।
क्या खोज रहे हो तुम? खोज तो जरूर रहे हो। क्या खोज रहे हो? अगर तुम्हारी सारी खोज का सार—निचोड़ निकाला जाए तो तुम आनंद खोज रहे हो। कोई धन खोज रहा होगा; लेकिन उससे भी आनंद खोज रहा है। कोई प्रेम खोज रहा होगा; लेकिन उससे भी आनंद खोज रहा है। कोई यश, कीर्ति खोज रहा होगा; लेकिन उससे आनंद ही खोज रहा है। तुम्हारी खोज के नाम कितने ही अलग—अलग हों, भीतर छिपा हुआ एक ही सूत्र है—वह आनंद है। तुम भीतर छिपे हुए आनंद को खोज रहे हो। शराबघर जाता हुआ आदमी भी और मंदिर जाता हुआ आदमी भी, दोनों की खोज एक है—दोनों आनंद खोज रहे है। पुण्य करता हुआ आदमी, और पाप करता हुआ आदमी दोनों की खोज एक है—दोनों आनंद खोज रहे है। बुरा और भला, दोनों एक ही चीज की खोज में लगे हैं। पर तुमने कभी पूछा, तुमने आनंद को खोया कहां है? जहां खोया है, वहीं खोजो। खोज रहे हो वहां, जहां तुमने खोया नहीं है। बाहर तो तुमने निश्रित ही नहीं खोया है। कहीं भीतर ही कोई स्वाद था, और वह स्वाद भी तुम्हें पता है?
मनोवैज्ञानिक एक बहुत महत्वपूर्ण बात कहते है और वह यह है कि बच्चा अपनी मां के गर्भ में परम आनंद की अवस्था में होता है। होना भी चाहिए, क्योंकि न कोई चिंता, न कोई दायित्व, न भोजन की फिक्र, न सर्दी—गरमी की फिक्र, एक—सा टेम्‍प्रेचर मां के पेट में बना रहता है। बाहर वर्षा हो कि ठंड हो कि गरमी हो, बच्चे के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। मां के पेट में बच्चे की एक—सी गरमी बनी रहती है, रत्तीभर फर्क नहीं पड़ता। कोई मौसम की बदलाहट से कोई तकलीफ नहीं आती। मां पसीने से तरबतर हो रही हो, लेकिन बच्चे के लिए कोई गरमी नहीं है, कोई ठंड नहीं है, कोई वर्षा नहीं है। मां भूखी हो तो भी बच्चा कभी भूखा नहीं होता। मां पर क्या गुजर रही है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बच्चा पूरा सुरक्षित होता है। और बच्चा तैरता रहता है।
तुमने क्षीर सागर में विष्णु को तैरते हुए देखा है? वह बच्चे की दशा है—हर बच्चे की दशा है मां के पेट में। क्षीर सागर पर जैसे विष्णु सुख में लेटे हैं, ऐसा हर बच्चा लेटा हुआ है। वह विष्णु का चित्र वस्तुत: गर्भ में बच्चे का चित्र है। जैसे उसकी नाभि से फूल खिला हुआ है, ऐसे ही बच्चा नाभि से अपनी मां के साथ जुड़ा हुआ है। वहीं से जीवन का सारा स्रोत है। और, सागर में जैसा जल है, ठीक वैसा ही जल मां के पेट में होता है। ठीक उसी अनुपात में नमक होता है मां के पेट में जिस अनुपात में सागर में होता है। इसलिए मां को एव बच्चा होता है, तब वह नमकीन चीजें खाने को बहुत उत्सुक हो जाती है, क्योंकि शरीर का सारा नमक पेट खींच लेता है। इसलिए मिट्टी तक खाने लगती है, अगर उसमें जरा भी नमक का स्वाद आ रहा हो। उसके सारे शरीर का नमक गर्भ में चला गया।
ठीक वही अनुपात होता है, वैज्ञानिक कहते हैं, जो सागर में नमक का है, वही अनुपात मां के पेट में जल का होता है। और उस जल में बच्चा तैरता रहता है—ताप स्व—सुख से तैरता रहता है। कोई चिंता नहीं, कोई दायित्व नहीं, रोने की जरूरत नहीं है। भूख लगी है, इसके पहले भोजन मिल जाता है। श्वास भी बच्चा खुद नहीं लेता, वह भी मां की श्वास से ही धड़कता है। बच्चा जुड़ा है, अभी अलग नहीं है। अभी बच्चे को अहंकार भी नहीं है कि मैं हूं। अभी इतना भी पता नहीं है। वैसे वह अभी है, लेकिन अस्तित्व में निमज्जित है। इन क्षणों में वह जो आनंद जानता है, उसी की खोज जीवनभर चलती है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जीवन की खोज वस्तुत: गर्भ की खोज है। फिर हम लाख उपाय करते हैं। अगर तुम गौर करो तो वे उपाय वही है। अच्छा बिस्तर चाहते हो तुम सोने के लिए। वह तभी अच्छा होता है, जब करीब—करीब उसका तापमान वही होता है जो मां के गर्भ का। तुम जब बिस्तर पर सोते हो तुम करीब—करीब वैसे ही सिकुड़कर सो जाते हो, जैसे मां के पेट में बच्चा। जो भी अच्छे सोनेवाले है, वे करीब—करीब बच्चे की तरह सिकुङ्कर सोते हैं—फिर से वे पुन: बच्चे हो गये।
तुम्हारी सारी चेष्टा यही है कि कोई दायित्व न रह जाए, कोई चिंता न रहे। इसलिए तुम धन को खोजते हो कि धन होगा पास में तो कोई चिंता न होगी, कल की फिक्र न होगी। तुम मित्र खोजते हो चारों तरफ, प्रेम खोजते हो ताकि उन सब का गर्भ बन जाए और तुम उन सबके बीच में सुरक्षित हो जाओ। अकेले में तुम्हें डर लगता है, क्योंकि चारों तरफ अनजान—अपरिचित शत्रु हैं। मित्रों के बीच तुम्हें अच्छा लगता है। अपना एक तुम घर बना लेते हो। घर में एक दुनिया बना लेते हो। अगर उसको बहुत गौर—से देखो तो वह तुमने फिर से गर्भ निर्मित कर लिया, जिसमें अपने चारों तरफ दीवाल बना रहे हो। तुम उसके भीतर सुरक्षित हो।
बच्चा आनंद की कोई अनुभूति बचपन में ले लेता है मां के पेट में—हर बच्चा! और फिर जीवनभर उसी को खोजता है। इसलिए जब भी तुम्हें फिर कभी वैसा क्षण मिल जाता है, थोड़ी—सी भी झलक मिल जाती है, तब तुम खुश होते हो। तुम्हारी सब खुशियां उसी की झलक हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मोक्ष की खोज वस्तुत: गर्भ की खोज है। जिस दिन यह सारा अस्तित्व तुम्हारे लिए गर्भ जैसा हो जाएगा; तुम उसमें फिर निमज्जित हो जाओगे; तुम्हारा अहंकार विलीन हो जाएगा; न तुम्हारी कोई चिंता होगी, न कोई फिक्र होगी, तब तुम पुन: आनंद को उपलब्ध होओगे। वह आनंद तुम्हारे भीतर ही है और तुमने उसे खो दिया है। बाहर तुम खोज रहे हो, इसलिए वह मिल नहीं पाता।
आसनस्थ अवस्था में, ध्यान की अवस्था में, तुम्हारा शरीर ही तुम्हारे लिए गर्भ बन जाता है। आसनस्थ अवस्था में जब सब क्रिया शांत हो जाती है, सब विचार खो जाते हैं तो तुम्हारा शरीर और मन दोनों परिधि बन जाते हैं। उनके बीच तुम पुन: गर्भ में प्रविष्ट हो गये। इसलिए हम ध्यानी व्यक्ति को द्विज कहते हैं, उसका फिर से जन्म हुआ। उसका नया जन्म हुआ। वह अपने गर्भ से गुजरा। एक जन्म है जो मां और पिता से मिलता है; एक जन्म है जो तुम्हें स्वयं अपने को देना होगा। वही जन्म द्विज बनायेगा।
आसनस्थ अर्थात स्व—स्थित व्यक्ति सहज ही चिदात्म सरोवर में निमज्जित हो जाता है। और फिर चेतना का सागर है। जब शरीर के सागर में इतना रस है तो चेतना के सागर में कितना रस होगा! तुम उसका गणित भी नहीं बिठा सकते। वह अनंत—अनंत गुणा है। उसकी कोई सीमा नहीं है। तुमने मां के शरीर में जो रस थोड़ा—सा जाना था गर्भ का, वह तो शरीर में निमज्जित होने का था। जिस दिन तुम आत्मा में निमज्जित होओगे, उस दिन तुम जो रस जानोगे, वही आनंद है। वही परम रस है। उसे हिंदुओं ने ब्रह्म कहा है। उस जैसा कोई स्वाद नहीं। वह सच्चिदानंद है।
‘और आत्म—निर्माण अर्थात, द्विजत्व को प्राप्त करता है, जैसे ही निमज्जित हुआ भीतर के सागर में, वैसे ही द्विज हो जाता है और पहली दफा आत्मा का जन्म होता है। अभी तुम्हारी आत्मा बीज में छिपी है—मौजूद है और मौजूद नहीं है, मौजूद भी है और नहीं भी। मौजूद है बीज की तरह, वृक्ष की तरह नहीं। अभी तुम सिर्फ संभावना हो—होने की एक आशा हो। अभी तुम हो नहीं गये हो। यही तुम्हारी तकलीफ है। यही तुम्हारी पीड़ा है। इसी से तुम कैप रहे हो, परेशान हो।
यह सारी पीड़ा अगर ठीक से समझो तो जन्म की पीड़ा है। जब तक तुम्हारा दूसरा जन्म न हो जाए, यह पीड़ा जारी रहेगी। और जिसका दूसरा जन्म हो गया, उसका पहला जन्म बंद हो जाता है; क्योंकि उसकी कोई जरूरत न रही। अन्यथा तुम फिर—फिर जन्मोगे, शरीर में फिर—फिर वापस आओगे। अगर तुम द्विज हो गये तो फिर तुम्हारे आने की कोई जरूरत नहीं है।
हम ब्राह्मण को द्विज कहते हैं। अच्छा हो कि हम द्विज को ब्राह्मण कहें; क्योंकि सभी ब्राह्मण द्विज नहीं हैं, लेकिन सभी द्विज ब्राह्मण है। ब्राह्मण के घर में पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता; जब तक ब्रह्म से पैदा न हो तब तक कोई ब्राह्मण नहीं होता; जब तक निमज्जित न हो जाए ब्रह्म में, तब तक कोई ब्राह्मण नहीं होता।
हिंदुओं का एक बहुत अनूठा सिद्धांत है। वे कहते हैं कि पैदा तो सभी शूद्र होते हैं, उनमें से कुछ ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हो जाते हैं। पैदा सभी शूद्र होते हैं, चाहे कोई ब्राह्मण के घर में पैदा हो, चाहे शूद्र के। जन्म से सभी शूद्र होते हैं। इसलिए ब्राह्मण के बच्चों को हम यज्ञोपवीत करते हैं; वह सिर्फ औपचारिक है। वह इस बात की खबर है कि अब तू शूद्र न रहा, अब तू ब्राह्मण हुआ। पैदा तो तू शूद्र ही हुआ था, अब तेरे गले में हमने जनेऊ डाल दिया, अब तू ब्राह्मण हुआ। इतना सस्ता नहीं है ब्राह्मण होना कि गले में आपने एक धागा डाल दिया और कोई ब्राह्मण हो गया। ब्राह्मण होना इस जगत में सबसे कठिन प्रक्रिया है; वह आत्म—निमज्जन से घटित होती है।
स्वयं को जन्म जो दे देता है, वह द्विज है, वह ट्वाइस —बार्न है, उसका पुनर्जन्म हुआ। और अब स्वयं ही अपना पिता है और स्वयं ही अपनी माता है; अब दूसरे से पैदा नहीं हुआ। अब संसार से उसका संबंध टूट गया। अब ब्रह्म से उसका संबंध जुड़ गया।
यह सूत्र कहता है. ध्यान बीज है। आसनस्थ जो हुआ, ध्यानस्थ जो हुआ, वह आत्म—निमज्जित हो जाता है। इस निमज्जन से आत्मा का जन्म होता है, द्विजत्व को प्राप्त करता है।
सस्ती बातों में मत पड़ना। यज्ञोपवीत को पकड़कर मत बैठे रहना। काश, इतना सस्ता और आसान होता ब्राह्मण हो जाना! लेकिन हम हमेशा सस्ती तरकीबें निकाल लेते हैं और मन को समझाने की कोशिश करते हैं। कब तक समझाओगे मन को? समझाने से सत्य नहीं मिलेगा। सब झूठी आशाएं छोड़ो। सब जनेऊ, यज्ञोपवीत तोड़ो। इनसे कुछ भी न होगा। असली जन्म चाहिए। असली जन्म पैदा होगा जब तुम स्वयं अपने लिए गर्भ बन जाओ। आसनस्थ शरीर और ध्यानस्थ मन गर्भ—निर्माण करता है।
जीसस से निकोडैमस ने पूछा कि कब मैं तुम्हारे प्रभु के राज्य को उपलब्ध होऊंगा, तो जीसस ने कहा कि जब तुम मरो और फिर से जन्मों। तुम जैसे हो, ऐसे तो मिट जाओ और तुम जैसे हो सकते हो, वैसे फिर से पैदा हो जाओ, तभी तुम मेरे प्रभु के राज्यमें प्रवेश कर सकोगे। बिलकुल साफ है—बीज की भांति मिट जाओ और वृक्ष की भांति हो जाओ।
जैसे तुम अभी हो—सिर्फ एक सपना और एक आशा; एक संभावना कि कभी परमात्मा तुम में फलित हो सकता है, लेकिन हुआ नहीं है—इस संभावना को दबा दो, बीज की तरह जमीन में गडा दो। डर क्या है? डर यही है कि बीज को डर लगता है कि मैं मिट जाऊंगा, और, बीज की तकलीफ समझ में आती है। उसे कोई भी पता नहीं कि वृक्ष होगा कि नहीं होगा। और बीज कभी वृक्ष को देख भी न पायेगा; क्योंकि जब वह मिट जाएगा, तभी वृक्ष होगा। बीज का कभी मिलन भी नहीं होगा वृक्ष से, कभी हुआ भी नहीं। तो बीज कैसे पका भरोसा करे कि मैं मिटूगा तो विराट का जन्म होगा। बीज को तो यही दिखायी पड़ता है कि जो भी मैं हूं यह भी खो जाएगा। क्या पका कि विराट होगा कि नहीं! यही तुम्हारी भी पीड़ा है। बुद्धों, महावीरों, शिवों के पास पहुंचकर, तुम्हारी भी पीड़ा यही है। तुम भी यही पूछते हो कि जो भी पास में है, यह भी कहीं खो जाए। और जो आप कहते हैं, वह अगर न हो तो फिर!

डर स्वाभाविक है। इसलिए सदगुरु के पास पहुंचकर डर लगता है। और जिस गुरु के पास पहुंचकर डर न लगे, वह दो कौड़ी का है। वहां से तो भाग ही खड़े होना; क्योंकि सदगुरु के पास ही डर लगेगा। वही तुम्हें भयभीत करेगा; क्योंकि वह मृत्यु जैसा मालूम पड़ेगा। वह तुम्हें मिटायेगा और जैसे ही तुम मिटने लगो कि मन कहेगा भागो यहां से। जहां से मन कहे, भागो, वहां से भागना मत। और जहां मन कहे कि रुको, कैसा प्यारा सत्संग चल रहा है, वहां से भाग खड़े होना। जहां मन भयभीत हो, वहां समझना कि कुछ घटनेवाला है; क्योंकि बीज वहीं डरता है, जहां मिटने की नौबत आती है, उसके पहले वह नहीं डरता है।
इसलिए पुरोहित से तुम्हें कोई भय नहीं है। मंदिर से तुम्हें कोई डर नहीं है। काशी में तुम्हें कोई भय नहीं है, मजे से निर्भय घूम सकते हो। बोधगया में तुम्हें मिटानेवाला अब कोई नहीं है, न गिरनार में, न शिखरजी में, न काबा में, न जेरुसेलम में—वहां तुम मजे से जा सकते हो।
तुम्हारे सब तीर्थ मर गये हैं; मर ही जाते हैं, क्योंकि तीर्थों में थोड़े ही प्राण होते हैं, तीर्थंकरों में प्राण होते हैं। तीर्थंकर खो गया, फिर तुम तीर्थ बना लेते हो। वह मरा हुआ तीर्थ लाश है। वह तुम्हें मिटा नहीं सकता। कोई मरा हुआ गुरु तुम्हें मिटा नहीं सकता। इसलिए मरे हुए गुरुओं की मन खूब पूजा करता है। महावीर की पूजा करने मे तुम्हें बहुत रस आता है; क्योंकि तुम भलीभांति जानते हो कि पत्थर की मूर्ति क्या बिगाड़ लेगी। आपने ही खरीदी है; अपने बस में है, जिस दिन चाहे उखाड़कर फेंक दें।
हिंदू बड़े होशियार हैं। वे बना भी लेते हैं। इसलिए वे मिट्टी की बनाते हैं; क्योंकि दो सप्ताह, तीन सप्ताह में जाकर नदी में समाप्त भी कर आते हैं। एक बात पकी है कि हम ही बनानेवाले और हम ही समाप्त करनेवाले हैं। तुम हमारा क्या बिगाड लोगे? पूजा भी करते हैं तो हमारी मौज है। खेल तुम हमारे हो। प्ले—स्त्री से ज्यादा तुम्हारा मूल्य नहीं है, है भी नहीं।
महावीर, राम, कृष्ण जब नहीं रह जाते, तब उनकी पूजा चलती है। जब कोई व्यक्ति जिंदा होता है, तब तुम उससे डरते हो। तीर्थंकर से भय लगता है; तीर्थ जाने की बड़ी आशा बनी रहती है, बड़ा आनंद आता है। देखो तुम! कुंभ के मेले में करोड़ों लोग इकट्ठे हो जाते हैं। कभी महावीर और बुद्ध और कृष्ण के पास करोड़ों लोग इकट्ठे हुए? कभी नहीं। कुंभ तुम्हारे घर नहीं आता, तुम कुंभ पहुंच जाते हो। बुद्ध और महावीर तुम्हारे घरों पर भी दस्तक देते हैं, तब दरवाजे बंद पाते हैं। उनसे डर लगता है, क्योंकि यह आदमी खतरनाक है। यह कहता है कि बीज की तरह मिटो ताकि वृक्ष की तरह हो जाओ।
इसलिए, आस्था और श्रद्धा का मूल्य है। अगर तुम तर्क से चले तो तर्क यही कहेगा कि पहले तुम जो हो सकते हो, उसका पका आश्वासन और गारंटी कर लो। ठीक भी कहता है तर्क, पहले उसकी पकी गारंटी हो जाए कि तुम जो हो सकते हो, तभी तुम उसको छोड़ना जो तुम हो। कहीं ऐसा न हो, कि हाथ की असली चीज नकली आशा में छूट जाए। कहीं ऐसा न हो तर्क सदा कहता है कि हाथ की आधी रोटी भी आशा की पूरी रोटी से बेहतर है। कम से कम आधी है, यह माना; लेकिन है तो। और तुम इस आधी को तभी छोड़ना जब पूरी तुम्हें मिल जाए। अगर तुम तर्क की मानकर चले… और तर्क बिलकुल ठीक कहता है।
मुल्ला नसरुद्दीन तैरना सीखना चाहता था। उसने गांव के एक गुरु को पकडा। उसने कहा, ‘मुझे तैरना सिखा दो।’ तो उसने कहा, ‘आओ मैं अभी नदी पर ही जा रहा हूं।’ लेकिन संयोग की बात, पैर फिसल गया मुल्ला का सीढ़ियों पर। दो—चार गोते खा गया। बाहर निकलकर भागा। गुरु पीछे भागा कि कहां जा रहे हो, सीखने आये थे? नसरुद्दीन ने कहा, ‘पहले तैरना सिखा दो, फिर पानी में पैर रखूंगा। जब तक तैरना न सीख लूं तब तक पानी में मैं पैर रखनेवाला नहीं हूं।’ गुरु ने कहा, ‘तब बड़ी मुश्किल है कि बिना पैर रखे तुम सीखोगे कैसे?’ नसरुद्दीन ने कहा कि अब नहीं। भूल एक दफा हो गयी, अब इस जीवन में दुबारा नहीं।
तुम भी जब तर्क करते हो, तब तर्क यही कह रहा है और तर्क बिलकुल ठीक कह रहा है। और, नसरुद्दीन भी ठीक कह रहा है कि अब पानी में तभी उतरूंगा, जब तैरना सीख लूं; क्योंकि यह खतरनाक है। गोते खा गये और बच गये—संयोग की बात, न बचते..। तो अब तैरना ठीक से सीख लें, तब।
मैंने देखा, एक दिन नसरुद्दीन रास्ते के किनारे खड़ा है। उसका पत्नी कार में बैठी है। वह पली को कार चलाना सिखा रहा था। थोड़ी देर मैं देखता रहा। किनारे—किनारे दौड़ता है और कहता है, ‘बाएं! क्लिच को दबाना जब गेयर बदलना।’ मैंने कहा, ‘नसरुद्दीन, बहुतों को गाड़ी चलाते और सिखातेदेखा, लेकिन बाहर से किसी को भी चलाते नहीं देखा।’ उसने कहा, ‘गाड़ी का तो इंशोरेन्स है, मेरा नहीं है। इसलिए मैं भीतर जानेवाला नहीं हूं।’ तर्क हमेशा इंशोरेन्स मांगता है। वह मांगता है गारंटी। बीज भी गारंटी मांगता है कि क्या गारंटी है कि वृक्ष होगा। बीज को कैसे भरोसा दिलाया जाए!
इसलिए श्रद्धा का मूल्य है। भरोसा दिलाने का कोई उपाय नहीं है। श्रद्धा अंधेरे में छलांग है। इसलिए श्रद्धालु पहुंच जाते हैं, तर्कनिष्ठ कभी नहीं पहुंच पाते हैं। बुद्धि भटका देती है, ह्रदय पहुंचा देता है। जब तुम प्रेम करते हो, तब तुम बुद्धि की नहीं सुनते। जब तुम प्रार्थना करोगे, तब भी तुम बुद्धि की नहीं सुनोगे तो ही कर पाओगे। तुमने बुद्धि की सुनी तो बात बिलकुल ठीक लगती है, शत—प्रतिशत ठीक लगती है; क्योंकि बुद्धि हमेशा तर्क से चलती है। लेकिन अंतिम परिणाम में सब व्यर्थ हो जाता है। तो बीज बीज ही रहेगा और सड़ता रहेगा।
तुम एक बात पर ध्यान रखना कि जो तुम्हारे पास है, वस्तुत: है कुछ? बीज के पास है क्या? तुम यह मत पूछो कि वृक्ष होगा या नहीं, तुम यह पूछो कि बीज के पास है क्या, जिसे तुम खोने में डर रहे हो। तुम्हारे पास है क्या, जिसे तुम खोने से डरते हो? यह पूछो। श्रद्धा हमेशा यही पूछती है। श्रद्धा यही पूछती है कि मेरे पास क्या है, जिसको खोने में डर है? है कुछ तुम्हारे पास? जो खो जाएगा, कुछ खोया हुआ लगेगा? कुछ भी नहीं है। चिंता होगी, दुख होगा, संताप होगा, उदासी होगी—मगर इनके खोने में क्या डर है? कोई आनंद है तुम्हारे पास? कोई ऐसा नृत्य जाना है, जिसे खोने में तुम वंचित हो जाओगे? दीख हो जाओगे? तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तुम उस नंगे आदमी की तरह हो, जो खान नहीं करता था, क्योंकि वह कहता था कि कपड़े धो लूंगा तो सुखाउंगा कहां? कपड़े थे नहीं। धोने का कोई सवाल न था, लेकिन सुखाने की चिंता मन को घेरती थी।
तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं है और पाने को सब कुछ है। यह श्रद्धा है। श्रद्धा हमेशा देखती है कि मेरे पास क्या है। और तर्क हमेशा देखता है कि क्या होगा भविष्य में। तर्क भविष्योसुख है। श्रद्धा वर्तमान में देखती है कि क्या है मेरे पास।
मेरे पास लोग आते हैं। उनसे मैं कहता हूं ‘लो छलांग संन्यास में! ”एक साल और’—जैसे कि मै उनसे कुछ छीन रहा हूं जैसे कि वे एक साल हिम्मत जुटाएंगे। वे कहते हैं कि थोड़ी देर रुके, अभी कठिन है; जैसे कि मैं उनसे कुछ त्याग करने को कह रहा हूं। उनके पास कुछ भी नहीं है—रत्तीभर भी नहीं है। संपदा के नाम पर कोई संपदा नहीं है; सिवाय दीनता और दरिद्रता के कुछ भी नहीं है। मैं उन्हें संन्यास की महिमा देना चाहता हूं। मैं उनसे कुछ छीन नहीं रहा हूं; उन्हें कुछ दे रहा हूं—क्योंकि संन्यास को मैं त्याग नहीं कहता; परम भोग का द्वार कहता हूं। संन्यासी होकर तुम पहली दफा सम्राट बनोगे; लेकिन तुम अपने भिखारीपन को संपदा समझ रहे हो।
जब भी मै किसी से कहता हूं लो छलांग संन्यास में। वह ऐसा देखता है मेरी तरफ जैसे कि मैं कुछ छीने ले रहा हूं। मैं चकित होता हूं कि काश! तुम्हारे पास कुछ होता तो बात भी ठीक थी। कुछ भी तुम्हारे पास नहीं है। कूड़ा—करकट भी तुम्हारे पास नहीं है। जो भी तुम्हारे पास है, सांप—बिच्छू है; कूडा—करकट भी नहीं। सिवाय दुख, चिंता और पीड़ा के तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। उसे भी तुम छोड़ते नहीं हो; उसे भी तुम पकड़ते हो। कारण क्या है? न, तुम उस तरफ देखते ही नहीं; तुम यह देखते हो कि क्या मिलेगा?
लोग मुझसे पूछते हैं कि ध्यान करने से क्या मिलेगा? बस, तब भूल हो गयी। मैं उनसे चाहता हूं कि वे पूछें कि ध्यान न करने से क्या मिला है। क्या मिलेगा, इसका तो भरोसा नहीं किया जा सकता; क्योंकि भविष्य अज्ञात है और बीज का मिलन वृक्ष से कभी नहीं होता। बीज बीज ही रहेगा। अब बीज को हम उसके भविष्य से कैसे मिला सकते हैं! बीज मिटेगा तो वृक्ष होगा। जब तक वृक्ष हो जाएगा तो तब बीज न रहेगा। हम उसे दिखा भी न पाएंगे कि यह मिला। यह बड़ी मुसीबत है। कैसे तुम बीज को दिखा पाओगे कि यह मिला? जब तक तुम बीज हो, तब तक तुम बीज हो; जब तुम वृक्ष होओगे तो वृक्ष होओगे। इन दो का तो मिलना कभी होगा नहीं।
अभी तुम मांगते हो भविष्य की गारंटी। किसको दी जाए? यह बीज तो बचेगा नहीं—तुम तो बचोगे नहीं। नहीं, श्रद्धालु पुरुष पूछता है कि क्या है मेरे पास। देखता है, पाता है कि कुछ भी नहीं हैं; नंगा हूं निचोड़ने से डर रहा हूं। यह बोध ही आ जाए कि मेरे पास कुछ नहीं है तो फिर तुम अज्ञात की यात्रा पर निकलने को तत्‍पर हो गये, खोने का कोई डर न रहा। कुछ मिलेगा तो ठीक, कुछ न मिलेगा तो भी ठीक; खोने का तो कोई भी डर नही है। तुम जैसे हो, इससे बदतर तो हो ही नहीं सकते; या कि तुम सोचते हो कि हो सकते हो? लोग हैं, जो हमेशा इसी डर में रहते हैं कि कहीं इससे भी बदतर हालत न हो जाए।

मुल्ला नसरुद्दीन का एक तकियाकलाम था कि— ‘इससे बुरा भी हो सकता था।’ वह जब भी कोई बात करता था, कोई कुछ कहता तो वह यही कहता कि इससे बुरा भी हो सकता था। लोग थक गये थे। ऐसी कोई बात ही नहीं थी जिसमें वह यह न कहे कि इससे भी बुरा हो सकता था। आखिर, एक दिन ऐसी घटना घट गयी मोहल्ले में कि लोगों ने कहा कि अब इसको फंसा दो। अब यह न कह पाएगा तकियाकलाम।

ऐसा हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन का पड़ोसी बाहर गया था और दो दिन पहले लौट आया। अचानक घर पहुंच गया, पाया कि घर में एक अजनबी आदमी है, पली उसके प्रेम में है। उसने उठायी बंदूक और दोनों की हत्या कर दी। मुल्ला नसरुद्दीन सुबह निकला था घर से, पड़ोस के लोगों ने घेर लिया और उससे कहा, ‘नसरुद्दीन, सुनो, अब तुम्हारे तकियेकलाम का कोई उपाय न रहा। दोनों मर गये।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘इससे भी बुरा हो सकता था।’ लोग चकित हुए। उन्होंने कहा कि इससे भी बुरा और क्या हो सकता था? नसरुद्दीन ने कहा कि अगर वह एक दिन पहले लौट आया होता तो मैं मरा होता।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं इससे बुरा नहीं हो सकता। तुम यह तकियाकलाम छोड़ो। तुम जैसे हो, यह बुरी से बुरी दशा है; और क्या बुरा हो सकता है?
श्रद्धा सदा सोचती है कि क्या मेरे पास है। बीज के पास क्या है? एक खोल है बीज। बीज के पास कुछ भी नहीं है। हो सकता है कुछ; लेकिन वह होगा, जब खोल टूट जाएगी। तुम एक खोल हो; खोल को टूट जाने दो। तब सब कुछ संभव हो जाता है। परमात्मा तुम्हारे भीतर संभव हो जाता है।
इसलिए शिव कहते हैं : ध्यान बीज है। और, जब बीज मिटता है, तब तुम द्विजत्व को उपलब्ध होओगे।’विद्या का अविनाश, जन्म का विनाश है।’
और, जिस दिन तुम्हारे भीतर द्विजता फलित होगी, नया जन्म होगा, फिर तुम्हारे भीतर विद्या का कभी विनाश न होगा; ज्ञान सतत बहता रहेगा; ज्ञान की धारा हो जाओगे तुम; तुम्हारा सब कुछ शान बन जाएगा, चैतन्य हो जाएगा। ध्यान का बीज जब टूटेगा, तब तुम्हारे भीतर चेतना—ही—चेतना रह जाएगी। तुम एक होश, एक साक्षी—भाव में रूपांतरित हो जाओगे।
और, विद्या का जहां अविनाश है, जहां विद्या नष्ट नहीं होती…। अभी तुम्हारी चेतना न के बराबर है, है ही नहीं। तुम ऐसे जीते हो, जैसे सोये हुए हो। अभी तुम जो करते हो, उसे भी तुम होशपूर्वक नहीं करते हो।
बुद्ध के सामने कोई बैठा था। वह बैठकर अपने पैर का अंगूठा हिला रहा था। बुद्ध ने कहा, ‘मेरे भाई, यह पैर का अंगूठा क्यों हिलता है?’ जैसे ही बुद्ध ने कहा, वह रुक गया। उसने कहा कि ‘मुझे खुद पता नहीं। आपने पूछकर मुश्किल में डाल दिया। मैं कोई जानकर तो हिला नहीं रहा था; बस, हिला रहा था।’ बुद्ध ने कहा, ‘पूरी जिंदगी तुम्हारी ऐसी है।’
तुमने जानकर क्या किया है? जानकर क्रोध किया? जानकर प्रेम किया? जानकर लोभ किया? जानकर मोह किया? क्या तुमने जानकर किया है? बस, बेहोशी में पैर का अंगूठा हिल रहा है—तुम्हारी पूरी जिंदगी ऐसी है। घर भी बसा लिया, परिवार भी है, बच्चे भी पैदा हो गये हैं; जानकर तुमने क्या किया है? सब हो रहा है। तुम एक यंत्रवत उस होने में फंसे हो।
होशपूर्वक तुमने क्या किया है जिंदगी में? कोई एक कृत्य है, जो तुमने होशपूर्वक किया हो; जो तुम्हारी चेतना से निकला हो? नहीं, एक भी कृत्य तुम न बता सकोगे, जो तुमने होशपूर्वक किया है।
प्रेम किसी से हो गया, हो गया; तुमने किया नहीं। झगड़ा किसी से हो गया, हो गया; तुमने किया नहीं। आदमियों को तुम देखते हो, देखते से ही तुम निर्णय कर लेते हो—कोई अच्छा लगता है, कोई बुरा लगता है; लेकिन होशपूर्वक कौन अच्छा है, कौन बुरा है!

तुम जो भी जिंदगी में बन गये हो, यह सांयोगिक दुर्घटना मालूम होती है। तुम होशपूर्वक नहीं चले हो। घटनाएं घट रही हैं, तुम मूर्च्छित बहे जा रहे हो। तुम नदी में बहते एक तिनके की भांति हो; लहरें जहां ले जाती है, तुम चले जाते हो। हालांकि तिनका भी सोचता होगा कि मैं यात्रा कर रहा हूं। ऐसे ही तुम भी सोचते हो कि तुम कुछ कर रहे हो। कर्ता हो ही कैसे सकता है, जब होश नहीं है?

यह सूत्र कह रहा है : विद्या का अविनाश तो तभी होता है जब ध्यान का बीज टूट जाता है और तुम्हारे भीतर सतत स्कुरणा चेतना की बनी रहती है। सोते—जागते, तुम कभी नहीं सोते। उठते—बैठते, तुम कभी नहीं सोते। तुम्हारे भीतर होश बना रहता है। तुम प्रेम करो, वह भी होशपूर्वक। तुम भोजन करो तो भी होश पूर्वक होगा। तुम उठोगे—हिलोगे तो भी होश पूर्वक होगा। तुम्हारा सारा जीवन होश का विस्तार हो जायेगा। इसको हम बुद्धत्व कहते हैं। बुद्धत्व का अर्थ है. जो आदमी जागा हुआ जी रहा है।

‘विद्या का अविनाश’—अब विद्या विनष्ट नहीं होती। अब ज्ञान कभी फीका नहीं पड़ता। अब भीतर की ज्योति कभी मंद नहीं होती। जलती रहती है सतत, एक—सी, अकंप। जब ऐसा घटित हो जाता है— ध्यान का बीज टूटकर जब अविनाशी विद्या बन जाती है, सतत चैतन्य तुम्हारे भीतर चलने लगता है—तब जन्म का विनाश हो जाता है। फिर तुम्हारा कोई जन्म नहीं है। फिर तुम शरीर में वापस न आओगे।

शरीर में तुम मूर्च्छा की तरह ही वापस आते हो। तुम सोये हो, इसलिए बार बार शरीर में उतरते हो। शरीर में उतरना तुम्हारी बेहोशी के कारण है। जिस दिन तुम्हारा होश सतत हो जायेगा, शरीर की यात्रा बंद हो जायेगी। तब तुम इस संकीर्ण शरीर में न उतरोगे क्योंकि यह एक कारागृह है। होशपूर्वक कोई भी इसमें नहीं उतर सकता। यह एक बंधन है। ये जंजीरें हैं, जो तुमने खुद अपने हाथ के चारों तरफ बांध ली हैं। यह कैद है, गुलामी है; इसमें तुम जानकर क्यों उतरना चाहोगे!

बे—जानकर तुम उतरे हो। अंधेरे में भटक गये हो। जिस दिन तुम्हारी आंखें ज्योतिपूर्ण हो जायेंगी, शरीर में उतरना बंद हो जायेगा। फिर तुम कहां होओगे? फिर तुम विराट अशरीर के हिस्से हो जाओगे। उसे हम ‘ब्रह्म’ कहते हैं; कोई ‘परमात्मा’ कहता है, कोई ‘निर्वाण’, कोई ‘मोक्ष’। शब्द कोई भी दें, कोई अंतर नहीं पड़ता। धर्मों में शब्दों से ज्यादा और किसी चीज का भेद नहीं है। और सभी शब्द सही हैं, क्योंकि सभी शब्द कोई एक गुण उस परम स्थिति का बताते है।

‘निर्वाण’ शब्द का अर्थ है: दीये का बुझ जाना। बुद्ध को यह शब्द प्रिय था। वे कहते थे कि जैसे दीया बुझ जाता है, तो तुम पूछो कि उसकी ज्योति कहां गयी; क्या कहोगे, कहां गयी? अब तुम ज्योति को कहीं भी इशारा करके न बता सकोगे। होगी तो कहीं; क्योंकि इस अस्तित्व में जो कुछ भी है नष्ट नहीं हो सकता। जो है, वह है; जो नहीं है, वह नहीं है। जो नहीं है, उसके होने का उपाय नहीं है; जो है, उसके मिटने का उपाय नहीं है। वह कहीं न कहीं तो ज्योति होगी। तुमने दीया फूंककर बुझा दिया, ज्योति खो थोड़ी जायेगी; जायेगी कहां खोकर? विराट में एक हो गयी! अब तक उसका रूप था, अब अरूप हो गयी! दीये से छुटकारा हो गया है। इसका यह मतलब नहीं कि खो गयी।

मिट्टी का दीया था; ज्योति तो बिलकुल अलग थी! मिट्टी से ज्योति क्या लेना—देना! मिट्टी और ज्योति का क्या संबंध! दीये के कारण तो ज्योति न थी; दीया तो ज्योति न बना था। दीया तो केवल शरीर था। तुमने दीये से फूंक दिया, संबंध टूट गया ईंधन से; ज्योति विराट में खो गयी, महाप्रकाश का हिस्सा हो गयी।

इसलिए बुद्ध उस परम स्थिति को ‘निर्वाण’ कहते हैं—जैसे दीया यहां बुझ गया और परम सूर्य में लीन हो गया। महावीर उसे कैवल्य कहते हैं; क्योंकि वे कहते हैं कि जैसे ही तुम्हारा मोह टूटा, अंधकार गया, अविद्या मिटी, अज्ञान छूटा, वैसे ही बस, तुम ही तुम हो, और कोई भी नहीं। बस केवल चेतना ही बची, जिस का कोई पारावार नहीं है।

महावीर परमात्मा की बात नहीं करते। वे कहते हैं—आत्मा ही परमात्मा हो जाती है। एक ही बात है। या तो तुम कहो कि बूंद सागर में खो गयी, या कहो कि सागर बूंद में खो गया; क्या फर्क पड़ता है—बूंद सागर में गिरी है। हिंदू कहते हैं कि बूंद सागर में खो गयी; महावीर कहते हैं कि सागर बूंद में खो गया—स्व ही बात है; कहने का ढंग है। महावीर को जो प्रिय है, वे कहते हैं—कैवल्य; बस, तुम ही तुम बचे, कोई और न बचा; सिर्फ शुद्ध चैतन्य बचा, केवल चेतना बची।

हिंदू इसे ‘मोक्ष’ कहते हैं, क्योंकि शरीर कारागृह है; तुम मुक्त हो गये। जीसस ने इसे ‘प्रभु का राज्य’ कहा है; क्योंकि तुम दीन—दरिद्र न रहे; तुम सम्राट हो गये। शब्दों का भेद है, लेकिन मूल बात एक है—बीज टूटे, तो तुम वृक्ष हो जाओगे।

हिम्मत जुटाओ! बड़ी हिम्मत की जरूरत है! इससे बड़ी दुनिया में कोई हिम्मत नहीं है। धर्म से बड़ा कोई दुस्साहस नहीं है। इसलिए तुम ऐसा मत सोचना कि कमजोर धार्मिक होते हैं। कमजोर धार्मिक हो ही नहीं सकता; सिर्फ महाशक्तिशाली धार्मिक होते हैं। और जहां तुम्हें कमजोर दिखते हैं धार्मिक होते हुए, वहां धर्म नहीं है। मंदिरों में, मस्जिदों में घुटने टेके जिन्हें तुम देख रहे हो वें धार्मिक नहीं हैं। वे कमजोरी में घुटने टिके हैं। वे सांसारिक ही हैं। बडे से बड़ा दुस्साहस धर्म है।

क्या है दुस्साहस—बीज की छलांग, खुद को मिटाने की तैयारी, सिर्फ इस आशा में, बिना किसी गारंटी के कि वृक्ष होगा; ज्ञात का विसर्जन, अज्ञात के लिए जो जाना—माना है उसका छोड़ना, उसके लिए जो अनजाना और अपरिचित है; जो रास्ता पहचाना हुआ था सदा का, उसे छोड़कर विराट वन में भटक जाना, पगडंडी को चुन लेना, जिसकी कोई पहचान नहीं, जिसका कोई नक्‍शा नहीं; संसार को छोड़कर, ब्रह्म की खोज पर जाना; नक्‍शे की दुनिया को छोड़कर नक्शारहित दुनिया में प्रवेश है।

वहां कोई नक्‍शा नहीं, जिसे तुम ले जा सको; कोई गाईड नहीं। कोई छपी हुई किताब काम न देगी। सब किताबें इसी संसार में छूट जायेंगी; क्योंकि सभी किताबें इसी संसार के हिस्से हैं। गुरु भी वहा साथ न जायेगा। गुरु भी तुम्हें धक्का दे देगा और किनारे पर खड़ा रहेगा। आखिर जब कोई किसी को तैरना सिखाता है, तो क्या सिखाता है? धक्का दे देता है! तुम समझते हो कि गुरु खड़ा है, इसलिए निर्भय होकर कूद जाते हो। तैरना तुम्हारे भीतर है। पहले दिन तुम हाथ—पैर तड़फड़ाते हो, वह भी तैरना है—अकुशल। दो—चार दिन में तुम समझ जाते हो कि हाथ—पैर कैसे फेंकना है। वह तुम्हारे भीतर ही था। अगर हिम्मत होती तो तुम अकेले भी कूद सकते थे; मगर अकेले में जरा डर रहता है। कोई किनारे पर खड़ा है, भरोसा है कि अगर डूबे, अगर कुछ खतरा हुआ तो कोई किनारे पर खड़ा है। बस, गुरु किनारे पर खड़ा है भरोसे के लिए कुछ करेगा नहीं; कुछ करने को है नहीं। सब कुछ तुम्हारे भीतर छिपा है और तुम्हारे भीतर प्रकट होना है। पर गुरु की मौजूदगी भरोसा देती है कि कोई खतरा नहीं है। कोई तो मौजूद है, पुकारेंगे, चिल्लायेगे तो कोई सुन लेगा। और वह कहता है कि मैं मौजूद हूं तुम बेफिक्री से कूद जाओ।

एक दफा तुम कूद गये कि तुमने हाथ—पैर फेंके; पहले तो तुम घबड़ाहट में ही हाथ—पैर फेंकोगे, फिर वही तैरना बन जायेगा। तैरने में और हाथ—पैर फेंकने में फर्क क्या है? बस, जरा—से अनुभव का फर्क है। दो—चार दिन फेंकोगे, अनुभव से समझ में आ जायेगा। गलत फेंकना बंद कर दोगे, सम्यक फेंकना शुरू कर दोगे और जैसे—जैसे हाथ—पैर फेंकने में सफलता मिलेगी, वैसे—वैसे आत्म—विश्वास बढ़ जायेगा। दो—चार दिन बाद गुरु कहेगा कि अब मेरे यहां किनारे पर खड़े रहने की कोई जरूरत नहीं है। अब तुम चाहो तो दूसरे को भी सिखा सकते हो। ध्यान में गुरु यही कर रहा है; तुम्हें धक्का दे रहा है। और अगर तुम्हारी श्रद्धा हो, तो तुम्हारे भीतर बीज टूट जायेगा और वृक्ष का जन्म हो जायेगा। तर्क से तुम भरे रहे, तो तुम व्यर्थ ही भटकते रहोगे। श्रद्धा द्वार है।

आज इतना ही।

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शिव सूत्र – 06. दृष्‍टि ही सृष्‍टि है

दृष्‍टि ही सृष्‍टि है—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 16 सितंबर, 1974, श्री ओशो आश्रम, पूना। प्रात: काल।


सूत्र:
नर्तक: आत्‍मा।
रड्गोउन्‍तरात्‍मा।
धीवशात् सत्‍वसिद्धि:।
सिद्ध: स्‍वतन्‍त्र भाव:।
विसर्गस्‍वाभाव्‍यादबहि: स्‍थितेस्‍तत्‍स्‍थिति।

आत्‍मा नर्तक है। अंतरात्‍मा रंगमंच है। बुद्धि के वश में होने से सत्‍व की सिद्धि होती है। और सिद्ध होने से स्‍वातंत्र्य फलित होता है।
स्‍वतंत्र स्‍वभाव के कारण वह अपने से बाहर भी जा सकता है और वह बाहर स्‍थित रहते हुए अपने अंदर भी रह सकता है।

सूत्रों में प्रवेश के पहले कुछ बातें समझ लें।

फ्रैड़िक नीस्ते ने कहीं कहा है कि मै केवल उस परमात्मा में विश्वास कर सकता हूं जो नाच सकता हो। उदास परमात्मा में विश्वास करना केवल बीमार आदमी का लक्षण हैं।

बात में सच्चाई है। तुम अपने परमात्मा को अपनी ही प्रतिमा में ढालते हो। तुम उदास हो—तुम्हारा परमात्मा उदास होगा। तुम प्रसन्न हो—तुम्हारा परमात्मा प्रसन्न होगा। तुम नाच सकते हो तो तुम्हारा परमात्मा भी नाच सकेगा। तुम जैसे हो, वैसा ही तुम्हें अस्तित्व दिखाई पड़ता है। तुम्हारी दृष्टि का फैलाव ही सृष्टि है। और जब तक तुम नाचते हुए परमात्मा में भरोसा न कर सको, तब तक जानना कि तुम स्वस्थ नहीं हुए। उदास, रोते हुए, रुग्ण परमात्मा की धारणा तुम्हारी रुग्ण दशा की सूचक है।

पहला सूत्र है आज का—आत्मा नर्तक है।


नर्तन के संबंध में कुछ और बातें समझ लें। नर्तन अकेला ही एक कृत्य है, जिसमें कर्ता और कृत्य बिलकुल एक हो जाते हैं। कोई आदमी चित्र बनाये, तो बनानेवाला अलग और चित्र अलग हो जाता है। कोई आदमी कविता बनाये, तो कवि और कविता अलग हो जाती है। कोई आदमी मूर्ति गढ़े, तो मूर्तिकार और मूर्ति अलग हो जाती है। सिर्फ नर्तन एक मात्र कृत्य है, जहां नर्तक और नृत्य एक होता है; उन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। अगर नर्तक चला जाएगा—नृत्य चला जाएगा। और, अगर नृत्य खो जाएगा तो उस आदमी को, जिसका नृत्य खो गया,नर्तक कहने का कोई अर्थ नहीं। वे दोनों संयुक्त हैं।

इसलिए परमात्मा को नर्तक कहना सार्थक है। यह सृष्टि उससे भिन्न नहीं है। यह उसका नृत्य है। यह उसकी कृति नहीं है। यह कोई बनायी हुई मुर्ति नहीं है कि परमात्मा ने बनाया और वह अलग हो गया। प्रतिपल परमात्मा इसके भीतर मौजूद है। वह अलग हो जाएगा तो नर्तन बंद हो जाएगा। और ध्यान रहे कि नर्तन बंद हो जाएगा तो परमात्मा भी खो जाएगा; वह बच नहीं सकता। फूल—फूल में, पत्ते—पत्ते में, कण—कण में वह प्रकट हो रहा है। सृष्टि कभी पीछे अतीत में होकर समाप्त नहीं हो गयी; प्रतिपल हो रही है। प्रतिपल सृजन का कृत्य जारी है। इसलिए सब कुछ नया है। परमात्मा नाच रहा है—बाहर भी, भीतर भी।

आत्मा नर्तक है—इसका अर्थ है कि तुमने जो भी किया है, तुम जो भी .कर रहे हो और करोगे, वह तुमसे भिन्न नहीं है। वह तुम्हारा ही खेल है। अगर तुम दुख झेल रहे हो तो यह तुम्हारा ही चुनाव है। अगर तुम आनंदमग्न हो, यह भी तुम्हारा चुनाव है; कोई और जिम्मेवार नहीं है।

मैं एक कालेज में प्रोफेसर था। नया—नया वहां पहुंचा। कालेज बहुत दूर था गांव से। और, सभी प्रोफेसर अपना खाना साथ लेकर ही आते थे और दोपहर को एक टेबल पर इकट्ठे होते थे। संयोग की ही बात थी कि मैं जिनके पास बैठा था, उन्होंने अपना टिफिन खोला, झांककर देखा और कहा : ‘फिर वही आलू की सब्जी और रोटी!’ मुझे लगा कि उन्हें शायद आलू की सब्जी और रोटी पसंद नहीं है। लेकिन, मैं नया था तो मैं कुछ बोला नहीं। दूसरे दिन फिर वही हुआ। उन्होंने फिर डब्बा खोला और फिर कहा कि ‘फिर वही आलू की सब्जी और रोटी!’ तो मैंने उनसे कहा कि अगर आलू की सब्जी और रोटी पसंद नहीं तो अपनी पली को कहें कि कुछ और बनाये। उन्होंने कहा : ‘पत्नी! पत्नी कहां है। मैं खुद ही बनाता हूं।’

यही तुम्हारा जीवन है। कोई है नहीं। हंसो तो तुम हंस रहे हो, रोओ तो तुम रो रहे हो; जिम्मेवार कोई भी नहीं। यह हो सकता है कि बहुत दिन रोने से तुम्हारी रोने की आदत बन गयी हो और तुम हंसना भूल गये हो। यह भी हो सकता है कि तुम इतने रोये हो कि तुमसे अब कुछ और करते बनता नहीं—अभ्यास हो गया। यह भी हो सकता है कि तुम भूल ही गये, इतने जन्मों से रो रहे हो कि तुम्हें याद ही नहीं कि कभी यह मैने चुना था—रोना। लेकिन तुम्हारे भूलने से सत्य असत्य नहीं होता है। तुमने ही चुना है। तुम ही मालिक हो। और, इसलिए जिस क्षण तुम तय करोगे, उसी क्षण रोना रुक जाएगा।

इस बोध से भरने का नाम ही कि ‘मैं ही मालिक हूं, ‘मैं ही सृष्टा हूं,, ‘जो भी मैं कर रहा हूं उसके लिए मै ही जिम्मेवार हूं, —जीवन में क्रांति हो जाती है। जब तक तुम दूसरे को जिम्मेवार समझोगे, तब तक क्रांति असंभव है; क्योंकि तब तक तुम निर्भर रहोगे। तुम सोचते हो कि दूसरे तुम्हें दुखी कर रहे हैं, तो फिर तुम कैसे सुखी हो सकोगे? असंभव है; क्योंकि दूसरों को बदलना तुम्हारे हाथ में नहीं। तुम्हारे हाथ में तो केवल स्वयं को बदलना

अगर तुम सोचते हो कि भाग्य के कारण तुम दुखी हो रहे हो तो फिर तुम्हारे हाथ के बाहर हो गयी बात। भाग्य को तुम कैसे बदलोगे? भाग्य तुमसे ऊपर है। और, तुम अगर सोचते हो कि तुम्हारी विधि में ही विधाता ने लिख दिया है—जो हो रहा है, तो तुम एक परतंत्र यंत्र हो जाओगे; तो तुम आत्मवान न रहोगे।

आत्मा का अर्थ ही यह है कि तुम स्वतंत्र हो; और, चाहे कितनी ही पीड़ा तुम भोग रहे हो, तुम्हारे ही निर्णय का फल है। और, जिस दिन तुम निर्णय बदलोगे, उसी दिन जीवन बदल जाएगा। फिर, जीवन को देखने के ढंग पर सब कुछ निर्भर करता है।

मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर में मेहमान था। सुबह बगीचे में घूमते वक्त अचानक मेरी आंख पड़ी, देखा कि पत्नी ने एक प्याली नसरुद्दीन के सिर की तरफ फेंकी। लगी नहीं सिर में, दीवार से टकराकर चकनाचूर हो गयी। नसरुद्दीन ने भी देख लिया कि मैंने देख लिया है। तो वह बाहर आया और उसने कहा: ‘क्षमा करें! आप कहीं कुछ और न सोच लें! हम बड़े सुखी हैं। ऐसे कभी—कभार पत्नी चीजें फेंकती है, मगर इससे हमारे सुख में कोई भेद नहीं पड़ता।’

मैं थोड़ा हैरान हुआ। मैने पूछा : ‘थोड़ा विस्तार से कहो।’ तो उसने कहा कि’ अगर उसका निशाना लग जाता है तो वह खुश होती है और अगर चूक जाती है तो मैं खुश होता हूं। मगर हमारी खुशी में कोई भेद नहीं पड़ता। और, कभी—कभी निशाना लगता है, कभी—कभी चूकता है। हम दोनों खुश हैं।’

जिंदगी को देखने के ढंग पर निर्भर करता है। तुम ही बनाते हो फिर तुम ही देखते हो और फिर तुम ही व्याख्या करते हो। तुम बिलकुल अकेले हो। तुम्हारे संसार में कोई दूसरा कभी प्रवेश नहीं करता। प्रवेश कर भी नहीं सकता। कोई प्रवेश भी करता है तो वह तुमने ही आज्ञा दी है। इससे एक कठिनाई है, इसलिए तुम इसे भूले हुए हो।

कठिनाई यह है कि यह अनुभव करना कि मैं ही जिम्मेवार हूं , तब तुम दुखी न हो सकोगे। और अगर दुखी होना चाहते हो तो शिकायत न कर सकोगे। और, उन दोनों में बड़ा रस है।

दुखी होने में भी बड़ा रस है; क्योंकि जब तुम दुखी होते हो, तब तुम शहीद होते हो। शहीदगी का बड़ा मजा है। जब तुम दुखी होते हो, तब तुम सहानुभूति मांगते हो। सहानुभूति में बड़ा रस है। इसलिए तो लोग अपने दुख की कथा एक—दूसरे को बढ़ा—चढ़ा कर सुनाते हैं। क्या कारण होगा कि लोग दुख की इतनी कथा सुनाते रहते हैं। कोई सुनना भी नहीं चाहता।

कौन उत्सुक है तुम्हारे दुख में? और, दुख की बातें सुनकर दूसरा भी उदास ही होगा; कोई दूसरे के जीवन में फूल तो नहीं खिल जाएंगे। लेकिन, तुम सुनाये जा रहे हो। और दूसरा तभी तक सुनता है, जब तक उसे आशा रहती है कि तुम भी उसकी सुनोगे। अन्यथा वह फिसल जाएगा। तुम उन्हीं आदमियों को कहते हो कि उबानेवाले है, जो तुम्हें बोलने का मौका ही नहीं देते। तो एक समझौता है—तुम हमें उबाओ हम तुम्हें उबाएं। तुम अपने दुख की कथा कहकर हमें परेशान करो; हम अपने दुख की कथा कहकर तुम्हें परेशान करें और बराबर हो जाएं।

क्यों आदमी दुख की इतनी चर्चा करता है? क्या कारण है?—सहानुभूति की अपेक्षा रखता है। दुख की बात करेगा तो कोई पुचकारेगा, सहलाएगा कोई कहेगा कि बड़े दुखी हो। दूसरे का प्रेम मांग रहे हो तुम दुख के द्वारा। इसलिए, दुख में तुम्हारा बड़ा इन्वैस्टमेंट है। उसमें तुमने अपनी बहुत संपत्ति लगायी है।’ जब भी तुम दुखी होते हो, तभी तुम्हें थोड़ी—सी आशा चारों तरफ से मिलती है। लोग तुम्हें सहारा देते मालूम पड़ते हैं; सहानुभूति दिखलाते हैं। प्रेम तुम्हें जीवन में मिला नहीं है और सहानुभूति कचरा है; लेकिन प्रेम के लिए वही निकटतम परिपूरक है। जिसको असली सोना न मिला हो, वह फिर नकली सोने से काम चलाने लगता है।

सहानुभूति नकली प्रेम है। आकांक्षा तो प्रेम की थी, लेकिन प्रेम को तो अर्जित करना होता है;
क्योंकि प्रेम केवल उसी को मिलता है जो प्रेम दे सकता है। प्रेम दान का प्रतिफलन है। तुम देने में असमर्थ हो; तुम सिर्फ मांग रहे हो। तुम भिखमंगे हो, तुम सम्राट नहीं! और, मांगते हो तो जितने ज्यादा दुखी हो, उतनी ही आसानी हो जाती है।

भिखमंगे को रास्ते पर देखो! वह झूठे घाव अपने शरीर पर बनाये हुए है। वे घाव असली नहीं हैं। वह मवाद ऊपर से लगायी गयी है। लेकिन जब वह बिलकुल दुख से भरा होता है, तब तुमको भी ‘ना’ करना बहुत मुश्किल हो जाता है; ग्लानि होती है, अहंकार को चोट लगती है कि इतने दुखी आदमी को कैसे ‘ना’ करो। अगर वह स्वस्थ तगड़ा है तो तुम भी कहोगे कि ‘मुसटंडे हो; कुछ करो, कुछ कमाओ कमा सकते हो! ‘लेकिन दुखी आदमी को देखकर तुम बोल नहीं पाते। तुम्हें सहानुभूति दिखानी ही पड़ती है—चाहे झूठी ही सही।

इसलिए तुम दुख को पकड़े हो, क्योंकि तुम्हें प्रेम नहीं मिला। जिसको प्रेम मिला है जीवन में, वह आनंदित होगा; वह आनंद को पकड़ेगा, दुख को नहीं। दुख पकड़ने जैसा नहीं है। फिर तुम्हें सुविधा है शिकायत करने में; क्योंकि, जब भी तुम कहते हो कि दूसरे तुम्हें दुखी कर रहे हैं, तब जिम्मेदारी का बोझ हट जाता है। और जब मैं तुमसे कहता हूं सारे शास्त्र तुमसे कहते हैं और सारे बुद्ध—पुरुषों ने एक ही बात कही है कि तुम हा जिम्मेवार हो, कोई और नहीं—तब बड़ा बोझ मालूम पड़ता है। सबसे बड़ा बोझ तो यह मालूम पड़ता है कि अब शिकायत तुम किसी पर फेंक नहीं सकते। और उससे भी बड़ा बोझ इस बात का पड़ता है कि अब तुम सहानुभूति किससे मांगोगे, अगर तुम ही जिम्मेवार हो। और भी गहरे में यह कठिनाई खड़ी होती है कि अगर तुम ही जिम्मेवार हो तो बदलाहट की जा सकती है। और बदलाहट करना एक क्रांति है, एक रूपांतरण से गुजरना है।

तुम्हारी पुरानी आदतें हैं, वे सभी तोड़नी होंगी। तुम्हारा एक पुराना ढांचा है, वह सब गलत है। अब तक जो तुमने मकान बनाया है, वह पूरा—का—पूरा नरक है। लेकिन तुमने ही बनाया है, चाहे कितना ही बड़ा बना लिया हो, उसे पूरा गिराना पड़ेगा। अतीत का सारा—का—सारा श्रम व्यर्थ जाता मालूम पड़ता है। इसलिए, तुम इस सत्य से बचने की कोशिश करते हो। लेकिन, जितने तुम बचोगे, उतने ही तुम भटकोगे।

पहली बात समझ लो कि तुम ही केंद्र हो अपने अस्तित्व के; कोई जिम्मेवार नहीं। और कितना ही बोझ मालूम पड़े, लेकिन तुम ही जिम्मेवार हो। इस सत्य को अगर स्वीकार कर लोगे तो जल्दी ही सारे दुख खो जाएंगे। क्योंकि, एक बार यह साफ हो जाए कि मैं ही बना रहा हूं यह अपना खेल, तो मिटाने में कितनी देर लगती है? तब कोई दूसरा नहीं है। और, फिर अगर तुम दुख में ही रस लेना चाहते हो तो तुम्हारी मर्जी! लेकिन, फिर शिकायत करने का कोई कारण नहीं। अगर तुम संसार में ही भटकना चाहते हो, तुम्हारी मौज! अगर तुम नरक ही जाना चाहते हो, तो तुम्हारा चुनाव! लेकिन, फिर शिकायत का कोई कारण नहीं। तब तुम प्रसन्नता से दुख में जीओ।

ये सूत्र इसी अर्थ में बड़े कीमती है।
पहला सूत्र है : आत्मा नर्तक है। तुम्हारे कृत्य और तुम्हारा अस्तित्व अलग—अलग नहीं है। तुम्हारे कृत्य तुम्हारे ही अस्तित्व से निकलते है; जैसे नृत्य निकलता है नर्तक से। और, नर्तक अगर चिल्लाने लगे कि मैं इस नृत्य से परेशान हूं मैं इसे नहीं करना चाहता तो तुम क्या कहोगे? तुम कहोगे : ‘रुक जाओ। ठहर जाओ! कौन तुमसे कहता है कि नाचो? तुम ही नाच रहे हो। रुक जाओ, अगर यह सब व्यर्थ है और तुम्हें रसकर और प्रीतिकर नहीं है। और, अगर तुम्हें दुख मिलता है तो रुको, ठहरो! ‘नृत्य खो जाएगा!

आत्मा नर्तक है—इसका अर्थ यह है कि तुमने जो भी किया हो, तुमने ही किया है, वह तुमसे ही निकला है। जैसे वृक्षों से पत्ते निकलते हैं, ऐसे तुम्हारे अस्तित्व से तुम्हारे कृत्य निकलते हैं। रुक जाओ—और कृत्य खो जाएंगे।

और दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है—आत्मा नर्तक है—अगर तुम्हारे दुख के नृत्य को, इस विषाद और संताप से भरे जीवन को तुम रोक दोगे तो नर्तन तो नहीं रुकेगा, नर्तन का रूप बदलेगा। क्योंकि नर्तन तो रुक ही नहीं सकता; वह तुम्हारे जीवन का अंग है। वह तुम्हारा स्वभाव है। नाचते तो तुम रहोगे ही, लेकिन तब आंसू नहीं होंगे, मुस्कराहट होगी। तब तुम्हारे नृत्य में एक गीत होगा, एक पुलक होगी, एक आनंद होगा, एक हर्षोन्माद होगा, एक मस्ती होगी अभी तुम्हारा नृत्य नारकीय है, तब स्वर्गीय होगा।

एक मुसलमान फकीर हुआ—इब्राहीम। कभी सम्राट था, फिर फकीर हुआ। वह भारत यात्रा पर आया था। उसने एक साधु को पूछा; क्योंकि साधु उदास दिखता था। अक्सर साधु उदास होते हैं; क्योंकि उनकी जिंदगी का रस उनकी गृहस्थी में था। कोई दूसरा रस वे जानते नहीं। और गृहस्थी छोड़ बैठते हैं, सब रस खो जाता है। दुखी भला न हों, लेकिन उदास होते हैं।

दुख और उदासी में थोड़ा फर्क है। दुख का अर्थ है कि उदासी में एक तीव्रता है; उदासी में भी एक जोशखरोश है; उदासी में एक बाढ़ है। दो तरह की बाढ़ होती है। एक दुख की बाढ़ होती है, एक सुख की बाढ़ होती है। एक, जब तुम उदासी से इतने भर जाते हो कि आंसू बहने लगते हैं; एक, जब तुम खुशी से इतने भर जाते हो कि आंसू बहने लगते हैं—दोनों बाढ़ हैं।

जब कोई आदमी संसार को छोड़कर भाग जाता है, क्योंकि उसे लगता है कि यहां दुख है, तो जो यहां सुख है, वह भी छूट जाता है। तब वह उदास हो जाता है; कोई बाढ़ नहीं आती—न सुख की, न दुख की।

तुम अपने साधुओं को, संन्यासियों को जाकर देखो। वें मुर्दा हैं; जैसे जीते जी मर गए हैं; नर्तन जैसे बंद हो गया है। दुख को तो छोड़ भागे हैं, साथ में सुख भी छूट गया; क्योंकि वहीं सुख भी दिखाई पड़ता था। उनकी आशा यह थी कि जब वे दुख को छोड़कर भाग जाएंगे, तो सुख ही सुख बचेगा। यहीं भूल है।

संसार में दुख है; वहां सुख भी है। तुम सुख को तो बचाना चाहते हो, दुख को छोड़ना चाहतें हो। दुख को छोड़कर भागते हो, सुख भी छूट जाता है।

वह साधु उदास था—साधारण साधु रहा होगा। क्योंकि सच में जो साधु है, वह सुख—दुख दोनों को छोड़ता है। सुख को बचाना नहीं चाहता; सुख—दुख दोनों को छोड़ता है। जैसे ही सुख—दुख दोनों को छोड्ता है, उदासी खो जाती है; क्योंकि उदासी उन दोनों का मध्य—बिंदु है। जब तुमने दोनों ही छोड दिये, तब मध्य—बिंदु भी खो जाता है। और तब एक नये आयाम की यात्रा शुरू होती है, उसे आनंद, शांति, निर्वाण—जो भी नाम हम देना चाहें, दें।

आनंद में बाढ़ नहीं है; आनंद ठंडी किरण है, ठंडा प्रकाश है; वहां बाढ़ नहीं है। आनंद उदासी जैसा है एक अर्थ में। उदासी सुख और दुख के मध्य में है। आनंद सुख और दुख के पार है। उदासी एक स्थिति है अंधकार की, जहां सब शिथिल हो गया—मृत्यु की; जहां सब आलस्य में पड़ गया। आनंद एक सतेज अवस्था है जागृति की; लेकिन, न वहां सुख है, न दुख है। इस संबंध में आनंद भी उदासी जैसा है—वहा न सुख है, न दुख है। वहां प्रकाश तो है, लेकिन प्रकाश सुख जैसा नहीं है; क्योंकि, सुख के प्रकाश में भी तीव्रता होती है और पसीना आ जाता है।
सुख से भी लोग इसलिए थक जाते हैं। तुम ज्यादा देर सुखी नहीं रह सकते। सुख भी थकाएगा क्योंकि, उसमें त्वरा है, तीव्रता है,बुखार है। अगर तुम्हें रोज—रोज लाटरी मिलने लगे, तुम मरोगे, तुम जिंदा न बचोगे। बस, वह एकाध बार मिले तो ठीक। क्योंकि, रोज—रोज मिलने लगे तो इतना ज्यादा हो जाएगा तनाव कि तुम सो न सकोगे। छाती इतनी धड़केगी कि तुम विश्राम न कर सकोगे। एक्साइटमेंट, उत्तेजना इतनी होगी कि वह तुम्हारी हत्या बन जाएगी। इसलिए सुख हमेशा होमियोपैथी की मात्रा में झेला जा सकता है। एलोपैथी की मात्रा तुम न झेल सकोगे। बस, जरा—जरा—सी पुड्यों में मिलता है—काफी दुख, थोड़ा—सा सुख—बस उतना ही झेला जा सकता है। क्योंकि वह भी तनाव है। उसमें भी गरमी है, उत्ताप है।

दुख भी तनाव, सुख भी तनाव  है। आनंद अनुत्तेजित चित्त की दशा है। वहां प्रकाश तो है, लेकिन ताप नहीं है। वहां नृत्य तो है, लेकिन उत्तेजना नहीं है। वहां एक शांत मौन नृत्य है, जहां कोई आवाज नहीं होती। वहां शून्य में नर्तन है, जिससे कोई थकान नहीं आती। वह शरीर का नहीं है। सुख और दुख दोनों शरीर के हैं; आना का है आनंद। वह एक दूसरा ही नर्तन है।

वह साधु साधारण साधु था, जैसे तुम्हें सब जगह मिल जाएंगे। इब्राहीम ने उस साधु को उदास देखा तो हैरान हुआ। क्योंकि ईब्राहीम की धारणा थी कि साधु को आनंदित हो जाना चाहिए। तो उसने पूछा कि साधु का लक्षण क्या है। इब्राहीम ने साधु को पूछा कि साधु का लक्षण क्या है।

उस साधु ने कहा कि रोटी मिल जाए तो स्वीकार कर ले और न मिले तो संतोष करे। इब्राहीम ने कहा : यह तो कुत्ते का लक्षण है। इसमें साधुता क्या? कुत्ता भी यही करता है—मिल जाए तो ठीक, न मिले तो संतुष्ट है। साधु हैरान हुआ और उसने कहा कि आप साधु की क्या परिभाषा करते हैं। तो इब्राहीम ने कहा : मिल जाए तो बांट कर खाए और न मिले तो नाच कर धन्यवाद दे परमात्मा को कि तुमने तपक्ष्चर्या का एक अवसर दिया। साधु की परिभाषा—मिल जाए तो बांट कर खाये। जो भी मिले, उसे बांटे—वही साधु है। उसे पकडे और रोके तो गृहस्थ है। बचाये तो गृहस्थ है, बांटे तो साधु है; वह चाहे आनंद हो, ज्ञान हो—कुछ भी हो; चाहे ध्यान हो। जो भी मिल जाए ,उसे बांट दे।

एक बड़े मजे की बात है—इस संसार में जो चीजें है, अगर तुम उन्हें बांटों, तो वे कम हो जायेंगी। इसलिए आदमी पकड़ते है। तुम तिजोरी को बांटोगे तो ज्यादा दिन तिजोरी बचेगी नहीं। क्योंकि इस संसार में सभी सीमित है—बांटा कि गया। इसलिए संसार में सीमित को पकड़ना पड़ता है। पर इस आदत को आत्मा में ले जाने की कोई जरूरत नहीं; वहां सब संपदा असीम है। वहां जितना बांटों उतना बढ़ता है; जितना उलीचो, उतना नया आता है। सागर है अनंत!

इब्राहीम ठीक कहता है : मिले तो बांट कर खा ले; अकेला न खाए ,बांटे; न मिले तो नाच कर धन्यवाद दे। संतोष काफी नहीं है, क्योंकि संतोष में तो उदासी है।

लोग अक्सर कहते हैं कि संतोषी सदा सुखी है; गलती में है। संतोषी सुखी नहीं होता, संतोषी सिर्फ सुख मानता है। भीतर गहरे में दुखी होता है, लेकिन कुछ भी नहीं कर पाता। अवश है, इसलिए संतोष को धारण कर लेता है। संतोषी नहीं। संतोष तो उदासी का हिस्सा है। सह लिया, ज्यादा शोरगुल न मचाया, शिकायत न की—यह मरे हुए चित्त का लक्षण हुआ।

इब्राहीम ने कहा कि न मिले तो नाचकर धन्यवाद दे कि तूने एक अवसर दिया, तपश्चर्या का; आज उपवास होगा। मिले तो धन्यवाद, क्योंकि बांटा, फैलाया। न मिला तो धन्यवाद।

साधु के आनंद को नष्ट नहीं किया जा सकता, और तुम्हारे दुख को नष्ट भी किया जाए तो ज्यादा—से—ज्यादा उदासी फलित होती है। तुम किसी तरह दुख को छोड़ भी दो तो बस उदास हो जाते हो। तुम्हें दुख भी संलगन रखता है, काम में लगाये रखता है। तुमने खयाल नहीं किया—अगर तुम्हारे सब दुख छिन जाएं तो तुम आत्महत्या कर लोगे; क्योंकि तुम करोगे क्या फिर! कुछ बचेगा नहीं करने को।

बाप काम में लगा है; क्योंकि बेटों को पढाना है, शादी करनी है। सबकी शादी हो जाए, सबका काम निपट जाए इसी वक्त, तो बाप क्या करेगा? जिंदगी बेकार मालूम होगी। बेकार की चीज में तुम्हें कारोबार मिला हुआ है। उससे तुम्हें लगता है कि तुम कुछ कर रहे हो, महत्वपूर्ण हो, जरूरी हो; तुम्हारे बिना दुनिया न चलेगी; बेटे का क्या होगा, पली का क्या होगा! इससे तुम्हारे अहंकार को सहारा मिलता है कि तुम आवश्यक हो; तुमसे ही सब चल रहा है। हालांकि, सब तुम्हारे बिना भी चलता रहेगा। तुम नहीं थे, तब भी चल रहा था; तुम नहीं होओगे, तब भी चलेगा। लेकिन, बीच में थोड़ी देर को तुम सपना देख लेते हो—अपने जरूरी होने का।

तो, ज्यादा—से—ज्यादा तुम अगर दुख को छोड़ो भी तो तुम संतोष कर सकते हो। संतोष में दुख छुपा हुआ है। संतोष ऊपर—ऊपर है; भीतर दुख का घाव है। वह मलहमपट्टी है; वह उपचार नहीं है।

न; साधु संतोषी नहीं होता; साधु आनंदित होता है। परिस्थिति कोई भी हो, मिलेगा तो बांटकर आनंदित होगा; नहीं मिलेगा तो न मिलने में भी नाचेगा और आनंदित होगा।

आत्‍मा का स्वभाव नर्तन है, और आत्मा दो तरह से नाच सकती है। इस तरह से नाच सकती है कि चारों तरफ दुख का जाल पैदा हो जाए। चारों तरफ उदासी भर जाए, चारों तरफ अंधकार पैदा हो। और,आत्मा ऐसे भी नाच सकती है कि चारों तरफ किरणें नाचने लगें और चारों तरफ फूल खिल जाएं।

संन्यास आनंद का नृत्य है और गृहस्थ दुख का नृत्य! नरक कहीं और नहीं। तुम इस आशा में मत बैठे रहना कि नरक कहीं और है। नरक तुम्हारे गलत नाचने का ढंग है, जिससे दुख पैदा होता है। स्वर्ग भी कहीं और नहीं है। स्वर्ग तुम्हारे ठीक नाचने का ढंग है जिससे तुम जहां भी हो, वहां स्वर्ग पैदा हो जाता है। स्वर्ग तुम्हारे नृत्य का गुण है। नर्क भी तुम्हारे नृत्य का गुण है।

तुम नाचना नहीं जानते; लेकिन सदा तुम सोचते हो कि आंगन टेढ़ा है, इसलिए नाच ठीक नहीं हो रहा है। आंगन टेढ़ा जरा भी नहीं है और, जिसे नाचना आता है, टेढ़ा आंगन भी ठीक है, कोई फर्क नहीं पडता। और जिसे नाचना नहीं आता, उसके लिए बिलकुल ठीक ज्यामिती से बनाया गया नब्बे कोण का आंगन भी…। नाचना नहीं आ जाएगा इससे।

मैंने सुना है, एक आदमी आंख के आपरेशन के लिए गया। आपरेशन के पहले डाक्टर से उसने पूछा कि मुझे बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता; मुझे दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा? डाक्टर ने चिकित्सा के पहले परीक्षा की और कहा कि बिलकुल! उस आदमी ने कहा कि क्या मैं पढ़ भी सकूंगा? डाक्टर ने कहा : ‘बिलकुल!’ फिर उस आदमी की आंखें ठीक हो गयीं, उसे दिखाई भी पड़ने लगा। लेकिन वह, बड़ा नाराज, एक दिन डाक्टर के घर पहुंचा और उसने कहा कि ‘तुम झूठ बोले, पड़ तो मैं अब भी नहीं सकता।’ उस डाक्टर ने कहा : ‘तुम्हें सब दिखाई पड़ने लगा; पढ़ क्यों नहीं सकते?’ उसने कहा कि पढ़ना तो मुझे आता ही नहीं।

आंख भी ठीक हो जाए और पढ़ना न आता हो तो पढ़ना नहीं आ जाएगा। आंगन कितना ही सीधा हो जाए, नाचना न आता हो तो नाचना आंगन के सीधे होने पर निर्भर नहीं है, वह सीखना पड़ेगा। और ध्यान रहे, कोई और सिखानेवाला नहीं है। तुम बिलकुल अकेले हो। इशारे बुद्ध—पुरुष दे सकते है, लेकिन सीखना तुम्हीं को पड़ेगा। कोई तुम्हें हाथ पकड़कर सिखा नहीं सकता। वह जीवन का नृत्य इतना भीतर है, इतना गहरा है कि वहां बाहर के हाथ पहुंच नहीं सकते। वहां तुम्हारे सिवाय किसी का प्रवेश नहीं है। वहां तुम निपट अकेले हो। बाकी सब बाहर है।

आत्मा नर्तक है। सुख और दुख—दों ढंग से आत्मा नाच सकती है। अगर तुम दुखी हो तो तुमने गलत ढंग सीख लिए हैं नाचने के। ढंग को बदलों। किसी के ऊपर दोष मत डालों। कोई शिकायत मत करो। जब तक शिकायत करोगे, तुम गलत ही नाचते रहोगे; क्योंकि तुम्हें यह खयाल ही न आएगा कि भूल मेरी है…; सदा भूल दूसरे की है।

शिकायत बंद करो। अपनी तरफ देखो और जहां—जहां तुम्हें दुख पैदा होता है, खोजो गौर से, तुम्हारे भीतर ही उसके कारण मिलेंगे। उन कारणों को छोड़ दो; क्योंकि जिनसे दुख पैदा होता है, उन कारणों को किये जाने का प्रयोजन क्या है? जिनसे सिर्फ जहर के फल लगते हों, उन बीजों को तुम क्यों बोये. चले जाते हो? हर वर्ष क्यों फसल काट लेते हो उनकी? बेहतर तो यह होगा कि तुम फसल ही न बोओ, तो भी ठीक रहेगा। खाली पडा रहे खेत तो भी बुरा नहीं है। और अच्छा यह होगा कि कुछ दिन खाली ही पड़ा रहे, ताकि पुराने सब बीज दग्ध हो जाए ताकि तुम नये बीज बो सको।

खाली पड़े रहने से तुम डरते क्यों हो? ध्यान बीच की खाली अवस्था है। ध्यान, जैसे कोई किसान साल—दो—साल के लिए खेत को खाली छोड़ दे, कुछ भी न बोए, ऐसा ध्यान बीच की अवस्था है; नरक के बीच और स्वर्ग के बीच खाली स्थान है। कुछ दिन के लिए छोड़ दो, कुछ मत बोओ। एक बात ध्यान रखो—गलत करने से न करना बेहतर है। कुछ देर के लिए रुक ही जाओ, कुछ मत करो। जब तक कि ठीक करना न आ जाए, तब तक न करना ही बेहतर है; क्योंकि हर कृत्य, गलत कृत्य, गलत कृत्यों की शृंखला पैदा करता है। उसको ही हम कर्मों का जाल कहते है।

तुम कुछ—न—कुछ किए ही चले जा रहे हो। तुम, बस खाली नहीं बैठ सकते, कुछ—न—कुछ करोगे ही। तुम खाली बैठ जाओ—वही ध्यान है, ताकि पुरानी आदत छूट जाए और उस खाली बैठने में तुम्हें साफ—साफ दिखाई पड़ने लगे। क्योंकि तुम इतने व्यस्त हो कि देखने की फुर्सत और शुविधा नहीं है, समय नहीं है।

ध्यान का इतना ही अर्थ है कि तुम चुप एक घंटा, दो घंटा, तीन घंटा—जितनी देर तुम्हें मिल जाए, खाली बैठ जाओ, कुछ मत करो। सिर्फ देखते रही, ताकि धीरे— धीरे तुम्हारी आंख पैनी और गहरी हो जाए और तुम्हें यह दिखाई पड़ने लगे कि सभी जो हुआ मेरे जीवन में, मैं ही उसका कारण था। यह प्रतीति आते ही व्यर्थ का बोना बंद हो जाएगा। तब एक सार्थक नृत्य पैदा होता है।

धर्म परम आनंद है; वह त्याग की उदासी नहीं, वह अस्तित्व का भोग है। वह महाभोग में सम्मिलित होना है। वह अस्तित्व के नृत्य के साथ एक हो जाना है। धर्म को तुम त्याग और उदासी की भाषा में सोचना ही मत। वह गलत धर्म है, जो त्याग और उदासी की भाषा में सोचता है। सही धर्म हमेशा नृत्य है। वह आनंद का है। सही धर्म हमेशा बजती हुई बांसुरी है।

आत्मा नर्तक है, अंतरात्मा रंगमंच है।


आत्मा नर्तक है, अंतरात्मा रंगमंच है। और, यह जो नृत्य हो रहा है, यह कहीं बाहर नहीं हो रहा है; यह तुम्हारे भीतर ही चल रहा है। यह संसार रंगमंच नहीं है; तुम्हारी अंतरात्मा ही रंगमंच है। तुम कितना ही सोचो कि तुम बाहर चले गये हो, कोई बाहर जा नहीं सकता जाओगे कैसे बाहर? तुम रहोगे अपने भीतर ही। वहीं सब खेल चल रहा है। सब खेल वहां चलता है, फिर बाहर उसके परिणाम दिखाई पड़ते है। ऐसे जैसे तुम कभी सिनेमागृह में जाते हो, तो पर्दे पर सब खेल दिखाई पड़ता है; लेकिन खेल असल में तुम्हारी पीठ के पीछे प्रोजैक्टर में चलता होता है, पर्दे पर सिर्फ दिखाई पड़ता है। पर्दा असली रंगमंच नहीं है; लेकिन आंखें तुम्हारी पर्दे पर लगी रहती हैं और तुम भूल ही जाओगे— भूल ही जाते हो कि असली चीज पीछे चल रही है। सारा फिल्म का जाल पीछे है, पर्दे पर तो केवल उसका प्रतिफलन है।

अंतरात्मा रंगमंच है। प्रोजैक्टर भीतर है। सब खेल के बीज भीतर से शुरू होते हैं, बाहर तो सिर्फ खबरें सुनाई पडती हैं; प्रतिध्वनिया सुनाई पड़ती हैं। और अगर बाहर दुख है तो जानना कि भीतर तुम गलत फिल्म लिये बैठे हो। और, बाहर तुम जो भी करते हो, गलत हो जाता है तो उसका अर्थ है कि भीतर से तुम जो भी निकालते हो, वह सब गलत है।

पर्दें को बदलने से कुछ भी न होगा। पर्दे को तुम कितना ही लीपो—पोतो, कोई फर्क न पड़ेगा। तुम्हारी फिल्म अगर गलत भीतर से आ रही है तो पर्दा उसी कहानी को दोहराता रहेगा। और, न केवल तुम फिल्म हो, बल्कि की एक टूटे हुए रिकार्ड की भांति हो, जिसमें एक ही लाइन दोहरती जाती है, पुनरुक्ति होती जाती है।

तुमने कभी भीतर अपनी खोपड़ी की जांच—पड़ताल की? —तो तुम पाओगे कि वहां वही—वही चीजें दोहरती रहती हैं—टूटा हुआ रिकार्ड। तुम वही—वहो दोहराते रहते हो। कुछ नया वहां नहीं घटता, और वहां तुम जो भी दोहराते हो, उसके प्रतिफलन चारों तरफ सुनाई पड़ते हैं, चारों तरफ जगत के पर्दे पर उसका प्रतिफलन होता है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन फिल्म देखने गया। पली थी, साथ में उसका बच्चा था… और मुल्ला नसरुद्दीन का बच्चा! कोई ढंग का तो हो नहीं सकता; क्योंकि जब भीतर सब बेढंगा हो तो बाहर भी सब बेढंगा ही आता है। तो वह रो रहा है, चिल्ला रहा है, शोरगुल मचा रहा है। मैनेजर को कम—से—कम सात दफा आना पड़ा कि भाई, आप अपने पैसे वापस ले लें और जाएं या इस बच्चे को चुप रखें। मगर वह काहे को चुप करनेवाला है! बार—बार मैनेजर को आना पड़ा। नसरुद्दीन सुन लेता और चुप बैठा देखता रहा। जब फिल्म की आखीर बिलकुल करीब आने लगी तो उसने अपनी पली से पूछा कि क्या खयाल है, फिल्म ठीक कि गलत? पत्नी ने कहा कि बिलकुल बेकार है। तो उसने कहा. ‘अब देर मत कर। जोर से चहुंटी ले ले लड़के को, ताकि पैसे वापस लें और घर जाएं।

तुम बहुत दिन से देख रहे हो! कई जन्मों से देख रहे हो कि सब गलत है! कब चहुंटी लोगे? खुद को ही लेनी पड़ेगी; यहां कोई दूसरा नहीं है। कब तुम जागोगे और वापस लौटोगे? और क्या जरूरत है इस गलत को देखने की, जो तुम्हें कष्ट से भर रहा है; जो तुम्हें पीड़ा और बोझ दे रहा है; सिवाय संताप के और दुख—स्‍वप्‍नों के जिससे कुछ भी पैदा नहीं होता—इस भवन को तुम छोड़ सकते हो। इस भवन में तुम अपने ही कारण रुके हो। क्यों देर कर रहे हो? अभी मन भरा नहीं? अगर मन न भरा हो तो फिर बुद्ध, महावीर, कृष्ण, शिव, जीसस—इनकी बकवास में क्यों पड़ते हो? अगर मन न भरा हो, तो इनकी बातें मत सुनो; इनसे दूर रहो, उनसे बचो। क्योंकि ये केवल उनके लिए ही सार्थक हैं, जिनका मन भर गया हो और जिन्होंने फिल्म काफी देख ली; जो ऊब गये अब वहां से; जो अब नरक से बेचैन हो गये हैं और एक स्वर्गीय नृत्य की आकांक्षा जिनमें जग गयी है; जिनकी अभीप्सा पर परमात्मा के लिए है।

लेकिन, तुम्हारी मनोदशा ऐसी है कि तुम दो नावों में सवार होना चाहते हो। उसी से तुम्हारा कष्ट और भी बढ़ जाता है। तुम इस. संसार को भी भोगना चाहते हों—चाहे कितना ही दुख हो यहां, लेकिन थोड़ी आशा बनी रहती है कि सुख होगा; बस, अब होने के करीब है। आशा टिकाये रखती है और तुम्हारा अनुभव तुमसे कहता है कि होनेवाला नहीं है; क्योंकि कई दफा तुम यह आशा कर चुके हो, सदा असफल गयी। अनुभव तो बुद्धों के पक्ष में है; आशा बुद्धों के खिलाफ है। और तुम दोनों से भरे हो। और, दो नावें है। तो आशा की नाव पर भी तुम एक पैर रखे रहते हो कि शायद थोड़ी देर और। इस स्‍त्री से सुख नहीं मिला तो शायद दूसरी स्‍त्री से मिल जाये! इस बेटे से सुख नहीं मिला तो दूसरे बेटे से मिल जाए! इस धंधे में सफलता नहीं मिली तो दूसरे धंधे में मिल जाए!

तुम सदा आसपास की चीजें बदलते रहते हो। इस मकान में सुख नहीं तो दूसरे मकान में मिल जाए। यह थोड़ी छोटी है तिजोरी, थोड़ी बड़ी हो जाए तो मिलेगा। तुम कुछ—न—कुछ आसपास बदलते रहते हो—पर्दें में फर्क करते रहते हो। लेकिन, तुम्हारे भीतर की कथा वही है; वही कथा प्रोजैक्ट होती है पर्दे पर।

हर जगह तुम्हें दुख मिलता है। अनुभव तो दुख का है और आशा सुख की है—दो नावें है। बुद्ध, महावीर, कृष्ण को सुनोगे तो वे अनुभव की बात कह रहे है—वे कह रहे है कि उतर आओ आशा की नाव से, अनुभव की नाव पर सवार हो जाओ। तुम सुनते भी हो उनकी, क्योंकि उनको भी तुम इनकार नहीं कर सकते। और, उन्हें देखकर भी तुम्हें भरोसा आता है कि जो हमें नहीं मिला है, लगता है कि इन्हें मिला है; क्योंकि उनकी दौड़ समाप्त हो गयी। लेकिन, भरोसा पूरा भी नहीं आता, क्योंकि पता नहीं धोखा दे रहे हों! कौन जाने, न मिला हो, ऐसे ही कह रहे हों! कौन जाने इन्हें न मिला हो, हमें मिल जाए! ये कहते हैं कि मह खट्टे है; हो सकता है कि न पहुंच पाए हों गट्टों तक और हम पहुंच जाएं!

तो आशा भी छूटती नहीं। अनुभव भी एकदम गलत है, ऐसा कहना कठिन है। इस तरह तुम द्वंद्व में हो। यह द्वंद्व ही तुम्हारी विक्षिप्तता है। और, ये दोनों नावें अलग—अलग यात्रा पर है। तुम एक पर सवार हो जाओ। कोई जल्दी नहीं है—तुम संसार की नाव पर ही पूरे सवार हो जाओ, जल्दी ही तुम ऊब जाओगे। लेकिन, यह बुद्धों की नाव पर तुम्हारा जो पैर है, वह तुम्हें संसार का भी पूरा अनुभव नहीं होने देता। वहां भी तुम आधे—आधे जाते हो; क्योंकि बुद्धों का यह खयाल तुम्हारी आधी टांग को पक्के हुए है। तो, तुम मंदिर भी संभालते हो, दुकान भी संभालते हो—न दुकान संभलती है, न मंदिर संभलता है। ये दोनों साथ—साथ संभल नहीं सकते। तुम पूरी तरह दुकान पर ही चले जाओ। भूल जाओ कि कभी कोई बुद्ध हुआ, कोई महावीर, कोई कृष्ण हुआ है, शिव हुए। भूलो, ये कोई शास्त्र है? सब भूलो! बस, खाता—बही सब कुछ है। एक बार तुम पूरे वहां लग जाओ, तो जल्दी ही तुम वहां से बाहर निकल आओगे। तुम्हारा अनुभव ही तुम्हें कहेगा कि सब व्यर्थ है।

वह भी नहीं हो पाता और बुद्धों की नावों में तुम पूरे सवार नहीं हो पाते; क्योंकि तुम्हारा मन कहे चले जाता है कि अभी जल्दी मत करो, अभी बहुत समय है, और अभी तुम्हारी उम्र ही क्या? ये तो बुढ़ापे की बातें है। जब बिलकुल मरने लगो और एक पैर कब्र में चला जाए, तब तुम दूसरा पैर बुद्ध की नाव पर सवार कर लेना! अभी क्या जल्दी है !

तो, लोग सोचते है कि धर्म बुढ़ापे के लिए है। जब बिलकुल मरने लगेंगे, तब उन्हें गंगा—जल की जरूरत पड़ती है। जब बिलकुल मरने लगेंगे तब कोई उनके कान में नमोकार मंत्र दोहरा दे। मरते वक्त, जब सब व्यर्थ हो गया और जब कोई ऊर्जा न बची, कोई शक्ति न बची यात्रा की, तब तुम यात्रा को तैयार होते हो। नहीं, तुम फिर गिरोगे वापस संसार में! फिर तुम उसी नाव पर सवार होओगे! ऐसा तुम अनंत बार कर चुके हो!

आत्मा नर्तक है, अंतरात्मा रंगमंच है।
ध्यान रखो—जो भी तुम्हें बाहर दिखाई पड़ता है, वह तुमने भीतर सै बाहर डाला है। तुम जीवन में वही देखते हो, जो तुम डालते हो। और तुम्हारे जीवन में भी कई मौके आते हैं।

मैने सुना है, एक मुसाफिरखाने में तीन यात्री मिले। एक बूढ़ा था साठ साल का, एक कोई पैंतालीस साल का अधेड़ आदमी था और एक कोई तीस साल का जवान था। तीनों बातचीत में लग गये। उस जवान आदमी ने कहा कि कल रात एक ऐसी सी के साथ मैंने बितायी कि उससे सुंदर सी संसार में नहीं हो सकती, और जो सुख मैंने पाया वह अवर्णनीय है।

पैंतालीस साल के आदमी ने कहा. ‘छोड़ो बकवास! बहुत स्त्रियां मैंने देखी हैं। वे सब अवर्णनीय जो सुख मालूम पड़ते हैं, कुछ अवर्णनीय नहीं हैं। सुख भी नहीं है। सुख मैंने जाना कल रात। राज— भोज में आमंत्रित था। ऐसा सुस्वादु भोजन कभी जीवन में जाना नहीं।’
बूढ़ा आदमी ने कहा. ‘यह भी बकवास है। असली बात मुझसे पूछो। आज सुबह ऐसा दस्त हुआ, पेट इतना साफ हुआ कि ऐसा आनंद मैंने कभी जाना नहीं; अवर्णनीय है।’

बस, संसार के सब सुख ऐसे ही हैं। उम्र के साथ बदल जाते हैं; लेकिन तुम ही भूल जाते हो।

तीस साल की उम्र में कामवासना बड़ा सुख देती मालूम पड़ती है। पैंतालीस साल की उम्र में भोजन ज्यादा सुखद हो जाता है। इसलिए, अक्सर चालीस—पैंतालीस के पास लोग मोटे होने लगते हैं। साठ साल के करीब भोजन में कोई रस नहीं रह जाता, सिर्फ पेट ठीक से साफ हो जाए..!
तो जो समाधि—सुख मिलता है, वह किसी और चीज में। तीनों ही ठीक कह रहे हैं, क्योंकि संसार के सुख बस ऐसे ही हैं। और इन सुखों के लिए हमने कितने जीवन गंवाये हैं। और ये मिल भी जाएं तो भी कुछ नहीं मिलता। क्या मिलेगा?

अंतरात्मा रंगमंच है। बाहर तुम वही देखते हो जो तुम भीतर से डालते हो। जवान आदमी की आंखों से वासना बाहर जाती है। उसका सारा शरीर वासना के तत्त्वों से भरा है। वह जहां भी देखता है, वहां सी दिखाई पड़ती है। सब तरफ कामवासना ही उसे पकड़ लेती है।

मुल्ला नसरुद्दीन जवान था। पत्नी के साथ, एक चित्रों की प्रदर्शनी थी, वहां गया। नयी—नयी शादी थी और जगह—जगह घूमने का खयाल था। प्रदर्शनी में बड़े कीमती चित्र थे। एक चित्र के पास नसरुद्दीन रुक गया और देर तक ठहरा रहा। भूल ही गया कि पत्नी भी साथ है। चित्र एक नग्न स्‍त्री का था— अति सुंदर; और नग्नता, बस थोड़े—से दो—चार पत्तों से ढकी थी। चित्र का नाम था—वसंत। वह ठगा—सा खड़ा था। आखिर पत्नी ने उसका हाथ झकझोरा और कहा : ‘क्या पतझड़ की प्रतीक्षा कर रहे हो?
बस, ऐसा ही आदमी का मन है। पली ठीक ही पहचानी। पत्नियां अक्सर ठीक पहचान लेती हैं।

तुम्हारे भीतर जो जोर मार रहा हो, वही चारों तरफ का संसार हो जाता है; तुम उसे रंगते हो। हमारे पास एक शब्द है—बडा बहुमूल्य, दुनिया की किसी भाषा में वैसा शब्द खोजना कठिन है—वह है : राग। राग का मतलब आसक्ति भी होता है, राग का मतलब रंग भी होता है। तुम्हारी सब आसक्ति, तुम्हारी आंखों से फेंके गये रंग का परिणाम है। तुम रंगते हो चीजों को। जिन—जिन को तुम रंग लेते हो, वहीं राग पकड़ जाता है।

राग का अर्थ है. तुमने रंग लिया।स्‍त्री सुंदर नहीं होती है; तुम्हारे भीतर कामवासना का रंग होता है, तो सी सुंदर दिखाई पड़ती है। छोटे बच्चे को कोई फिक्र नहीं है; अभी कामवासना का रंग पका नहीं। बूढ़े का रंग जा चुका। वह तुम्हारी छूता पर हंसता है; हालांकि यही छूता उसने भी की है। तुम भी हंसोगे। लेकिन, छूता करते वक्त जो पहचान ले और समझ ले, वह जाग जाता है। मूढ़ता का रंग जब चला जाए, तब हंसने में कोई बहुत अर्थ नहीं। तब तो कोई भी हंसता है। लेकिन, जब छूता पकड़े हुए है और रंग जोर में है, तब भी तुम जाग जाओ और पहचान लो कि सब भीतर का ही खेल बाहर दिखाई पड़ रहा है; बाहर कुछ भी नहीं है, कोरा पर्दा है।

अंतरात्मा ही रंगमंच है। वही प्रोजैक्टर है और वहीं से हम सारा फैलाव कर रहे हैं।

बुद्धि के वश में होने से सत्त्व की सिद्धि होती है।


बुद्धि के वश में होने से सत्त्व की सिद्धि होती है। और, यह जो खेल चल रहा है, तब तक चलता रहेगा और तुम इसमें भटकते रहोगे, जब तक बुद्धि वश में न हो। बुद्धि के वश में होने से सत्त्व की सिद्धि हो जाती है। जैसे ही तुम्हें यह स्मरण आ जाए कि सारा खेल भीतर से चल रहा है, तो फिर संसार को वश में करने की तुम फिक्र छोड़ दोगे; वह कभी किसी के वश में नहीं हुआ। वहां कुछ है भी नहीं। वहां केवल पर्दा है।

तुम अपनी बुद्धि को वश में कर लो और सारा संसार तुम्हारे वश में हो जाता है। जैसे ही तुम्हें यह स्मरण आ जाता है कि जिस खेल को मैं देख रहा हूं उसका निर्माता मैं हूं अभिनेता मैं हूं कथा—लेखक मैं हूं सभी कुछ मैं हूं मंच भी मैं हूं—वैसे ही तुम बाहर की बदलाहट में उत्सुक नहीं रह जाते। तब तुम भीतर, मेरी जो मालकियत है, उसको पाने में लग जाते हो—वह है बुद्धि की मालकियत।

तुम अपनी बुद्धि के मालिक नहीं हो। तुम्हारे विचार तुम्हारे गुलाम नहीं हैं। तुम अपने विचारों के गुलाम हो। वे तुम्हें जहां ले जाते है, वहां तुम जाते हो; तुम उन्हें जहां ले जाना चाहते हो, वे जाते नहीं। एक छोटे—से विचार को भी मोडने की कोशिश करो, वह इनकार कर देता है। एक छोटे—से विचार को कहो कि शांत हो जाओ, वह बगावत कर देता है।

तुम कभी इस तरफ ध्यान ही नहीं देते; क्योंकि इतना पीड़ादायी है इस तरफ ध्यान देना कि मैं अपना भी मालिक नहीं हूं। और दुनिया के मालिक होने की तुम कोशिश में लगे रहते हो। और, जो अपना ही मालिक नहीं है, वह कैसे किसी और का मालिक हो पाएगा?

अपने मन को गौर से पहचानो; उसका निरीक्षण करो। तो, पहली तो बात यह समझ में आएगी कि मालिक मन हो गया है, आत्‍मा नहीं, तुम नहीं। मन कहता है कि यह करो और तुम्हें करना पड़ता है। न करो तो मन झंझट खड़ी करता है। न करो तो मन उदास होता है; उसकी उदासी तुम्हारी उदासी बन जाती है। करो तो कहीं पहुंचते नहीं; क्योंकि मन अंधा है। उसका आदेश मानकर तुम पहुंचोगे भी कहां! मन तो मूर्च्छा है; वह तो बेहोशी है। उसकी सुनकर तुम कहीं पहुंचने वाले नहीं हो।

तुमने सुना है कि अंधे अगर अंधों का अनुगमन करें तो खड्डों में गिरते हैं। लेकिन यही प्रत्येक कर रहा है। तुम्हारा मन बिलकुल अंधा है, उसे कुछ भी पता नहीं है। और तुम उसका अनुगमन करते हो! जैसे छाया तुम्हारे शरीर का अनुगमन करती है, तुम मन का अनुगमन करते हो। तुम भूल ही गये हो कि मालिक तुम हो! गुलामों के साथ बहुत दिन तक जुडे रहने पर ऐसा अक्सर हो जाता है। धीरे—धीरे गुलाम मालिक हो जाता है! क्योंकि जितना तुम उनपर निर्भर होने लगते हो, उतनी ही उनकी मालकियत सिद्ध होती जाती है।

सारी साधना एक ही बात की है कि मन की मालकियत तोड़ दो। क्या करोगे मन की मालकियत तोड्ने के लिए?

पहली बात—मन की मालकियत तोड़नी हो, तो मन के साथ तादात्म्य तोड़ दो। मन में एक विचार उठता है—तुम उस विचार के साथ मत जुडो, एक मत हो जाओ। तुम्हारे एक होने से ही उसको ताकत मिलती है। तुम दूर खड़े रहो। तुम ऐसे देखते रहो जैसे रास्ते पर लोग चल रहे हैं और तुम किनारे पर खड़े देख रहे हो। तुम ऐसे देखते रहो जैसे आकाश में बादल भटक रहे हैं और तुम दूर जमीन पर खड़े देख रहे हो। अपने को जोड़ी मत विचार से। यह मत कहो कि यह मेरा विचार है। जैसे ही तुमने कहा—मेरा, कि तुम जुड़ गये; जुड़े कि तुम्हारी शक्ति विचार में चली गयी। और वही शक्ति तुम्हें गुलाम बनाती है। वह शक्ति भी तुम्हारी है।

तुम जुडो मत। जैसे—जैसे तुम दूर हटोगे, टूटोगे, अलग होओगे, वैसे—वैसे विचार निर्जीव हो जाता है, निर्वीर्य हो जाता है। उसको ऊर्जा ही नहीं मिलती। तुम्हारी तकलीफ यह है कि तुम दीये की ज्योति तो आना चाहते हो, लेकिन तेल तुम खुद ही डालते हो। इधर तुम फूंकते हो, उधर तुम तेल डालते हो; तेल डालना बंद करो—पहली बात। पुराना तेल ज्यादा देर नहीं चलेगा; पहले तेल डालना बंद करो।

क्या है तेल? जब भी कोई विचार तुम्हें पकड़ता है—क्रोध ने पकड़ा, तुम तत्क्षण क्रोध के साथ एक हो जाते हो। तुम कहते हो. मैं क्रोधित हों गया। अब सच्चाई यह है कि तुम क्रोध के साथ इतने एक हो गये हो कि तुम्हारी पूरी शक्ति क्रोध को मिल रही है। तुम छाया हो गये, वह मालिक हो गया! जब क्रोध आये, तब तुम दूर खड़े होकर देखो। उठने दो क्रोध को, फैलने दो शरीर में, धुएं की तरह तुम्हें चारों तरफ से घेरेगा, घेरने दो। तुम एक बात स्मरण रखो कि मैं क्रोध नहीं हूंऔर, जल्दी मत करो कृत्य में उतारने की क्योंकि कृत्य में उतार लेने पर लौटना मुश्किल है।

तुम क्रोध को देखो और एक बात पकी कर लो कि जिसने क्रोध पैदा करवाया है, गाली दी है, अपमान किया है., उसे अगर उत्तर भी देना है तो तभी देंगे, जब क्रोध जा चुका होगा, उसके पहले उत्तर न देंगे। यह कठिन होगा शुरू—शुरू में क्योंकि बड़ी सजगता साधनी पड़ेगी, लेकिन धीरे— धीरे सरल हो जाता है। मुंह बंद कर लो—तभी दे मे उत्तर, जब क्रोध शांत हो जाएगा। और यह ठीक भी है; क्योंकि शांत क्षण में ही उत्तर समुचित होगा। क्रोध के क्षण में उत्तर समुचित कैसे होगा? वह तो ऐसा है, जैसे कोई नशे में उत्तर देने चला गया।

कामवासना मन को पकड़े, दूर से खड़े होकर देखो। फासला बनाओ। तुम्हारे और तुम्हारे विचार के बीच में फासला जितना ज्यादा होता जाए, जितना डिस्टेंस, जितनी दूरी हो जाए—उतनी ही तुम्हारी मालकियत सिद्ध होने लगेगी। तुम इतने सटकर खड़े हो गये हो कि तुम भूल ही गये हो कि दोनों के भीतर कुछ जगह ‘है।

इसे आज से ही शुरू करो। जल्दी नहीं परिणाम आयेंगे; क्योंकि जन्मों—जन्मों की निकटता है। एक दिन में तोड़ी भी नहीं जा सकती। बड़े पुराने संबंध हैं, तोड्ने में वक्त लगेगा। लेकिन, अगर तुमने थोड़ी—सी चेष्टा की तो टूट जाएगा; क्योंकि संबंध झूठा है। असली होता तो टूटता नही। झूठा है; बस खयाल है। खयाल ही भर है कि मैं इसके साथ एक हूं। एक हो जाने का खयाल ही झंझट खडी कर देता है।

भूख लगे तो ऐसा मत कहो कि मुझे भूख लगी है; इतना ही कहो कि मैं देखता हूं शरीर को भूख लगी है। और सच्चाई भी यही है। तुम देखनेवाले हो। भूख शरीर को लगती है। चेतना को कभी कोई भूख लग भी नहीं सकती। शरीर में ही भोजन जाता है। शरीर में ही रक्त—मांस की जरूरत पड़ती है। शरीर ही थकता है, चेतना कभी थकती नहीं। चेतना तो ऐसा दीया है, जो बिना बाती और बिना तेल के जलता है। वहां कोई भोजन, कोई ईंधन, न जरूरी है, न कभी चाहा गया है।

शरीर के लिए ईंधन चाहिए— भोजन चाहिए, पानी चाहिए। शरीर यंत्र है; आत्मा कोई यंत्र नहीं है। भूख लगे, शरीर को भोजन दो। बस,इतना स्मरण रखो कि शरीर को भूख लगी है, मैं देख रहा हूं। प्यास लगे, पानी दो। जरूरी है देना, यंत्र को देना ही पडेगा। पागल होगा, जो आदमी कहे कि यह शरीर मैं नहीं हूं इसलिए पानी नहीं दूंगा। कार में बैठे हो और पेट्रोल न भरोगे तो क्या करोगे? फिर उतर जाओ कार से। फिर यह चलनेवाली नहीं है। अब तुम बैठे रहो, चलाने की कौशिश करो और कहो कि पेट्रोल न दूंगा। बस, इतना ही काफी है कि कार के साथ एक मत हो जाओ। मालिक रही। कार की जरूरत को पूरा करो।

शरीर की जरूरत पूरी करनी है; वह यंत्र है। उसका उपयोग लेना है। और उपयोग बड़ा है; क्योंकि दुख में भी ले जाने में वह सीढ़ी है और आनंद में ले जाने में भी वही सीडी है। शरीर तो एक सीढ़ी है। और सीडी की खूबी होती है कि उसका एक छोर जमीन पर लगा होता है, दूसरा छोर आकाश में लगा होता है। तुम उसी से नीचे उतर सकते हो, तुम उसी से ऊपर चढ़ सकते हो। शरीर के ही माध्यम से तुम नरक तक आये हो; शरीर के माध्यम से ही तुम स्वर्ग तक पहुंचोगे। शरीर के माध्यम से ही तुम मोक्ष तक भी जा सकने। वह माध्यम है। उसे संभाल कर रखना है। उसकी जरूरतें पूरी करनी हैं। लेकिन माध्यम के साथ एक हो जाने का कोई कारण नहीं। यंत्र को तंत्र ही रहने दो। फाऊन्टेन पेन से तुम लिखते हो, लेकिन तुम फाऊन्टेन पेन नहीं हो। पैर से तुम चलते हो, लेकिन तुम पैर नहीं हो।

शरीर यंत्र है; उसको संभालो। कीमती यंत्र है; उसको खराब मत कर डालना। दो तरह के खराब करनेवाले लोग है। एक तो भोग में उसे खराब कर डालते है और दूसरे त्याग में उसे खराब कर डालते हैं। दोनों दुश्मन हैं और दोनों नासमझ है। कोई वेश्या के घर जाकर उसको खराब कर डालता है, कोई ज्यादा खा—खा कर खराब कर डालता है। दूसरे छोर के पागल हैं; वे उपवास क्र—करके खराब कर डालते हैं। या तो तुम इतना पेट्रोल भर देते हो कि भीतर बैठने की जगह न रह जाए और या पेट्रोल भरते ही नहीं। बस, दो अतियों पर तुम चलते हो। जितनी जरूरत है, उतना दे दो। नौकर की भी चिंता तो करनी ही होगी। उसकी फिक्र रखनी होगी। लेकिन फिक्र से कोई नौकर मालिक नहीं हो जाता।
बुद्धि के वश में होने से सत्त्व की सिद्धि होती है। और जैसे—जैसे तुम्हारी बुद्धि वश में आती जाएगी; जैसे—जैसे तुम साक्षी होते जाओगे, वैसे—वैसे तुम पाओगे कि भीतर का जो सत्त्व हें—तुम्हारी जो आत्मा है, तुम्हारा जो वास्तविक अस्तित्व है, वह सिद्ध होने लगा। बुद्धि के भ्रष्ट होने से—संसार बुद्धि के वश में होने से— आत्मा। बुद्धि मालिक हो तो—संसार बुद्धि गुलाम हो जाए तो——परमात्मा।

बुद्धि सीढ़ी है। उससे नीचे उतरना अनिवार्य नहीं है; उससे तुम ऊपर भी जा सकते हो। लेकिन ऊपर तो केवल मालिक ही जा सकता है। गुलाम नीचे, और नीचे, और नीचे उतरता जाता है। और बुद्धि की गुलामी बड़ी खतरनाक है; क्योंकि वह एक की गुलामी नहीं, बुद्धि तो भीड़ है। अभी कहती है, क्रोध करो; क्षण भर बाद कहती है, पश्चाताप करो। एक विचार कहता है, भोगो संसार; दूसरा विचार कहता है, जाओ, खोजो मोक्ष। एक विचार कहता है, धन इकट्ठा कर लो, चोरी भी करनी पड़े तो कोई हर्ज नहीं। दूसरा विचार कहता है कि यह पाप है। ऐसे अनंत विचार हैं। और उन अनंत विचारों का जोड़ बुद्धि है।

बुद्धि अगर एक विचार होती तो भी जीवन में शांति हो सकती थी; लेकिन वह तो एक विचार नहीं है; वह तो भीड़ है, वह तो बाजार है। बुद्धि की हालत ऐसी है जैसे कि कोई स्कूल हो, क्लास लगी हो, शिक्षक मौजूद हो, तो बच्चे बैठे पढ़ रहे हैं, सब शांत है; शिक्षक बाहर चला गया और उपद्रव शुरू हुआ। मारपीट शुरू हो गयी! किताबें फेंकी जा रही हैं। सलेटें फोडी जा रही हैं। टेबल उलटा दी गयी है। तख्ते पर कुछ—कुछ लिखा जा रहा है। गाली—गलौज बकी जा रही है। ये सब बच्चे, अब इनका कोई मालिक नहीं है। इनका कोई देखनेवाला नहीं है। शिक्षक भीतर कमरे में वापस आ जाता है—एकदम सन्नाटा! सब किताबें अपनी जगह पर आ गयीं। लड़कों की नजरें नीचे झुक गयीं। वे अपने काम में लग गये हैं।

जैसे ही तुम्हारी मालकियत भीतर आती है, बुद्धि एकदम काम में लग जाती है। जैसे ही तुम्हारी मालकियत खो जाती है—तब बुद्धि एक उपद्रव है, एक अराजकता है। और इस अराजकता को मानकर चलना बड़ा कठिन है; क्योंकि यह कहीं भी नहीं ले जा सकती। यहां कोई एक स्वर थोड़े ही है, अनंत स्वर हैं।

महावीर का वचन है कि मनुष्य बहुचित्तवान है। वहां एक चित्त नहीं है; बहुत चित्त हैं। और महावीर के इस वचन को आधुनिक मनोविज्ञान समर्थन देता है। आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य पोली—साइकिक है, बहुचित्तवान है। एक मन नहीं है तुम्हारे भीतर; अनंत मन हैं। जैसे एक नौकर हो और अनंत मालिक हों और सब आशाएं दे रहे हों, वह नौकर पगला जाएगा—किसकी माने, किसकी न माने! ऐसे ही तुम पगला गये हो। एक को खोजो ताकि शिक्षक क्लास में वापस आ जाए।

एक को खोजो ताकि गुलाम, जो बहुत हैं, अपनी—अपनी जगह बैठ जाएं। एक मालिक हो तो तुम्हारे जीवन में दिशा आएगी,. सत्य की सिद्धि होगी। तुम अपने को जान सकोगे। और इससे—इस सत्व की सिद्धि से—सहज स्वातंत्र फलित होता है। अभी जब तक तुम बुद्धि को मालिक बनाये हुए हो, तुम गुलाम रहोगे। जैसे ही सत्य की सिद्धि होगी, सहज स्वातंत्य फलित होगा।

यह समझ लेना जरूरी है कि सहज स्वातंत्र्य क्या है। सिर्फ स्वातंत्र्य क्यों न कहा? सहज क्यों?
थोड़ा सूक्ष्म है।

दो तरह की स्वतंत्रताएं होती हैं। एक स्वतंत्रता तो होती है, जो किसी के खिलाफ होती है। जब स्वतंत्रता किसी के खिलाफ होती है तो वह स्वच्छंदता हो जाती है। वह वास्तविक स्वतंत्रता नहीं है। तब तुम विपरीत चलने लगते हो। जैसे बुद्धि कहती है, क्रोध करो, तो अगर तुम उलटा चलने लगो—कि बुद्धि कहती, क्रोध करो तो हम क्रोध तो नहीं करेंगे, हम क्षमा करेंगे। बुद्धि कहती है, मार डालो इसको; तुम कहते हो, हम मारेंगे तो नहीं, अपनी गर्दन इसके सामने रख देंगे कि तुम मुझे मार डालो। बुद्धि जो कहे, उससे विपरीत हम करेंगे—जैसा कि आमतौर से साधु करते हैं। बुद्धि कहती है, चलो सी को खोजो; साधु जंगल की तरफ भागते हैं। बुद्धि कहती है, चलो धन को खोजो; साधु धन को छूते नहीं; धन छू जाए तो सांप—बिच्छू मालूम पड़ता है। बुद्धि कहती है, आराम करो, विश्राम करो; साधु धूप में खड़ा हो जाता है, कीटों की शैया बना लेता है। यह सच्ची स्वतंत्रता नहीं है; क्योंकि जिसके तुम विपरीत जा रहे हो, अभी भी तुम उसी की सुन रहे हो। मालिक वह अभी भी है।
इसे थोड़ा समझो। यह थोडा जटिल है; क्योंकि तुम्हारी लड़ाई जारी है। अगर तुम मालिक हो गये तो लड़ाई खत्म हो जाती है। गुलाम गुलाम है, उससे क्या लड़ना! तुम्हारे घर में कोई गुलाम है और वह मालिक हो गया है; वह तुमसे कहता है कि नीचे बैठो तो तुम नीचे बैठते हो। वह तुमसे कहता है खड़े हो जाओ तो तुम खड़े हो जाते हो। तुमने तय किया कि अब हम इस गुलाम के विपरीत चलेंगे, तब भी वह तुम्हारा मालिक रहेगा। अब वह कहता है, बैठो, तो तुम खड़े हो जाते हो। मानते तुम उसकी नहीं हो, लेकिन फिर भी तुम उसी की मान रहे हो; क्योंकि वही तुम्हें गतिमान कर रहा है। और, गुलाम जरा होशियार हुआ तो जब उसे तुम्हें बिठाना हो, तब वह कहेगा, खड़े हो जाओ और तुम बैठ जाओगे। तुम बच नहीं सकते।

मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा बहुत उपद्रव कर रहा था। नसरुद्दीन ने उससे बहुत कहा, चुप बैठ। तो वह और शोरगुल मचाये।’बाहर जा’ — तो वह भीतर आये। आखिर नसरुद्दीन परेशान हो गया। घर में मेहमान थे और मेहमानों के सामने बच्चे ज्यादा उपद्रव करते है; क्योंकि मेहमानों के सामने सिद्ध करने का सवाल होता है कि कौन असली मालिक है—बाप कि बेटा, तुम कि हम। इसलिए बच्चे साधारणत: शोरगुल न करेंगे, अपने काम में लगे रहेंगे। घर में मेहमान आया कि परेशानी शुरू हुई; क्योंकि सवाल है संघर्ष का, अहंकार का—कौन मालिक है! तो मेहमानों को देखकर बच्चा और उपद्रव करता है।
आखिर मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा : ‘देख! जो तेरी मर्जी में हो, कर। अब मैं देखूं कि तू मेरी आज्ञा का उल्लंघन कैसे करता है। जो तेरी मर्जी में हो वह कर। अब मैं देखूं कि तू मेरी आशा का उल्लंघन कैसे करता है।’
बच्चा जरूर मुश्किल में पड़ गया होगा।

तुम अगर मन के विपरीत गये तो सहज स्वतंत्रता फलित न होगी। एक स्वतंत्रता फलित होगी, जो स्वतंत्रता नहीं है, बगावत है, विद्रोह है। लेकिन जिससे हम विद्रोह करते हैं, उससे हम बंधे रहते हैं। जिससे हम लड़ते हैं, उससे हमारा संबंध जुड़ा रहता है। मालिक हम अभी भी नहीं हैं। अभी भी इशारा वहीं से आता है। अब हम विपरीत करते हैं; लेकिन इशारा वहीं से आता है।
तो, तुम ब्रह्मचर्य साधो, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि तुम्हारा ब्रह्मचर्य सिर्फ बगावत है, वह सहज नहीं है। कामवासना, मन कह रहा था; तुमने कहा हम लड़ेंगे। यह लड़ाई है; लड़ाई गुलाम से कोई करता है? और जो लड़ाई गुलाम से करता है, वह गुलाम को अभी भी मालिक मान रहा है। लड़ाई मालिक से होती है। गुलाम से क्या लड़ाई का सवाल है! इसलिए तुम्हारे साधु चाहे तुमसे विपरीत हों, तुमसे भिन्न नहीं हैं। तुम्हारे साधु तुमसे उलटे जा रहे है; लेकिन जहां तक मन की मालकियत का सवाल है, रत्तीभर फर्क नहीं है।
सहज स्वतंत्रता बिलकुल और बात है। सहज स्वतंत्रता का अर्थ ही यह है कि मैं मालिक हूं इसलिए अब मन की मानना या न मानना दोनों सवाल नहीं है। मन के पक्ष में जाना या विपक्ष में जाना, दोनों सवाल नहीं हैं। अब मैं मन को आज्ञा देता हूं अब मैं आशा मानता नहीं। आशा मानने के दो ढंग हैं—मानूं या विपरीत जाऊं; लेकिन दोनों ढंग मानने के ही हैं।
बुद्धि जब मालिक हो जाती है, तो उसकी मालकियत दो तरह की हो सकती है—नकारात्मक और विधायक। तुम चाहो, गृहस्थ हो सकते हो; तुम चाहो, साधु हो सकते हों—लेकिन फर्क न पड़ेगा। इसलिए तुम्हारे साधु गृहस्थ के उलटे रूप हैं—शीर्षासन करते हुए। कोई फर्क नहीं है। और गृहस्थ से ज्यादा तकलीफ में हैं; क्योंकि पैर पर खड़े होना ज्यादा आसान है, सिर पर खड़े होना निशित ही ज्यादा कठिन है। नहीं तो प्रकृति तुम्हें सिर पर खड़ा हुआ ही बनाती। तुम जो कर रहे हो, वे उससे विपरीत कर रहे हैं। तुम इकट्ठा कर रहे हो, वे त्याग कर रहे हैं। तुम शरीर की सुरक्षा कर रहे हो, वे शरीर को असुरक्षित छोड रहे है। तुम शरीर के लिए अच्छी शैया बना रहे हो, वे काटे—कंकड बीन रहे हैं। लेकिन तुमसे ठीक विपरीत। तुम भोजन .का स्वाद ले रहे हो, वे उपवास कर रहे हैं, अनशन कर रहे हैं। तुम अच्छे वस्रों में ढके बैठे हो, वे नग्र हो —गये हैं। यह सहज स्वातंत्र्य नहीं है। यह स्थिति तनाव की है। इसमें सहजता नहीं है।
इसलिए यह सूत्र कहता है कि बुद्धि के वश में होने से सत्य की सिद्धि होती है—द्यीवशात्सत्वसिद्धि:। और इससे सहज स्वातंत्र्य फलित होता है। तब तुम स्वतंत्र हो। तब तुम मन की तरफ नहीं देखते कि वह क्या कर रहा है; अब मैं का करूं, और क्या न करूं। तब तुम मन की तरफ देखते ही नहीं। तब तुम्हारा कर्तृत्व सहज होता है। तब तुम मन से सचमुच मुक्त हो गये। तब तुम ही निर्णायक होते हो, मन तुम्हारे पीछे चलता है। लेकिन यह तभी घटित होगा, जब तुम मालिक हो जाओ। मालकियत घटित होगी, जब तुम साक्षी हो जाओ।
मन से लड़ना मत, अन्यथा सहज स्वातंत्र्य कभी फलित न होगा। तुम लड़े कि तुमने मन को अपने बराबर मान लिया। तुम जिससे लड़ोगे, उसको तुमने समान अधिकार दे दिया—कभी मित्र था, अब शत्रु हो गया; लेकिन तुम खड़े समान हो। मालिक समान नहीं होता। मालिक आकाश में होता है, नौकर जमीन पर होता है। मालकियत आ जाए तो जो स्वतंत्रता आती है, वह सहज है। और सहज स्वतंत्रता बड़ी अनूठी है!
सुना है मैंने, एक मुसलमान फकीर—बायजीद—हज की यात्रा को गया। तो उन्होंने तय किया था कि हम चालीस दिन का उपवास करेंगे। पांच दिन उपवास के बीत गये थे और वे एक गांव में पहुंचे। कोई सौ शिष्य बायजीद के साथ थे। वह बड़ा प्रतिष्ठित ज्ञानी था। दूर—दूर तक उसकी ख्याति थी। जब वे गांव में पहुंचे तो गांव के बाहर लोगों ने आकर खबर दी कि ‘बायजीद, तुम्हारा एक भक्त है, उसने हद कर दी। गरीब आदमी है। एकदम गरीब आदमी है। सिवाय झोपड़े के उसके पास कुछ न शा। उसने झोपड़ा बेच दिया। गाय— भैंस थीं, वे बेच दीं। उसके पास जो था, उसने सब बेच दिया और आज पूरे गांव को भोजन पर बुलाया है, तुम्हारे स्वागत में।’
बायजीद तो उपवासा था और चालीस दिन उपवास रखना था। शिष्य भी उपवासे थे और चालीस दिन उपवास रखना था। बायजीद पर तो कोई तनाव न हुआ, शिष्य बड़े तनाव से भर गये। लेकिन शिष्य जानते थे कि भोजन तो करना नहीं है। वे पहुंचे, बायजीद तो बैठ गया थाली पर। शिष्यों को बड़ी बेचैनी हुई। अब जब गुरु बैठ गया तो वे भी बैठे, लेकिन बड़ी ग्लानी से। और उन्होंने कहा : ‘क्या बायजीद भूल गया? क्या इतने जल्दी स्मरण खो गया? या कि बायजीद भोजन के रस में आ गया? मना करना था। हम चालीस दिन का उपवास किये हुए हैं। जब तक हम हज की यात्रा पर पूरे पहुंच न जाएं…। वहीं जाकर भोजन लेना है। और यह क्या बात हुई, व्रत लिया और पांच दिन में टूट गया?
लेकिन अब भीड़ के सामने कुछ कह भी न सकते थे। भोजन कर लिया, लेकिन बड़ी ग्लानि से किया, बडी तकलीफ से किया। और बायजीद की तरफ देखें, तो बड़े हैरान हों कि बड़े मजे से भोजन कर रहा है—कोई बेचैनी नहीं है, कोई तकलीफ नहीं है।
रात जब सब लोग चले गये तो शिष्य गुरु पर टूट पड़े। उन्होंने कहा. ‘यह हद हो गई! हम भोजन नहीं कर सकते थे; और आपने किया, इसलिए आपके पीछे हमको भी करना पड़ा।’

बायजीद ने कहा : ‘इतने परेशान क्यों होते हो? उसने इतने प्रेम से बनाया था कि उपवास तोड्ने जैसा था। और उसके प्रेम को तोड्ने से नुकसान ज्यादा होता; उपवास को तोड्ने से कोई नुकसान नहीं हुआ। हम पांच दिन और उपवास कर लेंगे। चालीस दिन पूरे करने हैं, चालीस दिन नहीं, पैंतालीस दिन कर देंगे। उसका प्रेम टूटता तो उसे हम कभी न जोड़ पाते। उसके हृदय को चोट लगती, उसको जोड्ने का कोई उपाय न था। उपवास ही करना है न? ये पांच दिन भूल जाओ; आगे चालीस दिन फिर कर लेंगे।’
यही फर्क है। शिष्यों की स्वतंत्रता सहज नहीं है। उनको तकलीफ जो हो रही है, वह यह है कि अरे, मन की सुन ली! मन तो कह ही रहा था कि करो भोजन। हम लड रहे थे कि न करेंगे और मन की सुन ली! गुलामी आ गयी!
बायजीद मालिक है। यह अपने हाथ में है कि उपवास रखना है कि तोड़ना है। इसमें मन की कोई बगावत नहीं है, मन से कोई विरोध नहीं है, मन का कोई मानना नहीं है।’हम मालिक हैं। उपवास रखना है तो उपवास रखेंगे; नहीं रखना है तो नहीं रखेंगे। निर्णय हमारा होगा।’
दोनों उपवासी थे, लेकिन दोनों के उपवास में बड़ा क्रांतिकारी फर्क है, मौलिक फर्क है। बायजीद की स्वतंत्रता सहज है। वह महल में ठहर सकता है, निश्रित भाव से। वह झोपडे में रुक सकता है, निश्रित भाव से। लेकिन, बायजीद के शिष्य, अगर महल में रुकना पड़े, तो कठिनाई में पड़ जाएंगे कि यह तो भोग हो गया। यह बड़े मजे की बात है कि कभी तुमको महल में पकड़े रखता है, कभी झोपड़ा पकड़ लेता है; लेकिन पकड़ नहीं जाती। बायजीद दोनों तरफ जा सकता है। स्वतंत्रता उसकी सहज है। उसे कोई रोकनेवाला नहीं है। निर्णय उसकी अपनी आत्मा का होगा। निर्णायक आत्मा है।
सहज स्वतंत्रता तभी फलित होती है, जब सत्व की सिद्धि होती है। उसके पहले सब स्वतंत्रताएं झूठी होंगी।
स्वतंत्र स्वभाव के कारण वह अपने से बाहर भी जा सकता है। और, वह बाहर स्थित रहते हुए अपने अंदर भी रह सकता है। यह बडा कीमती सूत्र है : स्वतंत्र स्वभाव के कारण वह अपने से बाहर भी जा सकता है। कबीर कपड़ा बुनते रहे—जुलाहे थे, जुलाहे बने रहे। शिष्यों ने बहुत बार कहा कि ‘ अब यह शोभा नहीं देता कि आप कपड़ा बुनो, कि आप बाजार में बेचने जाओ; आप गृहस्थ नहीं हो।’ कबीर हंसते। वे कहते : ‘सब उसी का खेल है। बाहर और भीतर एक है।’ यह हमारी समझ में नहीं आ सकता, क्योंकि हमें बाहर पकड़े हुए है; इतने जोर से पकडे हुए है कि बाहर और भीतर एक कैसे हो सकता है?
झेन फकीरों ने कहा है कि संसार और मोक्ष एक है। हम एकदम घबड़ा जाएंगे—ऐसा कैसे हो सकता है? संसार हमें पक्के है। संसार से हम पीड़ित है। मोक्ष इसके विपरीत है—जहां हम मुक्त हतौ, शांत होंगे, आनंदित होंगे, सुखी होंगे; जहां कोई दुख न होगा। हमारा मोक्ष हमारे संसार के विपरीत होनेवाला है। लेकिन जब कोई व्यक्ति मुक्त होता है तो इस जगत में कोई चीज विपरीत नहीं रह जाती; सब विपरीत समाप्त हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति मुक्त होता है तो बाहर और भीतर का फासला खो जाता है; क्योंकि सारा फासला अहंकार की दीवाल का है। क्या बाहर और क्या भीतर (बीच में अहंकार खड़ा है, उससे दीवाल बनी है। जैसे कि हम एक मिट्टी के मटके को लेकर पानी में चले जाएं नदी में पानी भर लें तो हम कहेंगे कि यह मटके के भीतर पानी है, यह मटके के बाहर नदी है। लेकिन फासला क्या है? —सिर्फ एक मिट्टी की दीवाल—! .वह मिट्टी की दीवाल टूट गयी तो बाहर क्या होगा, भीतर क्या होगा? जो बाहर है, वही भीतर है; जो भीतर है, वही बाहर है।
इसलिए कबीर कहते है : ‘उठना—बैठना मेरी पूजा है। चलना—फिरना मेरी उपासना है।’ अब कबीर मंदिर नहीं जाते; क्योंकि अब दुकान और मंदिर में कोई फासला नहीं। अब कबीर बाजार से नहीं भागते हिमालय; अब बाजार और हिमालय में कोई फासला नहीं है। अब कबीर अपने घर को भी छोड़कर नहीं भागते; क्योंकि अब अपने और पराये में भी कोई फासला नहीं। भागकर भी कहां जाओगे?
अहंकार के गिरते ही सारे फासले गिर जाते हैं। न कुछ बाहर है तब, न कुछ भीतर है। तब न तो पदार्थ है और न परमात्मा है; तब दोनों एक है। वह है अद्वैत—जहां सब एक हो जाता है; जहां सब सीमाएं विलीन हो जाती हैं। लेकिन वह तभी होता है, जब जीवन में सहज स्वतंत्रता फलित हो। तो ऐसा व्यक्ति स्वतंत्र स्वभाव के कारण अपने से बाहर भी जा सकता है, और वह अपने बाहर स्थित रहते हुए, अपने अंदर भी रह सकता है। उसे कोई बाधा नहीं है। वह महल में रहे तो भी संन्यासी है; वह संन्यासी होकर सड़क पर खड़ा रहे तो भी महल में है। उसके पास करोड़ों रुपयों का ढेर लगा हो तो भी वह अपरिग्रही है। और, उसके पास कुछ भी न हो, तो भी उससे बड़ा परिग्रही नहीं; क्योंकि सारा संसार उसका है।
पर, कठिन है हमें पहचानना, क्योंकि हम एक हिस्से से परिचित है। वह जो घड़े के भीतर जल है और घड़े के बाहर, वह अलग मालूम होता है। तुम्हारे भीतर जो छिपा है, वही तुम्हारे बाहर भी है। तुम्हारे भीतर जो आकाश है, वही आकाश बाहर भी है। और तुम्हारा शरीर मिट्टी के घड़े से ज्यादा नहीं है—जो थोडा—सा फासला किये हुए मालूम पड़ता है।
संसार और संन्यास दो नहीं हैं। दो दिखायी पड़ते हैं, क्योंकि तुम एक को ही जानते हो—संसार को, और संन्यास को नहीं जानते। इसलिए तुम संसार के आधार पर ही संन्यास की कल्पना भी करते हो। तुम्हारे संन्यास की धारणा भी तुम्हारे संसार से ही फलित होती है। तो तुम उसको संन्यासी कहते हो जो तुमसे बिलकुल विपरीत है। तुम कहते हो : ‘देखो, कैसे महान संन्यासी हैं! बिना जूते पैदल चलते हैं, नग्र रहते हैं, धूप में खड़े हैं, वर्षा झेलते है, घास—पात में सोते हैं—कैसे संन्यासी है।
तुम्हारे संन्यास की धारणा भी तुम्हारे संसार से फलित होती है। तुम्हारे लिए जनक संन्यासी नहीं हो सकते। कैसे होंगे? — महल में है। तुम्हारे लिए कृष्ण संन्यासी नहीं हो सकते। कैसे होंगे? —मोर—मुकुट बांधे खड़े है; बांसुरी बजा रहे है। नहीं, तुम्हारे लिए वे संन्यासी नहीं हो सकते।
लेकिन जब तुम्हारी बुद्धि की गुलामी समाप्त होगी और तुम्हारे भीतर का सत्य मुक्त होगा, तब तुम जानोगे कि मोक्ष सब जगह है; दुकान उसके लिए बाधा नहीं है; मोक्ष सब जगह है, साम्राज्य उसके लिए बाधा नहीं है—क्योंकि मुक्ति तुम्हारे अपने अनुभव की दशा है। तुम मुक्त हुए कि सब तरफ से संसार खो जाता है। बाहर— भीतर सब एक है। पूजा और दुकान बराबर है। तब व्यक्ति जीवन को स्वीकार कर लेता है, जैसा है, उसमें फिर रत्ती भर भेद करने की कोई जरूरत नहीं।
इसलिए ऐसा भी हुआ कि कसाई भी ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हो गये, ऐसा हुआ कि परम गृहस्थ भी ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हो गये और ऐसा भी होता है कि सब छोड़कर भागा हुआ संन्यासी भी भटकता रहता है और ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध नहीं हो पाता।
यह सूत्र आत्यंतिक है : ‘स्वतंत्र स्वभाव के कारण वह अपने से बाहर भी जा सकता है और बाहर स्थित रहते हुए अपने अंदर भी रह सकता है।’ अब वह मुक्त है। अब उसकी कोई परिभाषा नहीं है। अब तुमने अगर परिभाषा की तो तुम उसे न पहचान पाओगे। अब वह अपरिभाष्य है। अब उसका कोई लक्ष्य नहीं है। अब बहुत कठिन है कहना कि तुम उसे कहां पाओगे। अब वह कहीं भी हो सकता है।
ऐसा हुआ कि एक वर्षाकाल के पूर्व बुद्ध का एक भिक्षु गांव में गया और एक वेश्या उस पर मोहित हो गयी। भिक्षु था भी सुंदर और फिर भिक्षु का एक अलग ही सौंदर्य है जो साधारण आदमी का नहीं हो सकता। जिसने सब छोड़ा है उसके भीतर एक आभा प्रगट होनी शुरू हो जाती है। जिसने व्यर्थ को अलग कर दिया है, उसके भीतर सार्थक के फूल खिल जाते है; उसके जीवन में एक महिमा प्रगट होती है, जो साधारणतया नहीं प्रगट होती। उस नाचते हुए आनंदित भिक्षु को देखकर वह वेश्या अगर मोहित हो गयी, तो स्वाभाविक है। वेश्या बड़ी सुंदर थी। सम्राट उसके द्वार पर दस्तक देते थे। सभी को उससे मिलने का मौका भी नहीं मिल पाता था। बहुमूल्य, उसके साथ एक क्षण का पाना था। वह भागी हुई स्वयं भिक्षु के पास आयी सड़क पर और उसने कहा कि इस वर्षाकाल का मेरा निमंत्रण स्वीकार करें और इस वर्षाकाल मेरे घर रुक जाएं।
भिक्षु ने कहा कि पूछ लूंगा अपने गुरु से—जैसी उनकी आज्ञा! भिक्षु ने न तो कहा ‘हां’ और न कहा ‘न’। भिक्षु ने कहा, पूछ लूंगा अपने गुरु को। दूसरे दिन सुबह उसने बुद्ध से पूछा : ‘निमंत्रण एक वेश्या का मिला है। मै क्या करूं’, बुद्ध ने कहा : ‘जब वेश्या तुमसे नहीं डरी तो तुम वेश्या से क्यों डरोगे? मेरा संन्यासी इतना कमजोर कि वेश्या से डर जाए! तुम जाओ, वर्षाकाल का निमंत्रण मिला है, तो रहो।’
बाकी भिक्षुओं में बड़ी बेचैनी हो गयी; क्योंकि अनेक भिक्षुओं ने राह से गुजरते हुए उस वेश्या को देखा ही था। सुंदर थी; अनेक के मन में वासना भी उठी थी। अनेक ने चाहा होता कि उन्हें निमंत्रण मिलता।
एक भिक्षु खड़ा हो गया और उसने कहा कि ‘यह उचित नहीं हो रहा है। संन्यासी और वेश्या के घर ठहरे! यह बात ठीक नहीं है। इससे भ्रष्ट होने का डर है।’ बुद्ध ने कहा : ‘ अगर तुम्हें निमंत्रण मिला होता तो मेरी आशा न मिलती। तुम्हारे भ्रष्ट होने का डर है, क्योंकि तुम्हें अभी बाहर— भीतर का फर्क है। पर जिसे मैं भेज रहा हूं जानकर भेज रहा हूं। वह बाहर रहे कि भीतर रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता है।’
फिर भी भिक्षुओं का मन न माना और उन्होंने कहा कि ‘ आप गलती कर रहे हैं। इससे एक गलत नियम का सिलसिला शुरू होगा; मर्यादा टूटेगी।’ बुद्ध ने कहा कि ‘तुम रुको। वर्षाकाल बीतने दो, फिर हम देखेंगे।’ रोज—रोज भिक्षु खबरें लाने लगे कि वह भ्रष्ट हो चुका है; क्योंकि कोई खबर लाता है कि हमने देखा है उसे कि वह नृत्य देख रहा था; नाच चल रहा था वहां रात और वह भी बैठा था। कोई कहता कि वह गद्दी पर बैठा था मखमल की। कोई कहता है कि उसने कपड़े बदल लिए है। कोई कुछ खबरें लाता, कोई कुछ खबरें लाता। कोई कहता है कि हमने आलिंगन में उन्हें देखा है।
बुद्ध कहते कि ‘वर्षाकाल बीत जाने दो, जल्दी क्या है? तुम अफवाहें क्यों लाते हो? तुम्हें प्रयोजन क्या है? तुम भ्रष्ट नहीं हो रहे हो। जो भ्रष्ट हो रहा है, वह वर्षाकाल के बाद वापस लौटेगा।’
वर्षाकाल के बाद भिक्षु वापस लौटा और उसके पीछे वेश्या साथ आयी और उस वेश्या ने कहा कि ‘मुझे भिक्षुणी बना लें। भिक्षु जीत गया, मैं हार गयी। मैंने सब उपाय किये और उसने किसी भी उपाय में बाधा न डाली।
अगर मैंने उसका आलिंगन भी किया तो वह दूर न हटा। अगर मैंने उसे मखमल की गद्दी पर बिठाया तो उसने यह न कहा कि मैं भिक्षु हूं मैं मखमल की गद्दी पर कैसे बैठ सकता हूं। मैंने उसे सुस्वादु से सुस्वादु भोजन दिये तो भी उसने यह न कहा कि यह भोजन मैं न कर सकूंगा; इससे वासना जगेगी। मैंने सब निमंत्रण दिये, उसने ‘न’ न कहा। जो हुआ, वह चुपचाप बैठा रहा, जैसे कुछ भी न हो रहा हो। मैं उससे आंदोलित हो गयी हूं। जैसा आनंद उसे मिला, जिसमें बाहर—भीतर खो गया; जैसा आनंद उसे मिला, जिसमें कोई भी बाधा नहीं डाल सकता, वैसे आनंद की आकांक्षा मेरी भी है।’
बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा : ‘देखो! जिसका बाहर—भीतर मिट गया हो, वह वेश्या के पास भी रहे तो वेश्या ही संन्यासिनी बन जाती है। तुम अगर वेश्या के पास जाते तो तुम वेश्या की छाया बन जाते।’
एक तो शुभ है जो अशुभ से डरा होता है, वह कुछ बहुत मूल्य का नहीं। साधु असाधु से डरा होता है। संत असाधु से डरा नहीं होता; संत दोनों के पार चला गया है। संत वही है, जिसे अब कोई भी स्थिति बदल न सके। वह बाहर रहकर भी भीतर ही बना रहता है। वह संसार में भी रहे तो भी संसार उसके भीतर प्रवेश नहीं करता।
बुद्ध ने कहा है कि संन्यास की परम दशा वही है जब तुम नदी से गुजर जाओ, लेकिन पानी तुम्हारे पैरों को न छुए। तुम नदी से गुजरने से डरो, यह कोई परम अवस्था नहीं है; यह तो भय की अवस्था है।

तीन सूत्र याद रखें।
मन की मालकियत तोड़नी है—साक्षी—भाव से टूटेगी, फासला बनेगा।
स्वयं की मालकियत सिद्ध करनी है, लेकिन विरोध में जाने से नहीं, ऊपर उठने से। स्वतंत्रता आएगी;
अगर विरोध में जाने से आई तो झूठी होगी। उस स्वतंत्रता में तनाव और परेशानी होगी। वह शांत नहीं होगी। वह सहज नहीं होगी। ऊपर जाने से, साक्षी बनने से, लड़ने से नहीं; धर्म में योद्धा की जगह ही नहीं है। धर्म में सिर्फ ऊपर उठना है। लड़ना नहीं, क्योंकि जिससे तुम लड़े, तुम वहीं रुक जाओगे, उसी के तल पर। मन को शत्रु नहीं बनाना है; मन के पार जाना ‘है, अतिक्रमण करना है।

और, मन के पार जाने का सूत्र है : साक्षी—भाव।
जैसे तुम ऊपर गये, सहज स्वतंत्रता—स्पाटेनियस फ्रीडम—घटित होगी, मुक्तता घटित होगी। और उस मुक्तता का कोई विरोध नहीं है किसी से। ऐसी मुक्ति में तुम उस दशा में पहुंच जाओगे, जहां अपने से बाहर भी रहो, भीतर भी रहो, कोई फर्क नहीं पड़ता; क्योंकि बाहर—भीतर का फासला ही गिर गया।

संसार और मोक्ष एक हैं।
सब द्वैत समाप्त हो गया, सब द्वंद्व खो गया; अद्वंद्व और अद्वैत की स्थिति आ गयी!

आज इतना ही।

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शिव सूत्र – 05. संसार के सम्‍मोहन और सत्‍य का आलोक

संसार के सम्‍मोहन और सत्‍य का आलोक—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 15 सितंबर, 1974; श्री ओशो आश्रम, पूना। प्रात: काल।


सूत्र:
आत्‍मा चित्‍तम्।
कलादीनां तत्‍वानामविवेको माया।
मोहावरणात् सिद्धि:।
जाग्रद् द्वितीय कर:।

आत्‍मा चित्‍त है। कला आदि तत्‍वो का अविवेक ही माया है। मोह आवरण से युक्‍त को सिद्धियां तो फलित हो जाती है। लेकिन आत्‍मज्ञान नहीं होता है। स्‍थाई रूप से मोह जय होने पर सहज विद्या फलित होती है। ऐसे जाग्रत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का प्रस्‍फुरण है—ऐसा बोध होता है।

आत्‍म चित्‍तमा—आत्‍मा चित्‍त है—यह सूत्र अति महत्‍वपूर्ण है।


सागर में लहर दिखाई पड़ती है; लहर भी सागर है। लहर कितनी ही विक्षुब्ध हो, लहर कितनी ही सतह पर हो, उसके भीतर भी अनंत सागर है। क्षुद्र भी विराट को अपने में लिये है। कण में भी परमात्मा छिपा है।

तुम कितने ही पागल हो गये हो, तुम्हारा मन कितना ही उद्विग्र हो; कितने ही रोग, कितनी ही व्याधियों ने तुम्हें घेरा हों—फिर भी तुम परमात्‍मा हो। इससे कोई भेद नहीं पड़ता कि तुम सोये हो, बेहोश हो; बेहोशी में भी परमात्मा ही तुम्हारे भीतर बेहोश है। सोये हुए भी परमात्मा ही तुम्हारे भीतर सो रहा है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि तुमने बहुत पाप किये हैं; बहुत पापों का विचार किया है—वे विचार भी परमात्मा ही तुम्हारे भीतर कर रहा है। वे पाप भी परमात्मा के माध्यम से ही हुए हैं।

आत्मा चित्तम् का अर्थ है कि तुम्हारा चित्त तुम्हारी आत्मा की ही एक परिणति है। यह बहुत महत्वपूर्ण है समझना, अन्यथा तुम चित्त से लड़ना शुरू कर दोगे। और, जो भी चित्त से लड़ेगा, वह हार जाएगा। विजय का मार्ग है.: चित्त को स्वीकार कर लेना कि वह भी परमात्मा का है। संघर्ष में भी, व्यर्थ की, द्वंद्व की, द्वैत की स्थिति में भी, लहर भी सागर है—इस प्रतीति के साथ ही मन की विकृतियां क्षीण होनी शुरू हो जाती हैं।

जिस दिन भी तुम यह समझ पाओगे कि क्षुद्र में विराट छिपा है, क्षुद्र की क्षुद्रता खोनी शुरू हो जाएगी। उसकी सीमा तुम्हारी मानी हुई है। छोटे—से कण की भी कोई सीमा नहीं है। वह भी असीम का ही भाग है। सीमा तुम्हारी आंखों के कारण दिखाई पड़ती है। जैसे ही तुम देख पाओगे कि सीमा में भी असीम छिपा है, सीमा खो जाएगी। यह जीवन की गहनतम प्रतीति है कि जिस दिन भी व्यक्ति अपने चित्त में भी परमात्मा को देखने लगता है; अपनी बुराई में भी उसी को देखता है; अपनी भटकन में भी उसके ही चरण—चिन्हों को पाता है, उसी दिन से भटकन बंद हो जाती है। भटकन का अर्थ है कि तुमने अपने को परमात्मा से अलग माना है। उस अलगपन में ही तुम्हारा सारा पाप है, तुम्हारी सारी विकृति है। तुमने अपने को भिन्न माना है, यही तुम्हारा अहंकार है।

और, यह बड़े आश्‍चर्य की बात है कि अहंकार के संबंध में पापी और पुण्यात्‍मा में रत्तीभर भी भेद नहीं होता। पापी भी अहंकार से भरा होता है उतना ही, जितना, जिसे हम पुण्यात्मा कहते हैं, वह अहंकार से भरा होता है। उनके कृत्य होंगे अलग; लेकिन उनकी प्रतीति एक ही है—दोनों ही अपने को भिन्न मान रहे हैं। एक अपने को बुरा मान रहा है, एक अपने को भला मान रहा है; लेकिन, दोनों अपने को भिन्न मान रहे हैं। और जब तक तुम भिन्न मानोगे, तब तक तुम भिन्न बने रहोगे। भिन्न तुम हो नहीं; तुम्हारी मान्यता ने ही तुम्हें संकीर्ण किया है। तुम्हारी धारणा ने ही तुम्हें बांधा है।’तुम अपने ही खयाल में, अपने ही खयाल के कारागृह में कैद हो। अन्यथा, चारों तरफ खुला आकाश है और कहीं कोई दीवाल नहीं। किसी ने तुम्हें रोका नहीं, किसी ने कोई बाधा खड़ी नहीं की। तुम्हारी अस्मिता कैसे गल जाये न:

आत्मा चित्तम्—इसका अर्थ है कि तुम तुम नहीं हो; तुम परमात्मा हो। तुम बड़े विराट से जुड़े हो। तुम छोटी लहर नहीं, पूरे सागर हो। इस विराट की प्रतीति से तुम्हारा अहंकार खो जाएगा। और जहां अहंकार नहीं, वहां पाप का कोई उपाय नहीं है। एक ही पाप है कि मैं पृथक हूं। और, यह पृथकता का भाव, जिसे हम साधु कहते है, उसमें भी बना रहता है।

मैंने सुना है कि एक हठ—योगी मरा। स्वर्ग पहुंचा। द्वार पर दस्तक दी। द्वार खुला और पहरेदार ने कहा, ‘स्वागत है। भीतर आएं!’ हठ—योगी ठिठक गया। उसने कहा, ‘ अगर ऐसा स्वर्ग में सभी का स्वागत हो रहा है—क्योंकि, न तुमने पूछा पता—ठिकाना; न तुमने पूछा कृत्य; न तुमने पूछा कि कौन हो; क्या किया, पुण्य कि पाप; कुछ भी पूछा नहीं और सीधा अगर इस तरह का स्वागत है एरे—गैरे, नत्थू—खेर का तो यह स्वर्ग मेरे लिए नहीं। न आरक्षण किया, न कोई रिजर्वेशन, न कोई पूछताछ; सीधा स्वागत! तो फिर यह मेरी धारणा का स्वर्ग नहीं।’
यह अहंकार पुण्य से भरा है, पाप से नहीं। साधना की है इसने, बड़ी सिद्धियां पायी होंगी; लेकिन, सब सिद्धियां व्यर्थ हो गयीं। सभी सिद्धियों ने अहंकार को ही भरा है—यह असिद्धि हो गयी।

बर्नाड शॉ को नोबेल प्राइज मिली। एक छोटा—सा, लेकिन बड़ा कीमती क्लब यूरोप में है। वह केवल सौ व्यक्तियों को सदस्यता देता है पूरी पृथ्वी पर; चुने हुए लोगों का है, जिनकी बड़ी महिमा है, नोबेल पुरस्कार जिन्होंने पाये हैं या कोई और बड़ी जिनकी उपलब्धि है—बड़े चित्रकार, मूर्तिकार, साहित्यकार; पर केवल सौ, उससे ज्यादा संख्या क्लब की नहीं होती। जब एक सदस्य मरता है, तब कोई नया व्यक्ति प्रवेश करता है। लोग जीवनभर प्रतीक्षा करते है कि उस क्लब की सदस्यता मिल जाए।

जब बर्नाड शॉ को नोबेल प्राइज मिली, तो उस क्लब की सदस्यता का निमंत्रण उसके पास आया और क्लब ने कहा, ‘हम गौरवान्वित होंगे तुम्हें अपना सदस्य बनाकर।’ बर्नाड शॉ ने उत्तर में लिखा, ‘जो क्लब मुझे सदस्य बनाकर गौरवान्वित होता है, वह मेरे योग्य नहीं है। वह मुझसे कुछ नीचा है। मैं उस क्लब का सदस्‍य बनना चाहूंगा, जो मुझे सदस्य बनाने को राजी न हो।’

अहंकार हमेशा दुर्गम को खोजता है, कठिन को खोजता है; और जीवन बिलकुल सरल है। इसलिए, अहंकार जीवन से वंचित रह जाता है। और, परमात्मा से सरल कुछ भी नहीं है। इसलिए, अहंकार उस द्वार पर जाता ही नहीं। वह द्वार खुला ही हुआ है। वहां स्वागत है ही, बिना पूछे कि तुम कौन हो। अगर परमात्मा के द्वार पर भी पूछा जाता हो कि तुम कौन हो, तब होगा स्वागत, तो वह द्वार सांसारिक हो गया। तुम उस द्वार पर ही खड़े हो। और, तुमने पीठ की है तो अपने ही कारण। द्वार ने तुम्हारा तिरस्कार नहीं किया है। तुम अगर आंख बंद किये हो और द्वार तुम्हें नहीं दिखता तो अपने ही कारण; अन्यथा द्वार सदा खुला है और निमंत्रण सदा तुम्हारे लिए है।’स्वागत’ सदा वहां लिखा है।

आत्मा चित्तम्—इसका अर्थ है कि तुम अपने को पृथक मत मानना, कितने ही बुरे तुम हो। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम अपनी बुराई किये चले जाना। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम बुरे बने रहना। तुम बने ही न रह सकोगे।

मनस्विद कहते हैं कि व्यक्ति वैसा ही हो जाता है, जैसा वह स्वयं को मानता है। मान्यता ही धीरे— धीरे जीवन बन जाती है। मनस्विद कहते हैं कि अगर आदमी बुरा भी हो तो भी उसे बुरा मत कहना; क्योंकि बुरा कहने से, बार—बार पुनरुक्त करने से कि ‘तुम बुरे हो, तुम बुरे हो’ —यह मंत्र बन जाता है। और, अगर सब तरफ सभी तरफ लोग दोहराते हैं कि तुम बुरे हो, तो वह व्यक्ति भी भीतर दोहराने लगता है कि मैं बुरा हूं। न केवल वह दोहराता है, बल्कि जो सबकी अपेक्षा है, उसको सिद्ध करने की कोशिश भी करता है। धीरे— धीरे बुराई की आदत हो जाती है। शायद धर्म के जगत में खोज करने वाले लोग इस सत्य को बहुत पहले पहचान गये थे। उन्होंने तुम्हें जीवन की परम सत्ता को मंत्र बनाने को कहा है—आत्मा चित्तम्।

तुम परमात्मा हो। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारा मंत्र है। यह बडी—से—बडी बात है, जो तुम्हारे संबंध में कही जा सकती है। और, अगर यह तुम्हारा मंत्र बन जाए और यह तुम्हारे जीवन में ओतप्रोत हो जाए तुम्हारे रोएं—रोएं में समा जाए इसकी झंकार, तो तुम धीरे—धीरे पाओगे कि जो तुमने सोचा, वह तुम होने लगे; जो तुमने आ भीतर, वह तुम्हारे जीवन में आना शुरू हो गया है।

धर्म की शुरुआत—तुम नहीं हो, परमात्मा है—इस सूत्र से होती है। माना तुम सोये हो; माना कि तुम बहुत अर्थों में बुरे हो; माना कि बहुत भूल—चूक तुमने की है; लेकिन इससे तुम्हारे स्वभाव में कोई भी फर्क नहीं पड़ता। निर्मलता तुम्हारा स्वभाव है। तुम कितना ही बुरा किये हो, इस बात का स्मरण आ जाए कि ‘मैं परमात्मा हूं,, सब बुराई कट जाएगी। तुम्हें एक—एक बुराई को अलग—अलग काटना हो तो तुम वह भी कर सकते हो; तब जन्मों—जन्मों तक बुराई न कटेगी; क्योंकि अनंत है बुराई और एक—एक बुराई को जो काटने चलेगा, वह कभी भी काट न पाएगा।

जब तुम एक बुराई को काटते हो, तो तुम दस बुराइयां पैदा भी कर रहे हो। एक बुराई काटते हो, निन्यानबे बुराइयां तो तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। वे तुम्हारी एक भलाई को भी रंग देंगी,उसे भी बुरा कर देंगी। इसलिए, तुम पुण्य भी करते हो, तो वह भी पाप जैसा हो जाता है। तुम अमृत भी छूते हो तो जहर हो जाता है; क्योंकि शेष सब बुराइयां उस पर टूट पड़ती हैं। तुम मंदिर भी बनाओ तो भी उससे विनम्रता नहीं आती; उससे अहंकार भरता है। और, अहंकार के बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं! व्यर्थ से भी अहंकार भरता है।

मुल्ला नसरुद्दीन के पास एक कुत्ता था। न उस कुत्ते की कोई नसल का ठिकाना था; न कोई डील—डौल; देखने में बदशक्ल, कमजोर; हर समय डरा हुआ, भयभीत; पैर झुके हुए, शरीर दुर्बल; लेकिन, नसरुद्दीन उसकी भी तारीफ हांका करता था। मैंने उससे पूछा, ‘कुछ इस कुत्ते के संबंध में बताओ भी’।, नाम उसने उसका रखा था—एडोल्फ हिटलर। नसरुद्दीन ने कहा कि हिटलर की नसल का भला कोई ठीक—ठीक पता न हो; लेकिन, बड़ा कीमती जानवर है। और, एक अजनबी कदम नहीं रख सकता घर के आसपास, बिना हमें खबर हुए। हिटलर फौरन खबर देता है।
मैंने पूछा कि क्या करता है तुम्हारा हिटलर—क्योंकि उसे देखकर संदेह होता था कि वह कुछ कर सकेगा— भौकता है, चिल्लाता है, चीखता है, काटता है, क्या करता है? नसरुद्दीन ने कहा, ‘जी नहीं! जब भी कोई अजनबी आता है, हिटलर फौरन हमारे बिस्तर के नीचे आकर छिप जाता है। ऐसा कभी नहीं होता कि अजनबी आ जाए और हमें पता न हो। मगर उसका भी गुण—गौरव है।’

तुम्हारा अहंकार मुल्ला नसरुद्दीन के हिटलर जैसा है—न तो नसल का कोई पता है…। तुम्हें पता है कि तुम्हारा अहंकार कहां से पैदा हुआ? जो है ही नहीं, वह पैदा कैसे होगा? वह भ्रांती है। उसकी नसल का कोई पता नहीं

तुम तो परमात्मा से पैदा हुए हो; तुम्हारा अहंकार कहां से पैदा हुआ? और, कभी तुमने अपने अहंकार को गौर से देखा कि भला नाम तुम एडोल्फ हिटलर रख लिये हो—सभी सोचते हैं; लेकिन उसके पैर बिलकुल झुके है.. .दीन—हीन!

बड़े—से—बडा अहंकार भी दीन—हीन होता है। क्यों? क्योंकि, बड़े—से—बडा अहंकार भी नपुंसक होता है। उसमें तो कोई ऊर्जा तो होती नहीं; ऊर्जा तो आत्मा की होती है। ऊर्जा का स्रोत अलग है। इसलिए, अहंकार को चौबीस घंटे सम्हालना पड़ता है। वह अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं रह सकता; उसे और पैर हमें उधार देने पड़ते हैं। कभी पद से हम उसे सहारा देते हैं; कभी धन से सहारा देते हैं; कभी पुण्य से सहारा देते है, कुछ न बने तो पाप से सहारा देते हैं।

कारागृह में जाकर देखो! वहां लोग अपने पापों की झूठी चर्चा करते हैं, जो उन्होंने कभी किये ही नहीं। जिसने एक आदमी को मारा है, वह कहता है कि मैंने सैकडों का सफाया कर दिया; क्योंकि कारागृह में अहंकार के बड़े होने का वही उपाय है। छोटे—मोटे आदमी वहां बड़े कैदी हैं जिन्होंने काफी उपद्रव किये हैं। जिन पर एकाध धारा में मुकदमा चला है, उनकी कोई कीमत है! जिन पर दस—पच्चीस धाराएं लगी हैं; जिन पर सौ—दो—सौ मुकदमे चल रहे हैं; जो रोज अदालत में हाजिर होते हैं— आज इस मुकदमे के लिए, कल उस मुकदमे के लिए—कारागृह में वे ही दादा—गुरु हैं। वहां आदमी झूठे पापों की भी बात करता है, जो उसने कभी नहीं किये।

पुण्य से भी, पाप से भी; धन से, पद से—हर चीज से अहंकार को तुम सहारा देते हो, तब भी वह खड़ा नहीं रहता; मौत उसे गिरा देती है। क्योंकि, जो नहीं है, मौत उसी को मिटाकी; जो है, उसके मिटने का कोई भी उपाय नहीं। तुम तो बचोगे लेकिन, ध्यान रखना—जब मैं कहता हूं ‘तुम बचोगे’, तो मैं उस तत्व की बात कर रहा हूं जिसका तुम्हें कोई पता ही नहीं।

जिसे तुम समझते हो तुम्हारा होना, वह तो नहीं बचेगा; वह तुम्हारा अहंकार मात्र है। तुम्हारा नाम, तुम्हारा रूप, तुम्हारा धन, तुम्हारी प्रतिष्ठा, तुम्हारी योग्यता—तुमने जो कमाया, वह कुछ भी न बचेगा, उसको छोड्कर भी अगर तुम कुछ हो; अगर थोड़ी—सी भी संधि—रेखा उसकी मिलनी शुरू हो गयी—जो तुम्हारी योग्यता से बाहर है; जो तुमने कमाया नहीं, जिसे तुम लेकर ही पैदा हुए थे; जो पैदा होने के पहले भी तुम्हारे साथ था—वही केवल मृत्यु के बाद तुम्हारे साथ रहेगा।

आत्मा चित्तम्—वही आत्मा खोजने जैसी है। तुम्हारे चित्त में भी उसकी किरण है; अन्यथा चित्त भी नहीं चल सकेगा। पाप भी करोगे तो कौन करेगा? करने के लिए ऊर्जा चाहिए। वह ऊर्जा उसी से मिलती है। तुम उस ऊर्जा का दुरुपयोग कर रहे हो। लेकिन दुरुपयोग को तुम सदुपयोग में न बदल सकोगे; क्योंकि दुरुपयोग का मूल कारण और जड़ अहंकार में है।

एक ही पाप है और वह है स्वयं को अस्तित्व से पृथक समझना; फिर सभी पाप उसके पीछे छाया की तरह चले आते हैं। एक ही पुण्य है—अस्तित्व के साथ स्वयं को एक समझना। लहर सागर के साथ एक हो जाए, सभी पुण्य उसके पीछे अपने—आप चले आते हैं।

आत्‍मा चित्त है।
कला आदि तत्वों का अविवेक ही माया है।


यह माया क्या है? फिर इस चित्त पर अंधकार क्यों है, अगर आत्मा ही चित्त है? क्यों कला आदि तत्वों का अविवेक? तुम्हें पता नहीं कि कौन तुम्हारे भीतर कर्ता है; कौन है असली कलाकार भीतर तुम्हारे; कौन है मौलिक तत्व, उसका तुम्हें पता नहीं। और, जिसे तुम समझ रहे हो, कि यह कर रहा है, वह है ही नहीं। ना—कुछ को पकड़कर तुम जी रहे हो, इसलिए परेशान हो। पूरी जिंदगी दौड़धूप करके भी परेशानी नहीं मिटती, सिर्फ बढ़ती है और पूरी जिंदगी श्रम करके भी आनंद की एक बूंद भी नहीं मिलती; सिर्फ दुख के पहाड बड़े हो जाते हैं। फिर भी आदमी आखिरी दम तक व्यर्थ के पीछे दौड़ता रहता है।

आखिर व्यर्थ में इतना रस क्यों है? समझने की कोशिश करें। व्यर्थ की एक खूबी है—
एक आदमी ने एक नया बंगला खरीदा। बगीचा लगाया। फूल के बीज बोये। पौधे भी आने शुरू हुए लेकिन साथ—साथ घास—पात भी उग गया। वह थोड़ा चिंतित हुआ। उसने पड़ोसी नसरुद्दीन से पूछा कि कैसे पहचाना जाए कि क्या घास—पात है और क्या असली पौधा है। नसरुद्दीन ने कहा, ‘सीधी तरकीब है, दोनों को उखाड़ लो। जो फिर से उग आये, वह घास—पात है।’

व्यर्थ की यह खूबी है—उखाड़ो, उखाड़ने से कुछ नहीं मिटता। उखाड़ने में सार्थक तो खो जाएगा, व्यर्थ फिर उग आयेगा। सार्थक को बोओ, तब भी पका नहीं कि फसल काट पाओगे; क्योंकि हजार बाधाएं हैं। व्यर्थ को बोओ ही मत तो भी फसल काटोगे; उखाड—उखाडकर फेंको कि और—और उग आएगा।

व्यर्थ को बनाने में श्रम नहीं करना पड़ता; सार्थक को बनाने में बड़ा श्रम करना पड़ता है। इसलिए, तुमने व्यर्थ को चुना है। वह अपने से उग रहा है। किसी को चोर होने के लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती; चोरी घास—पात की तरह उगती है। किसी को कामवासना से भरने के लिए कोई श्रम करना पड़ता है? कोई प्रार्थना, कोई योग, कोई साधना? वह घास—पात की तरह उगती है। क्रोध करने के लिए कहीं सीखने जाना पड़ता है? किसी विद्यापीठ में? नहीं, वह घास—पात की तरह बढ़ता है। ध्यान सीखना हो तो कठिनाई शुरू होती है। प्रेम सीखना हो तो बड़ी कठिनाई शुरू होती है; मोह बढ़ता है अपने—आप, घास—पात की तरह। प्रेम श्रम मांगता है और प्रेम को अगर लाना हो तो घास—पात को प्रतिक्षण उखाड़कर फेंकना पड़ेगा; घास—पात उस सबको खा जाएगा, जो सार्थक है; उस सब को ढांक लेगा, छिपा लेगा।

व्यर्थ की एक खूबी है कि वह तुमसे श्रम नहीं मांगता; तुम आलसी बने रहो, वह अपने—आप बढ़ता है। वह तुम्हें मृत्यु के आखिरी क्षण तक पक्के रहेगा।

साधक का अर्थ है: जिसने सार्थक की खोज शुरू कर दी। सार्थक को पाना यात्रा है—पर्वत की तरफ, ऊंचाई की तरफ। व्यर्थ को पाना लुढ़कने जैसा है; जैसे, पत्थर पहाड़ से लुढ़कता हो, वह अपने—ही—आप चला आता है।
गुरुत्वाकर्षण उसे नीचे ले आता है, कुछ करना नहीं पड़ता।

तुमने अब तक जीवन में कुछ नहीं किया है, इसलिए तुम व्यर्थ हो। तुम कहोगे, ‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। मैने धन कमाया, पद—प्रतिष्ठा पर पहुंचा। मैंने बड़ी उपाधियां इकट्ठी की हैं।’ तो मैं तुमसे यह कहता हूं कि वह तुमने किया नहीं, वह घास—पात की तरह अपने आप बढ़ा है। और, अगर गौर से तुम भीतर विश्लेषण करोगे तो तुम्हें भी दिखाई पड़ जाएगा कि धन कमाने के लिए तुमने कुछ किया नहीं; धन की आकांक्षा घास—पात की तरह तुम्हारे भीतर थी, वह बढ़ गयी है। तुम उखाड़कर भी फेंको तो भी बढ़ जाती है। तुमने घर बनाने के लिए कुछ किया नहीं; वह वासना तुम्हारे भीतर घास—पात की तरह बड़ी है। वह मृत्यु के आखिरी क्षण तक तुम्हें पक्के रहेगी।

साधक का अर्थ है: जो इस सत्य को समझ जाए कि जो अपने—आप बढ़ रहा है, वह व्यर्थ ही होगा; मुझे कुछ बोना पड़ेगा।

मैने सुना है कि एक महिला एक मनोवैज्ञानिक के पास गयी और उसने कहा कि अब सहायता की जरूरत है। बहुत दिन टाला, लेकिन अब मुझे कहना ही पड़ेगा; मेरी सहायता करो। उस मनोवैज्ञानिक ने पूछा, ‘क्या है समस्या?’ उसने कहा, ‘समस्या मेरी नहीं है, मेरे पति की है। समस्या यह है कि जैसा प्रेम प्रथम दिनों में उन्होंने दिखाया था, अब वह धीरे—धीरे खो गया। और, जैसी प्रगाढ़ वासना उनमें पहले थी, वह धीरे— धीरे क्षीण हो गयी है। पहले वे बाढ़ की तरह थे, अब वे एक सूखी नदी की तरह हुए जा रहे हैं।’

मनोवैज्ञानिक ने भीतर से तो हंसना चाहा, लेकिन बाहर उसने गंभीरता रखी—व्यावसायिक की गंभीरता— और उसने पूछा, ‘लेकिन, आपकी उम्र क्या है?’ उस महिला ने कहा, ‘बस, केवल बहत्तर वर्ष।’’ और, तुम्हारे पति की उम्र?’
तो उसने कहा, ‘बस, केवल छियासी वर्ष।’
सभी लोग ऐसा सोचते हैं कि ‘बस केवल अस्सी—नब्बे; केवल मृत्यु के खिलाफ लगाये हुए हैं। अभी कोई उम्र है; अभी तो जैसे शुरुआत है! और, मनोवैज्ञानिक ने कहा कि कब तुम्हें यह लक्षण दिखाई पड़ने शुरू हुए कि पति की ऊर्जा खो रही है, शक्ति खो रही है, प्रेम—वासना कम हो रही है। पत्नी ने कहा, ‘कल रात और आज सुबह फिर।’
अंतिम, मरते क्षण तक कचरा ही पकड़े रखता है; क्योंकि उसके लिए कुछ करने की जरूरत नहीं, वह अपने से उग रहा है।

मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते है कि ध्यान करते हैं, छूट—छूट जाता है; दो दिन चलता है, फिर बंद हो जाता है। ऐसा वासना के साथ नहीं होता। ऐसा क्रोध के साथ नहीं होता। तुम कभी भूलकर भी छोड़ नहीं पाते। उसे तुम पक्के ही रहते हो। मामला क्या है? ध्यान कर—करके छूट जाता है; दो दिन करके फिर भूल जाते है। फिर चार—छह महीने में याद आती है। प्रार्थना कर—करके छूट जाती है; और, क्रोध और लोभ और काम और मोह? एक तथ्य को समझने की कोशिश करो—क्योंकि, ध्यान तुम्हें करना पड़ता है, इसलिए छूट—छूट जाता है। वे बीज है जो बोने पड़ते है; उन्हें सम्हालना पड़ेगा और यह सब कचरा अपने—आप उगता है। जो भी अपने—आप चल रहा है, उसे व्यर्थ समझना और जब तक तुम उसी में जीते रहोगे, तब तक तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। मौत के समय तुम पाओगे कि तुम खाली हाथ आये और खाली हाथ जा रहे हो। और, यह अविवेक ही माया है। यह मूर्च्छा है—यह भेद न कर पाना कि क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है।

शंकर ने सार्थक और व्यर्थ के विवेक को भी ज्ञान कहा है—जीवन में यह दिखाई पड़ जाये कि यह सार्थक और यह व्यर्थ। वहां दोनों हैं—वहां घास—पात भी है और फूल के पौधे भी हैं। तुम्हें ही अपने जीवन के अनुभव से तय करना पड़ेगा कि क्या सार्थक है। सार्थक पर दृष्टि आ जाये तो ब्रह्म पर दृष्टि आ गई और व्यर्थ पर दृष्टि लगी रहे तो माया में भटकन है।

न तुम्हें पता है कि तुम कौन हो; न तुम्हें पता है कि तुम किस दिशा में जा रहे हो; न तुम्हें पता है कि तुम कहां से आ रहे हो, तुम बस रास्ते के किनारे के कचरे से उलझे हुए हो। राह के किनारे को तुम ने घर बना लिया है। और, इतनी चिंताओं से तुम भरे हो—इस व्यर्थ के कचरे के कारण, जो तुम्हारे बिना ही उगता रहा है। तुम्हें इस संबंध में चिंतित होने का कोई भी प्रयोजन नहीं।

अविवेक माया है। अविवेक का अर्थ है. भेद न कर पाना, डिसक्रिमिनेशन का अभाव, यह तय न कर पाना कि क्या हीरा है और क्या पत्थर है। जीवन के जौहरी बनना होगा। जीवन के जौहरी बनने से ही विवेक पैदा होता है।

तुम्हारे पास जीवन है। और, तुम खोजो। और, इसको मैं खोज की कसौटी कहता हूं कि जो अपने—आप चल रहा है, उसे तुम व्यर्थ जानना। और, जो तुम्हारे चलाने से भी नहीं चलता, उसे तुम सार्थक जानना। यह कसौटी है। और, जिस दिन तुम्हारे जीवन में वह चलने लगे, जिसे तुम चलाना चाहते थे और जिसका चलना मुश्किल था, तो उस दिन समझना की फूल आयेंगे। और, जिस दिन उसका उगना बंद हो जाए, जो अपने—आप उगता था, समझना कि माया समाप्त हुई।

मोह—आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं; लेकिन, आत्मज्ञान नहीं होता। और, यह व्यर्थ इतना महत्वपूर्ण हो गया है जीवन में कि जब तुम सार्थक को भी साधने जाते हो, तब भी सार्थक नहीं सधता, व्यर्थ ही सधता है।

लोग ध्यान करने आते हैं तो भी उनकी आकांक्षा को समझने की कोशिश करो तो बड़ी हैरानी होती है। ध्यान से भी वे व्यर्थ को ही मांगते हैं। मेरे पास वे आते हैं और कहते हैं कि ‘ ध्यान करना चाहता हूं क्योंकि शारीरिक बीमास्यिां हैं। क्या आप आश्वासन देते हैं कि ध्यान करने से वे दूर हो जाएंगी।’ अच्छा होता, वे चिकित्सक के पास गये होते। अच्छा होता कि उन्होंने वह आदमी खोजा होता, जो शरीर की चिकित्सा करता। वे आत्मा के वैद्य के पास भी आते हैं तो भी शरीर के इलाज के लिए ही। वे ध्यान भी करने को तैयार हैं, तो भी ध्यान उनके लिए औषधि से ज्यादा नहीं है; और वे औषधि भी शरीर के लिए।

मेरे पास लोग आते हैं और कहते है कि बड़ी कठिनाई में जीवन जी रहा है, धन की असुविधा है; क्या ध्यान करने से सब ठीक हो जाएगा?
यह मोह का आवरण इतना घना है कि तुम अगर अमृत को भी खोजते हो तो जहर के लिए। बड़ी हैरानी की बात है! तुम चाहते तो अमृत हो; लेकिन उससे आत्महत्या करना चाहते हो। और, अमृत से कोई आत्महत्या नहीं होती। अमृत पीया कि तुम अमर हो जाओगे; लेकिन तुम अमृत की तलाश में आते हो तो भी तुम्हारा लक्ष्य आत्‍महत्या का है। धन या देह, संसार का कोई—न—कोई अंग, वह भी तुम धर्म से ही पूरा करना चाहते हो।

सुनो लोगों की प्रार्थनाएं मंदिरों में जाकर वे क्या मांग रहे हैं; और तुम पाओगे कि वे मंदिर में भी संसार मांग रहे हैं। किसी के बेटे की शादी नहीं हुई है; किसी के बेटे को नौकरी नहीं मिली है; किसी के घर में कलह है—मदिर में भी तुम संसार को ही मांगने जाते हो। तुम्हारा मंदिर सुपर—मार्केट होगा। वह बड़ी दुकान होगा, जहां ये चीजें भी बिकती हैं; जहां सभी कुछ बिकता है। लेकिन तुम्हें अभी मंदिर की कोई पहचान नहीं। इसलिये तुम्हारे मंदिरों में जो पुजारी बैठे हैं, वे दुकानदार हैं; क्योंकि वहां जो लोग आते हैं, वे संसार के ही ग्राहक हैं। असली मंदिर से तो तुम बचोगे।

मेरे एक मित्र हैं, दांत के डाक्टर हैं। उनके घर में मेहमान था। बैठा था उनके बैठक खाने में एक दिन सुबह तो एक छोटा—सा बच्चा डरा—डरा भीतर प्रविष्ट हुआ। चारों तरफ उसने चौंककर देखा। उसने मुझसे पूछा कि ‘क्या मैं पूछ सकता हूं (बड़े फुसफुसाकर) कि डाक्टर साहिब भीतर हैं या नहीं?’ मैंने कहा कि वे अभी बाहर गये हैं। प्रसन्न हो गया यह बच्चा। वह कहने लगा, ‘मेरी मां ने भेजा था, दांत दिखाने को। क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि वे फिर कब बाहर जाएंगे?’
बस, ऐसी तुम्हारी हालत है। अगर मंदिर तुम्हें मिल जाए तो तुम बचोगे। दांत का दर्द तुम सह सकते हो; लेकिन दांत का डाक्टर तुम्हें जो दर्द देगा, वह तुम सहने को तैयार नहीं। हम छोटे बच्चों की भांति हैं।

तुम संसार की पीड़ा सह सकते हो; लेकिन, धर्म की पीड़ा सहने की तुम्हारी तैयारी नहीं है। निश्‍चित ही धर्म भी पीड़ा देगा। धर्म पीड़ा नहीं देता; तुम्हारे संसार के दांत इतने सड़ गये हैं कि तुम्हें पीड़ा होगी। धर्म पीड़ा नहीं देता; धर्म तो परम आनंद है। लेकिन, तुम दुख में ही जीये हो और तुमने दुख ही अर्जित किया है। तुम्हारे सब दांत पीड़ा से भर गये हैं; इनको खींचने में कष्ट होगा। तुम इतने डरते हो इनको खींचे जाने से कि तुम राजी हो उनकी पीड़ा और जहर को झेलने को। इससे तुम विषाक्त हुए जा रहे हो; तुम्हारा सारा जीवन गलत हुआ जा रहा है। लेकिन तुम इस दुख से परिचित हो।

आदमी परिचित दुख को —झेलने को राजी होता है; अपरिचित सुख से भी भय लगता है! यह दांत भी तुम्हारा है। यह दर्द भी तुम्हारा है। इससे तुम जन्मों—जन्मों से परिचित हो। लेकिन तुम्हें पता नहीं कि अगर ये दांत निकल जाएं यह पीड़ा खो जाए तो तुम्हारे जीवन में पहली दफा आनंद का द्वार खुलेगा।

तुम मंदिर भी जाते हो तो तुम पूछते हो पुजारी से कि परमात्मा फिर कब बाहर होंगे, कब मैं आऊं? तुम जाते भी हो, तुम जाना भी नहीं चाहते हो। तुम कैसी चाल अपने साथ खेलते हो, इसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल निरंतर मैं देखकर—तुम्हारी समस्थाओं को देखकर—मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि तुम्हारी एक मात्र समस्या है कि तुम ठीक से नहीं समझ पा रहे हो कि तुम क्या करना चाहते हो। ध्यान करना चाहते हो, यह भी पक्का नहीं है। फिर ध्यान नहीं होता तो तुम परेशान होते हो। लेकिन जो करने का तुम्हारा पक्का ही नहीं है, वह पूरे—पूरे भाव से करोगे नहीं, आधे—आधे भाव से करोगे। और, आधे—आधे भाव से जीवन में कुछ भी नहीं होता। व्यर्थ तो बिना भाव के भी चलता है। उसमें तुम्हें कुछ भी लगाने की जरूरत नहीं; उसकी अपनी ही गति है। लेकिन, सार्थक में जीवन को डालना पड़ता है, दांव पर लगाना होता है।

यह सूत्र कहता है: मोह—आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती है, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता। मोह का आवरण इतना घना है कि अगर तुम धर्म की तरफ भी जाते हो तुम चमत्कार खोजते हो वहां भी।

वहां भी अगर बुद्ध खडे हों तो न पहचान सकोगे। तुम सत्य साई बाबा को पहचानोगे। अगर बुद्ध और ‘सत्य साईं बाबा’ दोनों खड़े हों तो तुम सत्य साईं बाबा के पास जाओगे, बुद्ध के पास नहीं। क्योंकि बुद्ध ऐसी मूढ़ता नहीं करेंगे कि तुम्हें ताबीज दें, हाथ से राख गिराए बुद्ध कोई मदारी नहीं हैं। लेकिन तुम मदारियों की तलाश में हो। तुम चमत्कार से प्रभावित होते हो; क्योंकि तुम्हारी गहरी आकांक्षा, वासना परमात्मा की नहीं है; तुम्हारी गहरी वासना संसार की है।

जहां तुम चमत्कार देखते हो, वहां लगता है कि यहां कोई गुरु है। यहां आशा बंधती है कि वासना पूरी होगी। जो गुरु हाथ से ताबीज निकाल सकता है, वह चाहे तो कोहिनूर भी निकाल सकता है; बस गुरु के चरणों में, सेवा में लग जाने की जरूरत है, आज नहीं कल कोहिनूर भी मिलेगा। क्या फर्क पड़ता है गुरु को—ताबीज निकाला, कोहिनूर भी निकल सकता है। कोहिनूर की तुम्हारी आकांक्षा है। कोहिनूर के लिए छोटे—छोटे लोग ही नहीं, बड़े—से—बड़े लोग भी चोर होने को तैयार हैं। जिस आदमी के हाथ से राख गिर सकती है सुनने से, वह चाहे तो तुम्हें अमरत्व प्रदान कर सकता है; बस केवल गुरु—सेवा की जरूरत है!

नहीं, बुद्ध से तुम वंचित रह जाओगे; क्योंकि, वहां कोई चमत्कार घटित नहीं होता। जहां सारी वासना समाप्त हो गयी, वहां तुम्हारी किसी वासना को तृप्त करने का भी कोई सवाल नहीं है। बुद्ध के पास जो महानतम चमत्कार, आखिरी चमत्कार घटित होता है, वह निर्वासना का प्रकाश है वहां; लेकिन तुम्हारी वासना से भरी आंखें वह न देख पाएंगी। बुद्ध को तुम तभी देख पाओगे, तभी समझ पाओगे, उनके चरणों में तुम तभी झुक पाओगे, जब सच में ही संसार की व्यर्थता तुम्हें दिखाई पड़ गयी हो, मोह का आवरण टूट गया हो।

मोह एक नशा है। जैसे नशे में डूबा हुआ कोई आदमी चलता है, डगमगाता है; पका पता भी नहीं कि कहां जा रहा है, क्यों जा रहा है; चलता है बेहोशी में, ऐसे तुम चलते रहे हो। कितना ही तुम सम्हालो अपने पैरों को, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सभी शराबी सम्हालने की कोशिश करते हैं। तुम अपने को भला धोखा दे दो, दूसरों को कोई धोखा नहीं हो पाता। सभी शराबी कोशिश करते हैं कि वे नशे में नहीं है; जितनी कोशिश करते है, उतना ही प्रगट होता है। और, यह मोह नशा है।

और जब मैं कहता हूं कि मोह नशा है, तो बिलकुल रासायनिक अर्थों में कहता हूं कि मोह नशा है। मोह की अवस्था में तुम्हारा पूरा शरीर नशीले द्रव्यों से भर जाता है—वैज्ञानिक अर्थों में भी। जब तुम किसी एक सी के प्रेम में गिरते हो तो तुम्हारे पूरे शरीर का खून विशेष रासायनिक द्रव्यों से भर जाता है। वे द्रव्य वही हैं जो भांग में, गांजे में, एल. एस. डी. में हैं। इसलिए अब जिसके तुम प्रेम में पड़ गये हो, वह सी अलौकिक दिखायी पड़ने लगती है। वह सी फीकी नहीं मालूम होती। जिस पुरुष के प्रेम में तुम पड़ जाओ, वह पुरुष इस लोक का नहीं मालूम पड़ता। नशा उतरेगा, तब वह दो कौड़ी का दिखायी पडेगा। जब तक नशा है..!

इसलिए तुम्हारा कोई भी प्रेम स्थायी नहीं हो सकता—क्योंकि नशे की अवस्था में किया गया है। वह मोह का स्वरूप है। होश में नहीं हुआ है, बेहोशी में हुआ है। इसलिए हम प्रेम को अंधा कहते हैं। प्रेम अंधा नहीं है, मोह अंधा है। हम भूल से मोह को प्रेम समझते हैं। प्रेम तो आंख है; उससे बड़ी कोई आंख नहीं है। प्रेम की आंख से तो परमात्मा दिखायी पड़ जाता है—इस संसार में छिपा हुआ।

मोह अंधा है; जहां कुछ भी नहीं है वहां सब कुछ दिखायी पड़ता है। मोह एक सपना है। और, जिनको हम योगी कहते है, वे भी इस मोह से पस्त होते हैं। सिद्धियां तो हल हो जाती हैं। वे कुछ शक्तियां तो पा लेते हैं। शक्तियां पानी कठिन नहीं है।

दूसरे के मन के विचार पढ़े जा सकते हैं—सिर्फ थोड़ा ही उपाय करने की जरूरत है। दूसरे के विचार प्रभावित किये जा सकते हैं— थोड़ा ही उपाय करने की जरूरत है। आदमी आये—तुम बता सकते हो कि तुम्हारे मन में क्या खयाल है। थोड़े ही उपाय’ करने की जरूरत है। यह एक विज्ञान है; धर्म का इससे कुछ लेना—देना नहीं। मन को पढ़ने का विज्ञान है, जैसे किताब को पढ़ने का विज्ञान है। जो अनपढ़ है, वह तुम्हें किताब को पढ़ते देखकर बहुत हैरान होता है कि क्या चमत्कार हो रहा है! जहां कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता उसे—काले धब्बे हैं—वहां से तुम ऐसा आनंद ले रहे हो—कविता का, उपनिषद का, वेद का—मंत्रमुग्ध हो रहे हो! अपढ़ देखकर हैरान होता है।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने गांव में अकेला ही पढ़ा—लिखा आदमी था। और, जब अकेला ही कोई पढ़ा—लिखा आदमी हो तो पका नहीं कि वह पढ़ा—लिखा है भी कि नहीं। क्योंकि., कौन पता लगाए? गांव में जिसको भी चिट्ठी—वगैरह लिखवानी होती, वह नसरुद्दीन के पास आता था, वह चिट्ठी लिख देता था। एक दिन एक बुढ़िया आयी। उसने कहो कि ‘चिट्ठी लिख दो, नसरुद्दीन!’ नसरुद्दीन ने कहा कि ‘न लिख सकूंगा, मेरे पैर में बहुत दर्द है।’
बूढ़ी औरत ने कहा, ‘हद हो गयी! पैर की दर्द से चिट्ठी लिखने का संबंध क्या?’
नसरुद्दीन ने कहा, ‘उस विस्तार में मत जाओ। लेकिन, मैं कहता हूं कि पैर में दर्द है, मैं चिट्ठी न लिखूंगा।’
बूढ़ीया भी जिद्दी थी। उसने कहा कि ‘बिना जाने मैं जाऊंगी नहीं। भले मैं बे पढी—लिखी हूं लेकिन यह मैंने कभी सुना ही नहीं कि पैर के दर्द से चिट्ठी लिखने का क्या संबंध है।’ नसरुद्दीन ने कहा कि ‘तू नहीं मानती तो मैं बता दूं—फिर पढ़ने दूसरे गांव तक कौन जाएगा? मुझ ही को जाना पड़ता है। मेरी लिखी चिट्ठी मैं ही पढ़ सकता हूं। अब मेरे पैर में दर्द है, मैं लिखनेवाला नहीं हूं।’
गैर पढा—लिखा आदमी किताब में खोये आदमी को देखकर चमत्कृत होता है। लेकिन, पढ़ना सीखा जा सकता है; उसकी कला है।
तुम्हारे मन में विचार चलते हैं—तुम देखते हो विचारों को, दूसरा भी उनको देख सकता है; उसकी कला है। लेकिन, विचारों को देखने की उस कला का धर्म से कोई भी संबंध नहीं। न किताब को पढने की कला से धर्म का कोई संबंध है। न दूसरे के मन को पढ़ने की कला से धर्म का कोई संबंध है। जादूगर सीख लेते हैं—वें कोई सिद्ध—पुरुष नहीं है।

लेकिन तुम बहुत चमत्कृत होओगे। तुम गये किसी साधु के पास और उसने कहा कि आओ; तुम्हारा नाम लिया, तुम्हारे गांव का पता बताया और कहा कि ‘तुम्हारे घर के बगल में एक नीम का झाडू है’ —तुम दीवाने हो गये! लेकिन, साधु को नीम के झाडू से क्या लेना, तुम्हारे गांव से क्या लेना, तुम्हारे नाम से क्या मतलब? साधु तो वह है जिसे यह पता चल गया है कि किसी का कोई नाम नहीं, रूप नहीं, किसी का कोई गांव नहीं। ये गांव, नाम, रूप —सब संसार के हिस्से है। तुम संसारी हो! वह साधु भी तुम्हें प्रभावित कर रहा है, क्योंकि वह तुमसे गहरे संसार में है। उसने और भी कला सीख ली।

तुम्हारे बिना बताये वह बोलता है.। वह तुम्हें प्रभावित करना चाहता है। ध्यान रखो—जब तक तुम दूसरे को प्रभावित करना चाहते हो, तब तक तुम अहंकार से ग्रस्त हो। आत्मा किसी को प्रभावित करना नहीं चाहती। दूसरे को प्रभावित करने में सार भी क्या है! पानी पर बनायी हुई लकीरों जैसा है।

क्या होगा मुझे—दस हजार लोग प्रभावित हों कि दस करोड़ लोग प्रभावित हों। इससे होगा क्या? उनको प्रभावित करके मैं क्या पा लूंगा। अज्ञानियों की भीड़ को प्रभावित करने की इतनी उत्सुकता अज्ञान की खबर देती है। राजनेता दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक होता है—समझ में आता है; लेकिन धार्मिक व्यक्ति क्यों दूसरों को प्रभावित करने में उत्सुक होगा!

जब भी तुम दूसरों को प्रभावित करना चाहते हो, तब एक .बात याद रखना कि तुम आत्मस्थ नहीं हो। दूसरे को प्रभावित करने का अर्थ है कि तुम अहंकार—स्थित हो। अहंकार दूसरे के प्रभाव को भोजन की तरह उपलब्ध करता है; उसी पर वह जीता है। जितनी आंखें मुझे पहचान लें, उतना मेरा अहंकार बड़ा होता है। अगर सारी दुनिया मुझे पहचान ले, मेरा अहंकार सर्वोत्कृष्ट हो जाता है। कोई मुझे न पहचाने—गांव से निकलूं सड़क से गुजरूं, कोई देखे न, कोई रेकगनीशन नहीं, कोई प्रत्यभिज्ञा नहीं; किसी की आंख में झलक न आये, लगे ऐसा जैसा कि मैं हूं ही नहीं—बस, वहां अहंकार को चोट है।

अहंकार चाहता है कि दूसरे ध्यान दें। यह बड़े मजे की बात है— अहंकार ध्यान नहीं करना चाहता; दूसरे उस पर ध्यान करें.., सारी दुनिया उसकी —तरफ देखे, वह केंद्र हो जाए।

धार्मिक व्यक्ति, दूसरा मेरी तरफ देखे, इसकी फिक्र नहीं करता; मैं अपनी तरफ देखूं—क्योंकि अंततः वही मेरे साथ जाएगा। राह तो बच्चों की बात हुई। बच्चे खुश होते हैं कि दूसरे उनकी प्रशंसा करें। सर्टिफिकेट घर लेकर आते हैं तो नाचते—कूदते आते हैं। लेकिन बुढ़ापे में भी तुम सर्टिफिकेट मांग रहे हो——तब तुमने जिंदगी गंवा दी! सिद्धि की आकांक्षा दूसरे को प्रभावित करने में है। धार्मिक व्यक्ति की वह आकांक्षा नहीं है। वही तो सांसारिक का स्वभाव है।

यह सूत्र कहता है कि मोह—आवरण से युक्त योगी को सिद्धियां तो फलित हो जाती हैं, लेकिन आत्मज्ञान नहीं होता। वह कितनी ही बड़ी सिद्धियों को पा ले—उसके छूने से मुर्दा जिंदा हो जाए, उसके स्पर्श से बीमारियां खो जाएं वह पानी को छू दे और औषधि हो जाए—लेकिन उससे आत्मज्ञान का कोई भी संबंध नहीं है। सच तो स्थिति उलटी है कि जितना ही वह व्यक्ति सिद्धियों से भरता जाता है, उतना ही आत्मज्ञान से दूर होता जाता है; क्योंकि जैसे—जैसे अहंकार भरता है, वैसे—वैसे आत्मा खाली होती है और जैसे—जैसे अहंकार खाली होता है, वैसे—वैसे आत्मा भरती है, तुम दोनों को साथ—ही—साथ न भर पाओगे।

दूसरे को प्रभावित करने की आकांक्षा छोड़ दो, अन्यथा योग भी भ्रष्ट हो जाएगा। तब तुम योग भी साधोगे तो वह भी राजनीति होगी, धर्म नहीं। और राजनीति एक जाल है। फिर येन—केन—प्रकारण आदमी दूसरे को प्रभावित करना चाहता है। फिर सीधे और गलत रास्ते से भी प्रभावित करना चाहता है। लेकिन प्रभावित तुम करना ही इसलिए चाहते हो, क्योंकि तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो।

मैंने का है, चुनाव हो रहे थे और एक संध्या तीन आदमी हवालात में बंद किये गये। अंधेरा था—तीनों ने अंधेरे में एक—दूसरे को परिचय दिया। पहले व्यक्ति ने कहा, ‘मैं हूं सरदार संतसिंह। मैं सरदार सिरफोड़सिह के लिए काम कर रहा था।’ दूसरे ने कहा, ‘गजब हो गया! मैं हूं सरदार शैतानसिंह। मैं सरदार सिरफोड़सिह के विरोध में काम कर रहा था।’ तीसरे आदमी ने कहा, ‘वाहे गुरुजी की फतह! वाहे गुरुजी का खालसा! हद हो गयी। मैं खुद हूं सरदार सिरफोड़सिह।’

नेता, अनुयायी, पक्ष के, विपक्ष के—सभी कारागृहों के योग्य हैं। वही उनकी ठीक जगह है, जहां उन्हें होना चाहिए क्योंकि, पाप की शुरुआत वहां से होती है, जहां मैं दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करना चाहता हूं।

क्योंकि अहंकार न शुभ जानता है, न अशुभ; अहंकार सिर्फ अपने को भरना जानता है। कैसे अपने को भरता है, यह बात गौण है। अहंकार की एक ही आकांक्षा है कि मैं अपने को भरूं और परिपुष्ट हो जाऊं। और, चूंकि अहंकार एक सूनापन है, सब उपाय करके भी भर नहीं पाता, खाली ही रह जाता है। जैसे—जैसे उम्र हाथ से खोती है, वैसे—वैसे अहंकार पागल होने लगता है; क्योंकि अभी तक भर नहीं पाया, अभी तक यात्रा अधूरी है और समय बीता जा रहा है। इसलिए ,बूढे आदमी चिड़चिड़े हो जाते हैं। वह. चिड़चिड़ापन किसी और के लिए नहीं है; वह चिड़चिड़ापन अपने जीवन की असफलता के लिए है। जो भरना चाहते थे, वे भर नहीं पाये। और बूढ़े आदमी की चिड़चिड़ाहट और बनी हो जाती है; क्योंकि उसे लगता है कि जैसे—जैसे वह का हुआ है, वैसे—वैसे लोगों ने ध्यान देना बंद कर दिया है; बल्कि लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब समाप्त हो जाए।

मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया था। मैंने उससे पूछा कि ‘क्या तुम कुछ कारण बता सकते हो, नसरुद्दीन। परमात्मा ने तुम्हें इतनी लंबी उम्र क्यों दी?’ तो उसने बिना कुछ झिझककर कहा, ‘संबंधियों के धैर्य की परीक्षा के लिए।’
सभी बूढ़े संबंधियों के धैर्य की परीक्षा कर रहे हैं। वे चौबीस घंटे देख रहे हैं कि ध्यान उनकी तरफ से हटता जा रहा है। मौत तो उन्हें बाद में मिटायेगी, लोगों की पीठ उन्हें पहले ही मिटा देती है। उससे चिड़चिड़ापन पैदा होता है।

तुम सोच भी नहीं सकते कि निक्सन का चिड़चिड़ापन अभी कैसे होगा। सब की पीठ हो गयी, जिनके चेहरे थे। जो अपने थे, वे पराये हो गये। जो मित्र थे, वे शत्रु हो गये। जिन्होंने सहारे दिये थे, उन्होंने सहारे छीन लिये। सब ध्यान हट गया। निक्सन अस्वस्थ हैं, बेचैन हैं, परेशान हैं। कोई भी आदमी जाता है निक्सन के पास तो उससे पहली बात वे यह पूछते हैं कि मैंने जो किया, वह ठीक किया? लोग मेरे संबंध में क्या कह रहे है?
अभी यह आदमी शिखर पर था, अब यह आदमी खाई में पड़ा है! यह आदमी तो वही है जो कल था; पद पर था—वही आदमी अभी भी है। सिर्फ अहंकार के शिखर पर था, अब खाई में है; आत्मा तो जहा—की—तहा है। काश! इस आदमी को उसकी याद आ जाए, जिसका न कोई शिखर होता, न कोई खाई होती; न कोई हार होती, न जीत होती; जिसको लोग देखें तो ठीक, न देखें तो ठीक; जिसमें कोई फर्क नहीं पड़ता; जो एकरस है।

उस एकरसता का अनुभव तुम्हें तभी होगा, जब तुम लोगों का ध्यान मांगना बंद कर दोगे। भिखमंगापन बंद करो। सिद्धियों से क्या होगा? लोग तुम्हें चमत्कारी कहेंगे। लाखों की भीड़ इकट्ठी होगी; लेकिन लाखों मूढ़ों को इकट्ठा करके क्या सिद्ध होता है कि तुम इन लाखों मूढ़ों के ध्यान के केंद्र हो! तुम महामूढ़ हो!

अज्ञानी से प्रशंसा पाकर भी क्या मिलेगा! जिसे खुद ज्ञान नहीं मिल सका, उसकी प्रशंसा मांगकर तुम क्या करोगे? जो खुद भटक रहा है, उसके तुम नेता हो जाओगे? उसके सम्मान का कितना मूल्य है?

सुना है मैंने, एक सूफी फकीर हुआ; फरीद। वह जब बोलता था तो कभी लोग ताली बजाते थे तो वह रोने लगता। एक दिन उसके शिष्यों ने पूछा कि लोग ताली बजाते हैं तो तुम रोते किसलिए हो। तो फरीद ने कहा कि वे ताली बजाते हैं, तब मैं समझता हूं कि मुझसे कोई गलती हो गयी होगी। अन्यथा, वे ताली कभी न बजाते। ये इतने लोग! जब वे ताली नहीं बजाते, उनकी समझ में नहीं आता, तब मैं समझता हूं कि कुछ ठीक बात कह रहा हूं।

आखिर, गलत आदमी की ताली का मूल्य क्या है? तुम किसके सामने अपने को ‘सिद्ध’ सिद्ध करना चाह रहे हो? अगर तुम संसार के सामने अपने को ‘सिद्ध’ सिद्ध करना चाह रहे हो तो तुम नासमझों की प्रशंसा के लिए आतुर हो। तुम अभी नासमझ हो। और, अगर तुम सोचते हो कि परमात्मा के सामने तुम अपने को सिद्ध करना चाह रहे हो कि मैं सिद्ध हूं तो तुम और महा नासमझ हो; क्योंकि उसके सामने तो विनम्रता चाहिए। वहां तो अहंकार काम न करेगा। वहां पर तो तुम मिटकर जाओगे तो ही स्वीकार हो पाओगे। वहां तुम अकड़ लेकर गये तो तुम्हारी अकड़ ही बाधा हो जायेगी।

इसलिए, तथाकथित सिद्ध परमात्मा’ तक नहीं पहुंच पाते। बहुत—सी सिद्धियां उनकी हो जाती हैं, लेकिन असली सिद्धि चूक जाती है। वह असली सिद्धि है— आत्मज्ञान। क्यों आत्मज्ञान चूक जाता है? क्योंकि सिद्धि भी दूसरे की तरफ देख रही है, अपनी तरफ नहीं। अगर कोई भी न हो दुनिया में, तुम अकेले होओ तो तुम सिद्धियां चाहोगे? तुम चाहोगे कि पानी को रू और औषधि हो जाए? मरीज को क्यूं, स्वस्थ हो जाये? मुर्दे को छूऊं, जिंदा हो जाए? कोई भी न हो पृथ्वी पर, तुम अकेले होओ तो तुम ये सिद्धियां चाहोगे? तुम कहोगे, क्या करेंगे; देखनेवाले ही न रहे। देखनेवाले के लिए ही सिद्धियां हैं।

जब तक दूसरे पर तुम्हारा ध्यान है, तब .तक अपने पर तुम्हारा ध्यान नहीं आ सकता। और, आत्मज्ञान तो उसे फलित होता है, जो दूसरे की तरफ से आंखें अपनी तरफ मोड लेता है।

स्थायी रूप से मोह जय होने पर सहज विद्या फलित होती है।
स्थायी रूप से मोह जय होने पर सहज विद्या फलित होती है—मोह को जय करना है। मोह का क्या अर्थ है? मोह का अर्थ है. दूसरे के बिना मैं न जी सकूंगा; दूसरा मेरा केंद्र है।

तुमने बच्चों की कहानियां पढ़ी होंगी, जिनमें कोई राजा होता है और जिसके प्राण किसी पक्षी में, तोते में, मैना में बंद होते हैं। तुम उस राजा को मारो, न मार पाओगे। गोली आरपार निकल जाएगी, राजा जिंदा रहेगा। तीर छिद जएगा हृदय में, राजा मरेगा न्हीं। जहर पिला दो, कोई असर न होगा। राजा जीवित रहेगा। तुम्हें पता लगाना पड़ेगा उस तोते का, मैना का, जिसमें उसके प्राण बैद हैं। उसे तुम मरोड़ दो, उसकी तुम गर्दन तोड़ दो—उधर राजा मर जाएगा। ये बच्चों कि कहानियां बड़ी अर्थपूर्ण हैं; बूढ़ी के भी समझने योग्य हैं।

मोह का अर्थ है तुम अपने में नहीं जीते, किसी और चीज में जीते हो। समझो, किसी का मोह तिजोरी में है। तुम उसकी गर्दन मरोड़ दो, वह न मरेगा। तुम तिजोरी लूट लौ, वह मर गया। उनके प्राण तिजोरी में थे। उनका —बैंक..बैलेंस खो जाये—वे मर गये। उन्हें तुम मारो, वे मरनेवाले नहीं। जहर पिलाओ—वे जिंदा रहेंगे।

मोह का अर्थ है. तुमने अपने प्राण अपने से हटाकर कहीं और रख दिये हैं। किसी ने अपने बेटे में रख दिये हैं; किसी ने अपनी पत्नी में रख दिये हैं; किसी ने धन में रख दिये हैं; किसी ने पद में रख दिये हैं—लेकिन, प्राण कहीं और रख दिये हैं। जहां होना चाहिए प्राण वहां नहीं हैं। तुम्हारे भीतर प्राण नहीं धड़क रहा है, कहीं और धड़क रहा है। तब तुम मुसीबत में रहोगे।

यही मोह संसार है; क्योंकि जहां—जहां तुमने प्राण रख दिये, उनके तुम गुलाम हो जाओगे। जिस राजा के प्राण तोते में बंद हैं, वह तोते का गुलाम होगा; क्योंकि तोते के ऊपर सब कुछ निर्भर है। तोता मर जाये तो उसके प्राण गये। तो, वह तोते को संभालेगा।

मैंने सुना है कि एक सम्राट एक बार एक ज्योतिषी पर बहुत नाराज हो गया; क्योंकि ज्योतिषी ने उसके प्रधानमंत्री की भविष्यवाणी की और कहा कि यह कल मर जाएगा। और, कल प्रधानमंत्री मर भी गया। राजा बहुत चिंतित हुआ। और, उसे यह शक भी पक्का कि यह भी हो सकता है कि यह प्रधानमंत्री इसके कहने के कारण मर गया। इस पर भाव इतना गहरा हो गया कि मर गया, इसकी बात का प्रभाव इतना हो गया कि मर गया, और अब यह झंझट का आदमी है। यह अगर मुझसे भी कह दे कि कल तुम मर जाओगे, तो बचना बहुत मुश्किल है; क्योंकि इसका मुझपर भी प्रभाव पड़ेगा।

उसने ज्योतिषी को कारागृह में डाल दिया। ज्योतिषी ने पूछा कि क्यों? सम्राट ने कहा कि ‘तुम खतरनाक हो! मुझे लगता है कि यह भविष्यवाणी के कारण नहीं मरा, मरनेवाला था इसलिए नहीं मरा; तुमने कहा तो यह बात उसके मन में बैठ गयी, वह सम्मोहित हो गया और मर गया। तुम खतरनाक हो।’ उस ज्योतिषी ने कहा कि ‘इसके पहले कि तुम मुझे कारागृह में डालो मैं एक बात तुम्हें बता दूं कि तुम्हारा भविष्य भी मैंने निकाला हुआ है।’ सम्राट ने बहुत चाहा कि वह भविष्य न सुने; लेकिन ज्योतिषी बोल ही गया। सम्राट ने कहा कि चुप; लेकिन ज्योतिषी ने कहा कि चुप रहने का कोई उपाय ही नहीं। जिस दिन मैं मरूंगा, उसके तीन दिन बाद तुम मरोगे।’ बस, अब मुसीबत हो गयी। उस ज्योतिषी को महल में रखना पड़ा। उसकी बड़ी सेवा, चिंता…। उसके राजा हाथ—पैर दबाता; क्योंकि वह जिस दिन मरा, उसके तीन दिन बाद…।

जहां तुम अपने प्राण रख दपौ, उसकी तुम सेवा में लग जाओगे। लोगो को देखो—वे तिजोरी के पास कैसे जाते है। बिलकुल हाथ जोड़े, जैसे मंदिर के पास जाते है। तिजोरी पर ‘लाभ—शुभ’, ‘ श्री गणेशाय नम: ‘…। तिजोरी भगवान है! उसकी वे पूजा करते है।

दीवाली के दिन पागलों को देखो—सब अपनी—अपनी तिजोरी की पूजा कर रहे हैं। वहां उनके प्राण हैं। किस भाव से वे करते हैं, वह भाव देखने जैसा है। दुकानदार हर साल अपनी खाता—बही शुरू करता है, तो स्वस्तिक बनाता है।’लाभ—शुभ’ लिखता है, ‘श्री गणेशाय नम:’ लिखता है। तुम्हें पता है कि यह गणेश की इतनी स्तुति क्यों करता है? यह गणेश पुराने उपद्रवी हैं।

पुरानी कथा है कि गणेश विघ्र के देवता हैं। दिखते भी इस ढंग से हैं कि उपद्रवी होने चाहिए। एक तो खोपड़ी अपनी नहीं। जिसके पास खोपड़ी अपनी नहीं, वह आदमी पागल है। उससे तुम कुछ भी… .कुछ भी असंभव वह कर सकता है। ढंग—डौल उनका देखो—संदिग्ध हैं। चूहे पर सवार हैं। वह चूहा तर्क है; कतरनी की तरह काटता है। तर्क कभी भी भरोसे—योग्य नहीं है। तर्क जहां भी जायेगा, वहां विघ्र उपस्थित करेगा। जिसके जीवन में तर्क घुस जाएगा, उसके जीवन में उपद्रव आ जाएंगे, अराजकता आ जाएगी, सब शांति खो जाएगी।
तो, गणेश पुराने देवता हैं विघ्र के। जहां भी कहीं कुछ शुभ हो रहा हो, वे मौजूद हो जाते है। लोग उनसे डरने लगे। डरने के कारण पहले उनको हाथ जोड़ लेते है कि कृपा करके आप कृपा रखना,बाकी हम सब संभाल लेंगे। और धीरे— धीरे हालत ऐसी हो गयी कि जो देवता विघ्र का था, लोग उसको मंगल का देवता मानने लगे। पर वे भूल गये हैं कहानी। वह उनका हाथ जोड़ना ठीक ही है कि यहां मत आना। इस तरफ कृपा—दृष्टि रखना।

देखें, तिजोरी के पास किस भाव से भक्त धन की पूजा करता है!

मोह के आवरण का अर्थ होता है कि तुम्हारी आत्मा कहीं और बंद है। वह पत्नी में हो, धन में हो, पद में हो—वह कहीं भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; लेकिन तुम्हारी आत्मा तुम्हारे भीतर नहीं है—मोह का यह अर्थ है। और शाश्वत, स्थायी रूप से मोह—जय का अर्थ है कि तुमने सारी परतंत्रता छोड़ दी। अब तुम किसी और पर निर्भर होकर नहीं जीते; तुम्हारा जीवन अपने पर निर्भर है। तुम स्वकेंद्रित हुए। तुमने अपने अस्तित्व को ही अपना केंद्र बना लिया। अब पली न रहे, धन न रहे, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा—वे ऊपर की लहरें है—तो भी तुम उद्विग्र न हो जाओगे। सफलता रहे कि विफलता, सुख आये कि दुख—कोई अंतर न पड़ेगा। क्योंकि, अंतर पड़ता था इसलिए कि तुम उन पर निर्भर थे।

मोह—जय का अर्थ है: परम स्वतंत्र हो जाना; मैं किसी पर निर्भर नहीं हूं—ऐसी प्रतीति; मैं अकेला काफी हूं पर्याप्त हूं—ऐसी तृप्ति। मेरा होना पूरा है, ऐसा भाव मोह—जय है। जब तक दूसरे के होने पर तुम्हारा होना निर्भर है, तब तक मोह पकड़ेगा; तब तक तुम दूसरे को जकडोगे कि कहीं छूट न जाये, कहीं खो न जाये रास्ते में; क्योंकि उसके बिना तुम कैसे रहोगे!

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी मरी तो वह औपचारिक रूप से रो रहा था। लेकिन मुल्ला नसरुद्दीन का एक मित्र था, वह बहुत ही ज्यादा शोरगुल मचाकर रो रहा था—छाती पीट रहा है, आंसू बहा रहा है। मुल्ला नसरुद्दीन से भी न रहा गया। उसने कहा, ‘मेरे भाई, मत इतना शोरगुल कर, मैं फिर शादी कर लूंगा। तुम इतने ज्यादा दुखी मत होओ।’ वे मित्र जो थे, वे मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी के प्रेमी थे। नसरुद्दीन के प्राण वहां न थे, लेकिन उनके प्राण वहां थे। उसने ठीक ही कहा कि तुम इतना शोरगुल मत करो, मैं फिर शादी करूंगा।

कौन—सी चीज तुम्हें रुलाती है—वही तुम्हारा मोह है। कौन—सी चीज के खो जाने से तुम अभाव अनुभव करते हों—वही तुम्हारा मोह है। सोचना, कौन—सी चीज खो जाए कि तुम एकदम दीन—दीन हो जाओगे—वह तुम्हारे मोह का बिंदु है। और, इसके पहले कि वह खोए, तुम उस पर से अपनी पकड़ छोड़ना, क्योंकि वह खोएगी। इस संसार में कोई भी चीज स्थिर नहीं है—न मित्रता, न प्रेम—कोई भी चीज स्थिर नहीं है। यहां सब बदलता हुआ है। संसार का स्वभाव प्रतिक्षण परिवर्तन है। यह एक बहाव है—नदी की तरह बह रहा है। यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं। तुम लाख उपाय करो, तो भी कुछ ठहरा हुआ नहीं हो सकता। तुम्हारे उपाय के कारण ही तुम परेशान हो। जो सदा चल रहा है, उसको तुम ठहरना चाहते हो; जो बह रहा है, उसे तुम रोकना चाहते हो, जमाना चाहते हो—वह जमनेवाला नहीं है। वह उसका स्वभाव नहीं है।,
परिवर्तन संसार है और वहां तुम चाहते हो कि कुछ स्थायी सहारा मिल जाये, वह नहीं मिलता। इसलिए तुम, प्रतिपल दुखी हो। हर क्षण तुम्हारे सहारे खो जाते हैं।

एक बात खोजने की चेष्टा करना कि कौन—सी चीजें हैं जो खो जायें तो तुम दुखी होओगे। इसके पहले कि वे खोये, तुम अपनी पकड़ हटाना शुरू कर देना। यह मोह—जय का उपाय है। पीड़ा होगी; लेकिन यह पीड़ा झेलने जैसी है; यह तपश्‍चर्या है। कुछ छोड्कर भाग जाने की जरूरत नन्हीं कि तुम अपनी पत्नी को छोड्कर हिमालय भाग जाना। तुम जहां हो, वहीं रहना। लेकिन पत्नी पर निर्भरता को धार— धीरे काटते जाना। कोई जरूरत नहीं कि इससे पली को दुख दो। पत्नी को पता भी नहीं चलेगा; कोई कारण भी नहीं पता चलाने का किसी को।
जीसस ने कहा है कि तुम्हारा बायां हाथ क्या करता है, दायें को पता न चले तो ही तुम ठीक—ठीक साधक हो। क्योंकि दूसरे को पता चलाने की इच्छा भी अहंकार की इच्छा है। तुम पता चलाना चाहते हो दूसरे को कि ‘देखो, पत्नी को छोड़ दिया, हिमालय जा रहे हैं! कितना महान कार्य कर दिया! ‘ कुछ भी महान कार्य नहीं। कोई भी पति से पूछो, सभी पति हिमालय जाना चाहते हैं। नहीं जा पाते, यह दूसरी बात है।

मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन पहुंचा गांव के पागलखाने और उसने द्वार खटखटाया। सुपरिटेंडेंट ने दरवाजा खोला और कहा कि ‘क्या मामला है?’ मुल्ला ने कहा, ‘क्या कोई आदमी पागलखाने से भाग गया है?’ सुपरिटेंडेंट ने कहा, ‘तुम्हें इससे क्या मतलब? और क्या तुमने किसी को भागते देखा?’

नसरुद्दीन ने कहा कि ‘नहीं, मेरी पत्नी को लेकर कोई आदमी भाग गया है। तो मैंने सोचा, जरूर कोई पागलखाने से छूट गया है। क्योंकि हम खुद ही छूटना चाह रहे थे, वह अपने हाथ से आ फंसा है।’

पतियों से पूछो! संसार में जो खड़ा है, उसके दुख का कोई अंत नहीं है। भाग नहीं सकता; क्योंकि उसे सुख कहीं दूसरी जगह दिखायी भी नहीं पड़ता, कहां जाए? और जहां जाएगा, संसार साथ तो होगा ही। और फिर, बडी आकांक्षाओं से इस जगह को उसने बनाया है और अब इतने बनाने के बाद तोड़ना मुश्किल है; पूरी जिंदगी व्यर्थ होती है।

मोह की खोज करना। जिन चीजों के बिना तुम न रह सको, उनके बिना धीरे— धीरे रहने की भीतरी चेष्टा करना। और, एक ऐसी स्थिति बना लेना कि अगर वे सब भी खो जाएं तो भी तुम्हारे भीतर कोई कम्पन न होगा—तो मोह—विजय हुई। और, यह हो सकता है; यह हुआ है। एक को हुआ है; सभी को हो सकता है।

यह सूत्र कहता है, शिव का: स्थायी रूप से मोह—जय से विद्या फलित होती है। जिस दिन भी मोह—जय हो जाती है, उसी दिन तुम पाते हो कि उस विद्या का तुम्हें अनुभव होने लगा; वह ज्ञान स्फुरने लगा, जो सहज है, जो किसी से सीखा नहीं जाता—वही आत्मज्ञान है।
आत्मज्ञान दूसरे से सीखने की कोई सुविधा नहीं है; वह भीतर सफुरित होता है। जैसे वृक्षों में फूल लगते हैं, जैसे झरने बहते हैं—ऐसा तुम्हारे भीतर जो बह रहा है, कलकल नाद कर रहा है, वह तुम्हारा ही है—सहज उसे किसी से लेना नहीं। कोई गुरु उसे दे नहीं सकता; सभी गुरु उस तरफ इशारा करते हैं। जब तुम पाओगे, तब तुम पाओगे कि यह भीतर ही छिपा था; यह अपनी ही संपदा है। इसलिए ‘सहज विद्या’ कहा है।
दो तरह की विद्याएं है। संसार की विद्या सीखनी है तो दूसरे से सीखनी पड़ेगी; वह सहज नहीं है। कितना ही बुद्धिमान आदमी हो, संसार की विद्या दूसरे से सीखनी पड़ेगी। और, कितना ही मूढ आदमी हो, तो भी आत्मविद्या दूसरे से नहीं सीखनी पड़ेगी। वह तुम्हारे भीतर है। बाधा मोह की है। मोह कट जाता है—बादल छंट जाते हैं, सूर्य निकल आता है!

ऐसे जागृत योगी को ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का परित्कृरण है— ‘ऐसा बोध होता है। और, जिस दिन सहज विद्या का जन्म होता है, जागृति आती है तो दिखाई पड़ता है कि ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का स्फुरण है।’

तब तुम केंद्र हो जाते हो। तुम बहुत चाहते थे कि सारे जगत के केंद्र हो जाओ, लेकिन अहंकार के सहारे वह नहीं हो पाया। हर बार हारे। और अहंकार खोते ही तुम केंद्र हो जाते हो।

तुम जिसे पाना चाहते हो, वह तुम्हें मिल जायेगा; लेकिन तुम गलत दिशा में खोज रहे हो। तुम प्रांत मार्ग पर चल रहे हो। तुम जो पाना चाहते हो, वह मिल सकता है; लेकिन जिसके सहारे तुम पाना चाहते हो, उसके सहारे नहीं मिल सकता; क्योंकि तुमने गलत सारथी चुना है। तुमने वाहन गलत चुन लिया है। अहंकार से तुम कभी भी विश्व के केंद्र न बन पाओगे। और, निरहंकारी व्यक्ति तख्ता विश्व का केंद्र बन जाता है। बुद्धत्व प्रगट होता है बोधि—वृक्ष के नीचे, सारी दुनियां परिधि हो जाती है; सारा जगत परिधि हो जाता है; बुद्धत्व केंद्र हो जाता है। सारा जगत फिर मेरा ही फैलाव है। फिर सभी किरणें मेरी हैं। सारा जीवन मेरा है—लेकिन, यह ‘मेरा’ तभी फलित होता हैं, जब ‘मैं’ नहीं बचता। यही जटिलता है। जब तक ‘मैं’ है, तब तक तुम कितना ही बड़ा कर लो ‘मेरे’ के फैलाव को; कितना ही बड़ा साम्राज्य बना लो—तुम धोखा दे रहे हो।

काफी चल चुके हो। अनेक—अनेक जन्मों में भटक चुके हो, फिर भी सजग नहीं हो!

मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन हवाई जहाज में सवार हुआ। अपनी कुर्सी पर बैठते ही उसने परिचारिका को बुलाया और कहा कि ‘सुनो! तेल, पानी, हवा, पेट्रोल, सब ठीक—ठीक हैं न? ‘उस परिचारिका ने कहा कि ‘तुम अपनी जगह शांति से बैठो। यह तुम्हारा काम नहीं। यह हमारी चिंता है।’ नसरुद्दीन ने कहा कि ‘फिर बीच में उतरकर धक्का देने के लिए मत कहना।’

मुझे किसी ने बताया तो मैंने नसरुद्दीन को पूछा, ‘ऐसी बात घटी?’ उसने कहा, ‘घटी। दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंक कर पीता है। बस का जला हवाई जहाज में भी चिंता रखता है—बीच में उतरकर धक्का न देना पड़े।’ तुम बहुत बार जल चुके हो। छाछ को भी फूंक—फूंक कर पीना तो दूर, तुमने अभी दूध को भी फूंक—फूंक कर पीना नहीं सीखा।

जीवन की बड़ी—से—बड़ी दुविधा यही है कि हम अनुभव से सीख नहीं पाते। लोग कहते हैं कि हम अनुभव से सीखते हैं; लेकिन दिखाई नहीं पडता। कोई अनुभव से सीखता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। फिर—फिर तुम वही भूलें करते हो। नयी भी करो, तो भी कुछ कुशलता है। नयी भी करो तो भी कुछ जीवन में गति आए, प्रौढ़ता आए। वही—वही भूलें बार—बार करते हो, पुनरुक्ति करते हो।

चित्त एक वर्तुल है। तुम उसी—उसी में घुमते रहते हो चाक की तरह और वह चाक चलता है तुम्हारे मोह से। मोह को तोड़ो, चाक रुक जायेगा। चाक के रुकते ही तुम पाओगे कि तुम केंद्र हो। तुम्हें केंद्र बनने की जरूरत नहीं है, तुम हो। तुम्हें परमात्मा बनने की आवश्यकता नहीं है, तुम हो ही। इसलिए वह विद्या सहज है।

ऐसे जाग्रत योगी को ‘सारा जगत मेरी ही किरणों का स्कुरण है’ —ऐसा बोध होता है। और, इस बोध का परम आनंद है। इस बोध में परम अमृत है। इस बोध के आते ही तुम्हारे जीवन से सारा अंधकार खो जाता है—सारा सुख, सारी चिंता; तुम एक हर्षोन्माद से भर जाते हो; एक मस्ती, एक गीत का जन्म होता है तुम्हारे जीवन में; तुम्हारी श्वांस—श्वांस पुलकित हो जाती है, सुगंधित हो जाती है—किसी अज्ञात के स्रोत से।

वह सहज विद्या है; कोई शास्त्र उसे सिखा नहीं सकता। कोई गुरु उसे सिखा नहीं सकता। लेकिन, गुरु तुम्हें बाधाएं हटाने में सहयोगी हो सकता है। इस बात को ठीक से खयाल में ले लेना।

उस परम विद्या को सीखने का कोई उपाय नहीं है, लेकिन परम विद्या के मार्ग में जो—जो बाधाएं है, उनको दूर करने का उपाय सीखना पड़ता है। ध्यान से वह परम संपदा नहीं मिलेगी; ध्यान से केवल दरवाजे की चाबी मिलेगी। ध्यान से केवल दरवाजा खुलेगा। वह परम संपदा तुम्हारे भीतर है। तुम ही हो वह—तत्वमसि! वह ब्रह्म तुम ही हो।

 

सब उपाय बाधाएं हटाने के लिए हैं—मार्ग के पत्थर हट जाएं। मंजिल, मंजिल तुम अपने साथ लिए चल रहे हो। सहज है ब्रह्म; कठिनाई है तुम्हारे मोह के कारण। कठिनाई यह नहीं है कि ब्रह्म को मिलने में देर है; कठिनाई यह है कि संसार को तुमने इतने जोर से पक्का है कि जितनी देर तुम छोड़ने में लगा दोगे, उतनी ही देर उसके मिलने में हो जाएगी। इस क्षण छोड़ सकते हो—इसी क्षण उपलब्धि है। रुकना चाहो—जन्मों—जन्मों से तुम रुके हो, और भी जन्म—जन्म रुक सकते हो। वैसे काफी हो गया, जरूरत से ज्यादा रुक लिये। अब और रुकना जरा भी अर्थपूर्ण नहीं है।

समय पक गया है; अब संसार के वृक्ष से तुम्हें गिर जाना चाहिए। और, डरो मत कि वृक्ष से गिरेंगे तो खो जाएंगे। खो जाओगे, लेकिन तुम्हारा जो व्यर्थ है वही खोएगा जो सार्थक है, वह अनंत गुना होकर उपलब्ध हो जाता है।

आज इतना ही।